Sunday, June 18, 2017

जिसे आप देख रहे वो व्यापारी, जिसे मैं देख रहा वो अन्नदाता

- खेतों में बीज बो कर धान उगाने वाला अन्नदाता अन्न की बर्बाद नहीं कर सकता. वो अन्न का एक दाना भी अपने पैरों के नीचे नहीं आने देता है. किसानों की आड़ में एक अदृश्य अराजक अपने काम को अंजाम दे रहा है. - और अगर मैं गलत हूं- वो किसान ही है जो सड़कों पर अन्न बर्बाद कर रहा है, तो फिर वो निश्चित रू प से अराजक हो चुका है, जो पहले कभी नहीं रहा.
- और यह लालबहादूर शास्त्री का किसान तो बिल्कुल भी नहीं है.
मैंने अपने आसपास ऐसे किसान देखे हैं, जो अपने खेत, खलिहान और घर के आसपास बिखरे अनाज के दानों को बिन-बिनकर ढेर सारा अनाज इकठ्ठा कर लेते हैं. जिस जगह आपको एक दाना नजर नहीं आएगा, वहां से बैठे-बैठे वे कई किलो धान इकठ्ठा कर लेते हैं. इस प्रैक्टिस से उनकी कमर झुक जाती है, ज्यादातर किसान अपने बुढ़ापे में झुककर ही चलते नजर आते हैं. अन्न की इस कदर कद्र करने वाला कोई किसान तो क्या, कोई अन्य आदमी भी
अन्न के प्रति इतना रोष नहीं रखेगा.
पानी के टोटे और बिजली की कटौती में रात-रातभर जागकर हल जोतने वाला किसान अपना धान और दूध सड़कों पर नहीं उड़ेलता. वो जानवरों को नहीं मारता, पक्षियों को गोली नहीं मारता. अपने खेतों की फसल को पक्षियों से बचाने के लिए भी वो आदमीनुमा एफिजी का इस्तेमाल करता है. कभी किसी ट्रेन से गुजरते हुए तुमने देखा होगा जीजस क्राइस्ट पक्षियों को डराते हुए खेतों में खड़ा रहता है.
किसान और किसानों की स्थिति को समझने के लिए एक पूरा वर्ग जिस दयाभाव का इस्तेमाल कर रहा है, किसान वैसा नहीं है. वो अपने खेतों को खून से सींचकर अनाज उगाता है. अपना पेट खुद पालता है. इसके विरुद्ध आप और हम उसके धान पर पल रहे हैं. आपकी तरह उसका जीवन चाकरी पर नहीं, वह अपने अरण्य का मालिक है. इसलिए उसे आपके दयाभाव की कतई जरुरज नहीं है.
जो लोग शहरों में रहते हैं, या गांवों से जिनका वास्ता नहीं है, वे किसानों को इस आंदोलन के जरिये उसी दयादृष्टि और हीनभाव से देख रहे हैं. दरअसल, वे जानते ही नहीं कि किसान होता क्या है, यह किस शै का नाम है. सुनिए! ... इस आंदोलन में वो किसान शामिल नहीं है, जो महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में आत्महत्या कर रहा है. साहूकारों से साल पर जमीन उधार लेकर अपना पेट पालने के लिए उसमें हल चलाने वाला किसान इसमें शामिल नहीं है. जिसके पास आधा बीघा जमीन भी नहीं, ऐसा बे- जमीन किसान इसमें शामिल नहीं है. ऐसे किसान की तो सरकार से 50 हजार रुपए तक कर्ज लेने की औकात नहीं है, वो तो ताउम्र अपने नफे-नुकसान पर ही जीता और मरता है. विरासत में अपनी औलादों को गरीबी सौंप जाता है। फिर भी वो बसें नहीं जलाता, आग नहीं लगाता, मुँह पर कपडा बांधकर पत्थर नहीं फेंकता।
- तो फिर कौन सा किसान इसमें शामिल है. जिसे आप किसान कह रहे हो और मान रहे हो. दरअसल, वह बड़ी दूध डेयरियों का मालिक है. वे सब्जी मंडियों के ठेकेदार हैं. उन्नत खेती के जरिये जो कई हैक्टेयर्स में सब्जियां उगाता है. जिनके पास हैक्टेयर्स में जमीनें हैं, जो अनाज मंडियों के नेता है, पदाधिकारी है. ये साहूकार है, जो धुप में सूख चुकी चमड़ी, पतली टांगों और और पिचके हुए पेट वाले किसानों को अपनी जमीन अदीने पर देते हैं. किसान और मजदूर के बीच का जीवन जीने वाला गरीब आदमी जिनकी जमीनों पर गैहूं, चना और सोयाबीन उगाता है. यह वह व्यापारी है, जिसने ‘अन्नदाता’ शब्द भी भारत के असल किसान से छीन लिया. अब अन्नदाता उसको कहा जाता है, जो गांवों में गरीबों को ब्याज पर बीज देकर उसका खून चूसता है, बीज देने से पहले ही वो धूप में सिकी चमड़ी उतार लेता है। इन सब के बाद भी वो गरीब खेत में बेल की तरह नजर आता है.
आप उसे किसान समझ रहे हैं, जिसने सरकार से कर्ज लेकर चार- चार ट्रैक्टर अपने घर के सामने खड़े कर लिए. नेशनल हाइवेज के पास से गुजरने वाली जमीन जिसने सरकार को करोड़ों रुपए में बेची है, जिसकी कीमत हाइवे बनने- गुजरने से पहले हजारों भी नहीं थी. जिनको सरकारी उपक्रम लगाने के लिए अपनी जमीन के बदले सरकार से करोड़ों रुपए मुआवजा मिल गया है. जिन्होंने जमीनें बेचकर अब मोटरसाइकिल के शोरूम गांवों में खोल लिए हैं. इनके लौंडे जब चाहे मॉल में तफरी करते हैं। यह व्यापारी, साहूकार जो अब भी इस अदृश्य किसानों के नाम पर सरकार से लिए हुए कर्ज की माफी चाहते हैं. दूध के भाव 50 रुपए लीटर करना चाहते हैं, बगैर ब्याज का कर्ज चाहते हैं.
आपका दयादृष्टि वाला भाव अच्छा है, इसे आप अपने पास रखिये, लेकिन जिसे आप इस दृष्टि से देख रहे हैं, ये वो नहीं है. किसान तो दूर कहीं अपने सूखे खेतों में खड़ा आसमान की ओर ताक रहा है बारिशों के लिए ... जिसे आप देख रहे वह व्यापारी है, जिसे मैं देख रहा हूं वह अन्नदाता है, जो अब कहीं नहीं है. किसी की दृष्टि में नहीं. वह अदृश्य है मुख्यधारा के भूगोल से।

Tuesday, June 6, 2017

मिट्टी दा बावा नय्यो बोलंदा

मिट्टी दा बावा नय्यो बोलंदा, 
वे नय्यों चालदां, वे नय्यों देंदा है हुंगारे

अकेलेपन की कोई जगह नहीं होती. वह एक एब्स्ट्रैक्ट अवस्था है. एक उदास अंधेरे का विस्तार. कभी न खत्म होने वाली अंधेर गली. इन अंधेर गलियों को हर आदमी कभी न कभी अपने जीते जी भोगता है. जो भोगता है उसके अलावा शेष सभी के लिए ऐसी गलियां सिर्फ एक गल्प भर होती हैं. एक फिक्शन सिर्फ.

मेरा अकेलापन, तुम्हारा गल्प.

हमारे लिए जो गल्प है, उसी रिसते हुए दुख को जगजीतसिंह ने अपनी आवाज में उतारा. 90 के दशक के बाद जगजीतसिंह ताउम्र अपने बेटे का एलेजी (शोक गीत) ही गाते रहे. उनकी पत्नी चित्रासिंह ने तो इसके बाद गाना ही छोड़ दिया. दरअसल, 1990 में किसी सड़क हादसे में जगजीत-चित्रा के इकलौते बेटे विवेक की मौत हो गई थी. इसके बाद दोनों का साथ में सिर्फ एक ही एल्बम रिलीज हुआ. समवन समव्हेअर. ऐसा कहते हैं कि जगजीतसिंह कई बार घर में ही इस गीत को गुनगुनाया करते थे- और फिर अचानक से चुप हो जाया करते थे. कई बार तुम अपना दुख दूर नहीं करना चाहोगे.
इसके बाद जगजीत-चित्रा जिंदगीभर अपने सूने मकान में, अपने खालीपन में अकेले रहे. वे मिट्टी का पुतला बनाकर दिल बहलाते रहे. हम सब की तरह. हम सब भी अपने दुखों के पीछे एक मिट्टी का पुतला बनाकर रखते हैं/ दिल बहलाने की कोशिश करते रहते हैं. एक ऐसा पुतला जो न बोलता है और न ही चलता. न ही
हुंकारा देता है. / - और फिर किसी दिन पूरी दुनिया तुम्हारे लिए एक पुतलेभर में बदलकर रह जाती है. तुम अपने सूनेपन में और ज्यादा एकाकी हो जाते हो और जिंदगीभर अपने आसपास मिट्टी के पुतले बनाते रहते हो. - कि तुम्हारा दिल लगा रहे.
2003 में मुंबई में जगजीतसिंह के एक लाइव कंसर्ट में उन्हें पहली बार सुना था. उन्होंने गाया था मिट्टी दा बावा नय्यो बोलदा... वे नय्यो चालदा ... वे नय्यो देंदा है हुंकारा. यह गीत चित्रासिंह ने किसी पंजाबी फिल्म में गाया था. इसके बाद शायद यह गीत दोनों के लिए एलेजी बनकर रह गया. अपने बेटे का शोकगीत. एक हरियाणवी लोकगीत की पंक्ति याद आ रही है. ‘ किस तरयां दिल लागे तेरा, सतरा चौ परकास नहीं ’ (कहीं भी रौशनी नहीं है, चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा पसरा है. मैं तेरे लिए ऐसा क्या करुं कि इस दुनिया में तेरा दिल लगा रहे)
जिस गीत को चित्रासिंह ने पंजाबी फिल्म में गाया, उसे बाद में जगजीतसिंह ने अपने कई कंसर्ट में गाया. - जैसे रुंधे गले से वे अरज लगा रहे हो कि मिट्टी का बावा बोलने लगे, चलने लगे.
हम सब का एक शोकगीत होता है. जिसका नहीं है, वे इस गीत को सुनकर रो सकते हैं/ दहाड़ मार सकते हैं. यह सुनकर हम एतबार कर सकते हैं कि दुख सिर्फ आंखों से ही नहीं रिसता. तुम्हारी त्वचा की रोमछिद्र से भी बहुत... दरअसल, बहुत सारा दुख छलक सकता है.
‘ मिट्टी दा बावा मैं बनानी हा
वे झाका पांडी हा
वे उठी देंडी हा खेसे
ना रो मिट्टी देया बाबेया
वे तेरा पियो परदेसी
मिट्टी दा बावा नय्यो बोलंदा
वे नय्यों चालदां
वे नय्यों देंदा है हुंगारे
ना रो मिट्टी देया बाबेया
वे तेरा पियो बंजारा
कित्थे ता लावा कलियां
वे पत्ता वालियां
वे मेरा पतला माही
कित्थे ता लावा शहतूत
वे मेनू समझ न आवे ’