Friday, July 7, 2017

ऑलमोस्ट डाइड,

कभी- कभी इस बेनूर सी जिंदगी में
चुपके से जीना पड़ता है
इतना धीमे की पता भी न चले की सांस का आरोह- अवरोह है भी या नहीं
हम अपनी ही देह को निस्तेज 
और निढाल पड़ा देखते हैं दूर कहीं सुमसाम में
हवा में
हम ऐसे रह गए यहाँ
जैसे छोड़ दी गई जगह कोई
न नगर, न खरपतवार कोई
मन बसता भी नहीं, उजड़ता भी नहीं
दिल्ली में चौंसठ खंभा से कुछ ही दूरी पर
हज़रत निज़ामउद्दीन औलिया की दरगाह के पास
ग़ालिब की सूनी कब्र से हम
सूखे हुए गुलाब के फूल उड़ते हों बगैर खुशबू के जहाँ
पीपल के सूखे पत्तें गर्मियों के दिनों में सरसरा जाते हों दरगाह के फर्श पर जैसे
बारिशों में भीग-भीगकर स्याह काले हो जाते हों पत्थर जहाँ
कोई शायर भरी महफ़िल में
अपनी याददाश्त खो बैठे
शेर याद आए तो मिसरा भूल जाए
या फेज़ का कोई शेर हवा में अटक जाए ऐसे
की उसे वाह भी न मिले और आह भी न मिले
कभी- कभार हम खुद ही
अपनी कलाई पकड़ नस दबाकर देख लेते हैं
हम हैं की नही
किसी के पास कोई हकीमी हुनर हो तो आएं
और देखे
नब्ज़ टटोल लें
बताएं हम हैं की नहीं
तुम हो की नहीं
तुम, हां तुम ही।

- ऑलमोस्ट डाइड,

Sunday, July 2, 2017

जैसे नीला समंदर अपने भरे गले से गा रहा हो.


किसी ऊँची जगह पर चढ़ना और मेहदी हसन की ग़जल सुनना, कमोबेश दोनों का एक ही हासिल है, कम अज कम मेरे लिए तो। ऐसा सुख जिसे हम किसी ऊंचाई पर पहुँच कर भोगते हैं- जैसे पहाड़ पर चढ़ने का सुख।
जगजीत सिंह ज्यादातर गज़लों में दुःख गाते हैं। वे एक राग रुदन के साथ तुम्हे अंधेरे में तन्हां छोड़ देते हैं। अगर उनके गाये पंजाबी टप्पों को छोड़ दिया जाए तो, वे अपनी अधिकतर गज़लों में ताउम्र पीड़ा ही गुनगुनाते रहे।
इसके बरअक्स, मेहदी हसन इश्क़ गाते थे। राग इश्क। उनकी खरज हमें रूमानी हासिल के साथ एक क्लैसिक हाइट पर ले जाती है- एक रूमानी गहराई में। इश्क और मौसिकी दोनों में एक साथ सबसे ऊँची जगह होने का अंदाज़ देती हुई। प्रेम में होने और मौसिकी के सुर- ताल, स्वर लहरियां व इबारत समझने की मिक्स फीलिंग। कई बार उन्हें सुनने के दौरान हम कुछ भी दर्ज नहीं कर पाते। कोई टेक्स्ट नहीं, कोई कविता नहीं।
लता मंगेशकर ने एक बार कहीं कहा था- ' मेहदी हसन की आवाज़ ख़ुदा की आवाज है ' - ख़ुदा ने ख़ुदा की आवाज़ को ख़ुदा कहा। सुनिए, ख़ुदा की आवाज़ कैसी होगी।
करीब बाईस साल पहले एक टूरिस्ट बस में पहली बार मेहदी हसन की आवाज़ सुनी थी, पहली गज़ल थी- ' जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ' दूसरी थी - ' रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ ' एक ही सफर में प्रेम के दोनों छोर, दोनों किनारे समझ में आ गए- पहले प्रेम और फिर विरह। - और फिर अपना स्टेशन आ गया, जहाँ हम उतर गए।
इसके बाद इतने सालों में वक़्त- बेवक़्त मेहदी की सैकड़ों गज़लें सुनी। रिकॉर्डिंग्स, लाइव कंसर्ट रिकॉर्डिंग और पाकिस्तान की चलताऊ फिल्मों में गाये उनके गाने भी। सब सुना। इस बीच इंटरनेट कैफे पर कई - कई घण्टों डाउनलोडिंग का भी एक लंबा सिलसिला चला। इस पैशन से कई रेयर गज़लें भी इकट्ठा हो गईं। इनमें से बहुत तो याद हो गई, कुछ की सिर्फ धुनें याद है- सैकड़ों सुनना अभी बाकी है। - इतने सालों तक सुनते रहने के बाद अब
भी लगता है जैसे एक बड़ा सा नीला समंदर अपने भरे गले से गा रहा है, शे'र पढ़ रहा है। इतना इत्मीनान और ठहराव, एक पूरी अंधेर रात में सिर्फ एक सांस। पूरी रात जगराता और लगे कि सिर्फ एक आह ली हों। जैसे हम भी धीरे- धीरे जी रहे हों, मेहदी की आवाज के साथ- साथ। जैसे पहाड़, जंगल और समंदर जीते हैं अपनी ही जगहों पर खड़े- खड़े। पहाड़ कहीं नहीं जाता, वहीँ होता है अपनी जगह, फिर भी अपने जीवन में सबसे ऊंचा है, समंदर कहीं नहीं जाता, वह अपनी जगह ही अपने राग और अपने आलाप में बहता है। अरण्य किसी के पास चलकर नहीं जाता, वो हर कहीं नहीं उगता, फिर भी अपने खुद में गहन है- इंटेंस है। मेहदी हसन की आवाज भी वहीँ है, अपने ही होठों पर हलकी सी मुस्कुराती हुई, उन्हीं के अंदर, उस तह में, उनके गले की गहरी सुरंग में- और इस तरफ तुम्हारे मन की अतल गहराइयों में।
दरअसल, मेहदी हसन गाते नहीँ थे, सुनाते थे, जैसे पहाड़ गाते नहीं, फिर भी वे तुम्हे वो सब देते हैं, जो तुम्हे चाहिए -एक अदम्य ऊंचाई, बीते हुए पत्थर, कांटे और फूल भी। प्रेम और विरह का एक इंटेंस जंगल, एक अरण्य। ग़जल सुनने की एक क्लैसिक हाइट।

Sunday, June 18, 2017

जिसे आप देख रहे वो व्यापारी, जिसे मैं देख रहा वो अन्नदाता

- खेतों में बीज बो कर धान उगाने वाला अन्नदाता अन्न की बर्बाद नहीं कर सकता. वो अन्न का एक दाना भी अपने पैरों के नीचे नहीं आने देता है. किसानों की आड़ में एक अदृश्य अराजक अपने काम को अंजाम दे रहा है. - और अगर मैं गलत हूं- वो किसान ही है जो सड़कों पर अन्न बर्बाद कर रहा है, तो फिर वो निश्चित रू प से अराजक हो चुका है, जो पहले कभी नहीं रहा.
- और यह लालबहादूर शास्त्री का किसान तो बिल्कुल भी नहीं है.
मैंने अपने आसपास ऐसे किसान देखे हैं, जो अपने खेत, खलिहान और घर के आसपास बिखरे अनाज के दानों को बिन-बिनकर ढेर सारा अनाज इकठ्ठा कर लेते हैं. जिस जगह आपको एक दाना नजर नहीं आएगा, वहां से बैठे-बैठे वे कई किलो धान इकठ्ठा कर लेते हैं. इस प्रैक्टिस से उनकी कमर झुक जाती है, ज्यादातर किसान अपने बुढ़ापे में झुककर ही चलते नजर आते हैं. अन्न की इस कदर कद्र करने वाला कोई किसान तो क्या, कोई अन्य आदमी भी
अन्न के प्रति इतना रोष नहीं रखेगा.
पानी के टोटे और बिजली की कटौती में रात-रातभर जागकर हल जोतने वाला किसान अपना धान और दूध सड़कों पर नहीं उड़ेलता. वो जानवरों को नहीं मारता, पक्षियों को गोली नहीं मारता. अपने खेतों की फसल को पक्षियों से बचाने के लिए भी वो आदमीनुमा एफिजी का इस्तेमाल करता है. कभी किसी ट्रेन से गुजरते हुए तुमने देखा होगा जीजस क्राइस्ट पक्षियों को डराते हुए खेतों में खड़ा रहता है.
किसान और किसानों की स्थिति को समझने के लिए एक पूरा वर्ग जिस दयाभाव का इस्तेमाल कर रहा है, किसान वैसा नहीं है. वो अपने खेतों को खून से सींचकर अनाज उगाता है. अपना पेट खुद पालता है. इसके विरुद्ध आप और हम उसके धान पर पल रहे हैं. आपकी तरह उसका जीवन चाकरी पर नहीं, वह अपने अरण्य का मालिक है. इसलिए उसे आपके दयाभाव की कतई जरुरज नहीं है.
जो लोग शहरों में रहते हैं, या गांवों से जिनका वास्ता नहीं है, वे किसानों को इस आंदोलन के जरिये उसी दयादृष्टि और हीनभाव से देख रहे हैं. दरअसल, वे जानते ही नहीं कि किसान होता क्या है, यह किस शै का नाम है. सुनिए! ... इस आंदोलन में वो किसान शामिल नहीं है, जो महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में आत्महत्या कर रहा है. साहूकारों से साल पर जमीन उधार लेकर अपना पेट पालने के लिए उसमें हल चलाने वाला किसान इसमें शामिल नहीं है. जिसके पास आधा बीघा जमीन भी नहीं, ऐसा बे- जमीन किसान इसमें शामिल नहीं है. ऐसे किसान की तो सरकार से 50 हजार रुपए तक कर्ज लेने की औकात नहीं है, वो तो ताउम्र अपने नफे-नुकसान पर ही जीता और मरता है. विरासत में अपनी औलादों को गरीबी सौंप जाता है। फिर भी वो बसें नहीं जलाता, आग नहीं लगाता, मुँह पर कपडा बांधकर पत्थर नहीं फेंकता।
- तो फिर कौन सा किसान इसमें शामिल है. जिसे आप किसान कह रहे हो और मान रहे हो. दरअसल, वह बड़ी दूध डेयरियों का मालिक है. वे सब्जी मंडियों के ठेकेदार हैं. उन्नत खेती के जरिये जो कई हैक्टेयर्स में सब्जियां उगाता है. जिनके पास हैक्टेयर्स में जमीनें हैं, जो अनाज मंडियों के नेता है, पदाधिकारी है. ये साहूकार है, जो धुप में सूख चुकी चमड़ी, पतली टांगों और और पिचके हुए पेट वाले किसानों को अपनी जमीन अदीने पर देते हैं. किसान और मजदूर के बीच का जीवन जीने वाला गरीब आदमी जिनकी जमीनों पर गैहूं, चना और सोयाबीन उगाता है. यह वह व्यापारी है, जिसने ‘अन्नदाता’ शब्द भी भारत के असल किसान से छीन लिया. अब अन्नदाता उसको कहा जाता है, जो गांवों में गरीबों को ब्याज पर बीज देकर उसका खून चूसता है, बीज देने से पहले ही वो धूप में सिकी चमड़ी उतार लेता है। इन सब के बाद भी वो गरीब खेत में बेल की तरह नजर आता है.
आप उसे किसान समझ रहे हैं, जिसने सरकार से कर्ज लेकर चार- चार ट्रैक्टर अपने घर के सामने खड़े कर लिए. नेशनल हाइवेज के पास से गुजरने वाली जमीन जिसने सरकार को करोड़ों रुपए में बेची है, जिसकी कीमत हाइवे बनने- गुजरने से पहले हजारों भी नहीं थी. जिनको सरकारी उपक्रम लगाने के लिए अपनी जमीन के बदले सरकार से करोड़ों रुपए मुआवजा मिल गया है. जिन्होंने जमीनें बेचकर अब मोटरसाइकिल के शोरूम गांवों में खोल लिए हैं. इनके लौंडे जब चाहे मॉल में तफरी करते हैं। यह व्यापारी, साहूकार जो अब भी इस अदृश्य किसानों के नाम पर सरकार से लिए हुए कर्ज की माफी चाहते हैं. दूध के भाव 50 रुपए लीटर करना चाहते हैं, बगैर ब्याज का कर्ज चाहते हैं.
आपका दयादृष्टि वाला भाव अच्छा है, इसे आप अपने पास रखिये, लेकिन जिसे आप इस दृष्टि से देख रहे हैं, ये वो नहीं है. किसान तो दूर कहीं अपने सूखे खेतों में खड़ा आसमान की ओर ताक रहा है बारिशों के लिए ... जिसे आप देख रहे वह व्यापारी है, जिसे मैं देख रहा हूं वह अन्नदाता है, जो अब कहीं नहीं है. किसी की दृष्टि में नहीं. वह अदृश्य है मुख्यधारा के भूगोल से।

Tuesday, June 6, 2017

मिट्टी दा बावा नय्यो बोलंदा

मिट्टी दा बावा नय्यो बोलंदा, 
वे नय्यों चालदां, वे नय्यों देंदा है हुंगारे

अकेलेपन की कोई जगह नहीं होती. वह एक एब्स्ट्रैक्ट अवस्था है. एक उदास अंधेरे का विस्तार. कभी न खत्म होने वाली अंधेर गली. इन अंधेर गलियों को हर आदमी कभी न कभी अपने जीते जी भोगता है. जो भोगता है उसके अलावा शेष सभी के लिए ऐसी गलियां सिर्फ एक गल्प भर होती हैं. एक फिक्शन सिर्फ.

मेरा अकेलापन, तुम्हारा गल्प.

हमारे लिए जो गल्प है, उसी रिसते हुए दुख को जगजीतसिंह ने अपनी आवाज में उतारा. 90 के दशक के बाद जगजीतसिंह ताउम्र अपने बेटे का एलेजी (शोक गीत) ही गाते रहे. उनकी पत्नी चित्रासिंह ने तो इसके बाद गाना ही छोड़ दिया. दरअसल, 1990 में किसी सड़क हादसे में जगजीत-चित्रा के इकलौते बेटे विवेक की मौत हो गई थी. इसके बाद दोनों का साथ में सिर्फ एक ही एल्बम रिलीज हुआ. समवन समव्हेअर. ऐसा कहते हैं कि जगजीतसिंह कई बार घर में ही इस गीत को गुनगुनाया करते थे- और फिर अचानक से चुप हो जाया करते थे. कई बार तुम अपना दुख दूर नहीं करना चाहोगे.
इसके बाद जगजीत-चित्रा जिंदगीभर अपने सूने मकान में, अपने खालीपन में अकेले रहे. वे मिट्टी का पुतला बनाकर दिल बहलाते रहे. हम सब की तरह. हम सब भी अपने दुखों के पीछे एक मिट्टी का पुतला बनाकर रखते हैं/ दिल बहलाने की कोशिश करते रहते हैं. एक ऐसा पुतला जो न बोलता है और न ही चलता. न ही
हुंकारा देता है. / - और फिर किसी दिन पूरी दुनिया तुम्हारे लिए एक पुतलेभर में बदलकर रह जाती है. तुम अपने सूनेपन में और ज्यादा एकाकी हो जाते हो और जिंदगीभर अपने आसपास मिट्टी के पुतले बनाते रहते हो. - कि तुम्हारा दिल लगा रहे.
2003 में मुंबई में जगजीतसिंह के एक लाइव कंसर्ट में उन्हें पहली बार सुना था. उन्होंने गाया था मिट्टी दा बावा नय्यो बोलदा... वे नय्यो चालदा ... वे नय्यो देंदा है हुंकारा. यह गीत चित्रासिंह ने किसी पंजाबी फिल्म में गाया था. इसके बाद शायद यह गीत दोनों के लिए एलेजी बनकर रह गया. अपने बेटे का शोकगीत. एक हरियाणवी लोकगीत की पंक्ति याद आ रही है. ‘ किस तरयां दिल लागे तेरा, सतरा चौ परकास नहीं ’ (कहीं भी रौशनी नहीं है, चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा पसरा है. मैं तेरे लिए ऐसा क्या करुं कि इस दुनिया में तेरा दिल लगा रहे)
जिस गीत को चित्रासिंह ने पंजाबी फिल्म में गाया, उसे बाद में जगजीतसिंह ने अपने कई कंसर्ट में गाया. - जैसे रुंधे गले से वे अरज लगा रहे हो कि मिट्टी का बावा बोलने लगे, चलने लगे.
हम सब का एक शोकगीत होता है. जिसका नहीं है, वे इस गीत को सुनकर रो सकते हैं/ दहाड़ मार सकते हैं. यह सुनकर हम एतबार कर सकते हैं कि दुख सिर्फ आंखों से ही नहीं रिसता. तुम्हारी त्वचा की रोमछिद्र से भी बहुत... दरअसल, बहुत सारा दुख छलक सकता है.
‘ मिट्टी दा बावा मैं बनानी हा
वे झाका पांडी हा
वे उठी देंडी हा खेसे
ना रो मिट्टी देया बाबेया
वे तेरा पियो परदेसी
मिट्टी दा बावा नय्यो बोलंदा
वे नय्यों चालदां
वे नय्यों देंदा है हुंगारे
ना रो मिट्टी देया बाबेया
वे तेरा पियो बंजारा
कित्थे ता लावा कलियां
वे पत्ता वालियां
वे मेरा पतला माही
कित्थे ता लावा शहतूत
वे मेनू समझ न आवे ’

Tuesday, May 30, 2017

- गायें जो तुम्हारे जीवन में हैं,

- गायें जो तुम्हारे जीवन में हैं,
बचपन में माँ उपले बनाती थी। गाय के गोबर के कंडे। फिर घर की दीवारों और ओटले पर उन्हें थेफती थी। घर की कई दीवारें उपलों से भर जाती। जब उपले सूख जाते तो उनका इस्तेमाल घर का चूल्हा जलाने के लिए होता था। उपले थेपते माँ के हाथ उसकी चूड़ियों तक गोबर से सन जाते, फिर वो जब अपने बाल को पीछे धकेलती तो उसके मुंह पर उसके गाल पर भी गोबर लग जाता। बचपन में वो भी गाय के गोबर के साथ खेलता, मिट्टी और गोबर के साथ खेलता हुआ ही बड़ा हुआ। कभी- कभी थोड़ा गीला गोबर उठा लेता और वो भी माँ की तरह उपले थेपता। उसके दोस्त भी इस शग़ल में साथ हो जाते, गोबर से खेलते। फिर दांव लगता। शर्त लगती। किसका उपला सबसे ज्यादा गोल। किसका उपला चाँद जैसा। तेरे उपले की नाक छोटी है। रात को रसोईघर में चूल्हे के सामने हम उसी उपले की सुर्ख़ आंच को देखते। हम अपने जीवन की लौ को ताकते। उसी गर्माहट से आत्मा पिघल जाती। ठंड के दिनों में तो गोबर के अंगारों और चूल्हे की तपन के बीच पूरी देह में आत्मा उग आती और हम उसे पूरे शरीर से झरता हुआ देखते रहते। हम अपने पिता के साथ भविष्य की उन सारी बुरी आशंकाओं को उसी चूल्हे की आग में जलाकर दफ़्न कर देते। सूखे उपलों को अंगारों में तब्दील होने के बाद हम उन पर रोटियों के गुब्बारे उड़ते देखते। काले और कत्थई धब्बों वाले सफ़ेद और गेंहुआ गुब्बारे। हम गोलाइयाँ देखते। माँ के हाथ से बेली गई गोल रोटियां और उपलों की गोलाइयों का अंतर नापते। दोनों के बीच कोई संबंध नहीं- जमीन में उगा गेहूं और गाय का गोबर। फिर ये क्या रिश्ता है। कौनसी संस्कृति का हिस्सा है- जानवर के पेट से निकलने वाले गोबर और मनुष्य के पेट के अंदर जाने वाले अन्न के बीच कौनसा संबंध है। ये किस संस्कृति का हिस्सा रहा है। ये कौनसी परम्परा है। जिसकी आंच में हम सदियों से अपनी देह को तपाते और आत्मा को सींचते आ रहे हैं। चूल्हे की आंच में पिघलते उपले की आग में क्यों हमारे चहरे का खून हमेशा दमकता रहता। जले हुए कंडों की राख भी सुबह हम अपने माथे पर घिस लेते हैं। हथेली पर रखकर हम भभूति की फक्की मार लेते। ये संस्कृति राख हो जाने तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती।
गौ के गोबर से हमारा- तुम्हारा रिश्ता खत्म क्यों नहीं होता - सोलह श्राद्ध में हमारे- तुम्हारे घर की कुंवारी बेटियां हर शाम को दीवारों पर संजा बनाती है, सोलह दिनों तक संजा गीत गाती। शाम होते ही गोबर के चाँद- तारे घरों की दीवारों पर दमकते लगते। ये चाँद- सितारे हमारे लिए आसमान के चाँद- तारों से भी सुंदर होते। श्राद्ध के इन्हीं दिनों में, सुबह हम देखते हैं कि हमारे पुरखों की आत्मा गाय के इसी गोबर की आंच और लौ में तृप्त हो रही है। गुड़ और घी का धूप हमारे पूरे जीवन- नगर को महका रहा। सींच रहा है। पोस रहा है। हम देखते हैं - धूप की गंध हर सीमा को पार कर के यहाँ- वहां पसर रही है।
इस संस्कृति का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है, हमे अब भी राजनीति समझ नहीं आती। सनद रहे हम अब भी राजनीति की बात नहीं कर रहे हैं। बात मानवता की है। बात देस की ख़ुश्बू की है- जो तुम्हारे और हमारे मन और आँगन में रची बसी है। इस ख़ुश्बू के लिए तुमने कभी कोई पौधा नहीं उगाया। देस की ख़ुश्बू को महसूसने के लिए तुमने कभी कोई फूल नहीं खिलाया। मिट्टी किसी वृक्ष का पौधा नहीं। वो कोई फूल नहीं। फिर भी महकती तो है। इसकी महक हमारे- तुम्हारे इर्दगिर्द है। तुम्हारे आँगन में और दीवारें अब भी तुम्हे इसका अहसास तो दिलाते होंगे। चूड़ियों तक गोबर से सने अपनी माँ के हाथ तुम्हे याद तो होंगे, याद तो आते ही होंगे।
"जो भी भारत को अपना देश मानता है, उसे गाय को अपनी माँ मानना चाहिए" पता नहीं क्यों झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुबर दास का यह स्टेटमेंट मुझे बार- बार आकर्षित करता है, इस वाक्य के टेक्स्ट के भीतर का चार्म मुझे अपनी ओर खींचता है। बिटवीन द लाइन इसका एसेंस मुझे समझ आ रहा है। इसमें एक ख़ुश्बू महकती है। हो सकता है राजनीति से प्रेरित होकर उन्होंने यह कह दिया हो। या शायद गलती से- लेकिन हम और तुम गोबर के अंगारों और उसकी आंच को अलग नहीं कर सकते- अलग देख भी नहीं सकते। तुम अपने स्वयं के विचार को खुद से अलग नहीं कर सकते। रोटी और उपलों के बीच कोई संबंध नहीं। लेकिन इन दोनों से तुम्हारा तो कोई रिश्ता कभी रहा होगा। अपनी माँ के कहने पर तुमने कभी तो गाय को पहली रोटी खिलाई होगी। ... तो गाय इसलिए तुम्हारी माँ नहीं हो गई कि तुम उसे पवित्र मानते हो। वो माँ है ही नहीं। वो माँ हो भी नहीं सकती क्योंकि उसके लिए तुम्हे बेटा होना पड़ेगा और तुम तो अपने खून की माँ के भी अब बेटे नहीं रहे। --- क्योंकि - तुम गाय काटकर खाते हो। गाय सिर्फ एक पशु है। कभी तुमने उसे रोटी खिलाई हो इसलिए वो माँ नहीं बन जाती। ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते को रोटी देने पर वो तुम्हारा बाप नहीं हो जाता। तुम गाय को माँ मान ही नहीं सकते। गाय उनकी भी माँ नहीं जो उसे काटते हैं और उनकी भी नहीं जो उसकी रक्षा कर रहे हैं। तुम और हम, हम सब जो बचपन में उपलों से खेला करते थे किसी भी गाय की कोख से नहीं जन्मे, इसलिए उसका खून तुम्हारे अंदर नहीं है। लेकिन उसका दूध तो जरूर तुम्हारी रगों में दौड़ रहा होगा। अपने घरों को पवित्र करने के लिए तुम अब भी उसका मूत्र घरों में छिड़कते होंगे। गायों की तलाश में चौराहों पर जाते होंगे। इसी के कंडों की आंच से उठने वाले धुंए में पुरखों की अतृप्त आत्माएं घुलमिल जाती होगी। खून न सही उसका गोबर तुम्हारा है। - और उसका दूध भी। जाने और अनजाने।
तुम जानवरों को, पशुओं को भी मनुष्य से ... अपने से, खुद से अलग नहीं कर सकते ... चाहकर भी और अनजाने में भी। ... तो यह रिश्ता ही बरकरार रहने दो, मनुष्य और गोबर का रिश्ता। चाहकर या अनजाने में। अपनी गाय से ... अपनी माँ से या अपने पशु और अपने जानवर से। मेरा रिश्ता हो सकता है, गाय से न हो लेकिन उसके गोबर से है, यह मैं जानता हूँ। गाय तुम्हारी माँ नहीं, जानवर है, लेकिन उसके दूध से, इस जानवर के गोबर और मूत्र से तो तुम्हारा कोई रिश्ता होगा। ये संस्कृति। गोबर की संस्कृति राख हो जाने तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। हमारे भी राख हो जाने तक पीछा नहीं छोड़ती ... नहीं छोड़ेगी।

Saturday, May 13, 2017

जस्टिन ड्रयु बीबर और हम सब

शास्त्रीय संगीत की महफिलों को सजाने के लिए जर्जर और लगभग ढह चुके सभागारों के लिए भी मिन्नतें करना पड़ती हैं। नेताओं के हाथ- पांव जोड़कर उन्हें अतिथि बनाया जाता है। जैक लगाकर टैंट हाउस वालों से दरी और लाल कुर्सियां जुगाड़ना पड़ती हैं। टिकट तो दूर प्रवेश पत्र भी इन महफिलों को नसीब नहीं होता। इतनी कुश्ती के बाद कुछ चार- छह सुनकार महफिलों में  मक्खियां मारते हैं। ऊंघते हैं। दरी से कचरा बिनते हैं। कुछ दरख़्त ऐसे होते हैं जो ठुमरी पर हाथ नचाते हैं। राग पर बैराग हो जाते हैं। इन पके दरख़्तों में से कुछ को तो को चाय बिस्किट भी नहीं मिलते। ग्वालियर घराना से लेकर किराना घराना तक। आगरा घराना से लेकर इंदौर घराना तक। जयपुर अतरौली से लेकर रामपुर सहसवान तक। कोई ठुमरी नहीं सुनता। कजरी- चैती तो दूर कोई ख़याल नहीं दोहराता। किसका विवाह। कौन छन्नू लाल मिश्र। किशोरी अमोनकर मरी तो पहचानी गई। यहाँ मुकुल शिवपुत्र बेख़याल है। राशिद खान गुमनाम हैं। कौशिकी चक्रवर्ती बम्बई तरफ निकल रही हैं। पुरनसिंह कोटी के बेटे मास्टर सलीम दिल्ली के जगरातों में हैं। कबीर के झांझ मंजीरें सिर्फ गाँवों की आवाजें हैं। निर्गुणी मालवा के बाहर नहीं जा पा रहे। भैरवी तो इतना भी रेअर नहीं। ध्रुपद तो दूर है - और गंभीर है।

जस्ट इन - जस्ट आउट
उधर सुना है- एक 23 साल का लौंडा जस्टिन बीबर बम्बई को ठग गया। जस्ट इन एंड जस्ट आउट। बॉस्केट बॉल शॉर्ट्स पहनकर आर एंड बी रहा था। (आर एंड बी एक सिंगिंग स्टाइल है - यह फंक, सोल, पॉप, हिपहॉप और रिदम ब्लूज़ का कॉम्बिनेशन होता है ) इसी जॉनर के लिए जस्टिन बीबर जाना जाता है।  भारत के 60 परसेंट बिलो 21 कूल डूड बीबर के दीवाने हैं - लेकिन वो शॉर्ट्स पहनकर लिप्सिंग कर गया। कूल डूड की तो बात ठीक है - यह उनका लाइफस्टाइल है। इस उम्र की उनकी अपनी चॉइस है। लेकिन उन इंटेलेक्टुअल्स का क्या जिन्होंने 50 हज़ार / 75  हज़ार का टिकट लिया था। उस बॉलीवुड का क्या जो बाहें पसारकर उसके साथ सेल्फी लेना चाहता था।    

- तुम्हारा ही गाना गाना चाहता हूँ बीबर - ' व्हाट डू यू मीन ' जस्टिन ?  नाउ से ' सॉरी ' टू इंडिया। कूल डूड तुम भी जस्टिन को सॉरी कह सकते हो।       

Friday, May 12, 2017

ट्रैन


निश्चित नहीं है होना 
होने का अर्थ ही है - एक दिन नहीं होना 
लेकिन तुम बाज़ नहीं आते
अपनी जीने की आदत से 

शताब्दियों से इच्छा रही है तुम्हारी
यहाँ बस जाने की
यहीं इसी जगह 
इस टेम्परेरी कम्पार्टमेंट में 

तुम डिब्बों में घर बसाते हो
मुझे घर भी परमानेंट नहीं लगते

रोटी, दाल, चावल
चटनी, अचार, पापड़
इन सब पर भरोसा है तुम्हे

मैं अपनी भूख के सहारे जिंदा हूँ

देह में कीड़े नहीं पड़ेंगे
नमक पर इतना यकीन ठीक नहीं

तुम्हारे पास शहर पहुंचने की गारंटी है
मैं अगले स्टेशन के लिए भी ना-उम्मीद हूँ

तुम अपने ऊपर
सनातन लादकर चल रहे हो
दहेज़ में मिला चांदी का गिलास
छोटी बाईसा का बाजूबंद
और होकम के कमर का कंदोरा
ये सब एसेट हैं तुम्हारी 
मैं गमछे का बोझ सह नहीं पा रहा हूँ

ट्रैन की खिड़की से बाहर
सारी स्मृतियां 
अंधेरे के उस पार
खेतों में जलती हैं 
फसलों की तरह

मुझे जूतों के चोरी होने का डर नहीं लगता
इसलिए नंगे पैर हो जाना चाहता हूँ

सुनो, 
एक बीज मंत्र है
सब के लिए
हम शिव को ढूंढने
नहीं जाएंगे कहीं

आत्मा को बुहारकर
पतंग बनाई जा सकती है
या कोई परिंदा

हालांकि टिकट तुम्हारी जेब में है
फिर भी एस-वन की 11 नम्बर सीट तुम्हारी नहीं
इसलिए तुम किसी भी 
अँधेरे या अंजान प्लेटफॉर्म पर उतर सकते हो

नींद एक धोखेबाज सुख है
तुम्हारी दूरी मुझे जगा देती है

समुद्री सतह से एक हज़ार मीटर ऊपर
इस अँधेरे में
मेरा हासिल यही है
जिस वक़्त इस अंधेर सुरंग से ट्रैन
गुजर रही है
ठीक उसी वक़्त
वहां समंदर के किनारे
तुम्हारे बाल हवा में उलझ रहे होंगे
तुम्हारे हाथों पर 
खारे पानी की परतें जम गई होगी
कुछ नमक
कुछ रेत के साथ 
तुम चांदीपुर से लौट आई होगी। 

Tuesday, April 25, 2017

आंखें उसकी


उदासी में भींजे हुए फाहे
कोई रख जाए सिरहाने तुम्हारे
तुम देखना आँखें उसकी

जब दीवारों पर ओझल होने लगे
उसके पीठ के निशान कहीं 
तुम देखना आँखें उसकी 

और शाम का आखिरी अंधेरा 
उसकी शक्ल में डूबने लगे जब
तुम देखना आँखें उसकी

गर्मी की इन बोझिल दोपहरों से
जब तुम्हारा साथ छूट जाए
जब कोई किताब भी तुम्हारी टेबल पर न हों
तुम देखना
उसकी उंगलियों के बीच जो जगह है
वो तुम्हारे लिए है

दुनिया जब तुम्हे खींचकर 
कुफ़्र की ओर ले जाए
तुम देखना 
पूरब में उसका घर है

गर्मियों के आखिरी दिनों में
बारिशों से कुछ दिन पहले
जब तुम्हारी आँखों में
ठहर जाए बहुत सारा समंदर
जब बादलों का खाली हाथ लौटना रह जाए
तुम देखना आँखे उसकी

जब पैर रखने के लिए 
कुछ बचा न हो पृथ्वी पर 

तुम याद रखना

तुम्हें लिखने के लिए हमेशा जगह देती रहेगी

तुम बस देखना,
आंखें उसकी।