Thursday, April 15, 2010

फिरकती लड़कियों में

बोरियत से भरी गर्मियों की
उन तमाम बोझिल दोपहरों में
कुछ मिनटों की आराम तलब
झपकी लेने के बजाये
घंटों इंटरनेट पर
तुम्हे खोजता रहा.

गूगल की उस विशालकार
समुद्रीय टेक्नोलॉजी पर भी
तुम मुझे नहीं मिली.

और में कई दोपहरों में
की - बोर्ड पर
तुम्हारी आवाजें तलाशता रहा.

कई आईने बनाये
हजारों चहरें उलटता
और पलटता रहा रात भर.

सब्जियां खरीदती औरतों की
आँखें टटोली.

गलियों में और सड़कों पर
फिरकती लड़कियों की लम्बी, गेहुवां, गुलाबी
और कभी -कभी सांवली
टांगों को नापता रहा.

इमारतों में
रात के वक़्त
परदों के पीछे
गाउन से ढकीं
कमरों में टहलती
औरतों के सायों को ताकता रहा.

संवलाई चाँदनी में
खिड़कियों से बाहर झांकते 
परदों से लहराते
रात के परिंदों से उड़ते
उरोजों के अंदाज देखता रहा.

Wednesday, April 14, 2010

स्पर्श

तुम्हारा स्पर्श था या जिंदगी
सूखे पत्ते पर टिकी
ओस की बूँद की तरह
छू लिया था तुमने मुझे
पागल नदी की तरह उतर गई मेरे अंदर
जेसे कभी जुदा ना होगी .

तुम्हारा स्पर्श था या बिजली
जो धरती का सीना चीरकर
धंस गई पाताल की गहराईयो मै
और यह कह गई
कि अल - सुबह फिर आउंगी
सूरज बन कर
और तुम्हे जगाउंगी
अपनी गर्म सांसो से .

तुम्हारा स्पर्श था या रोशनी
जो खडी रही दिन भर मेरे सिरहाने
मुझे जगाने के लिए .

शाम दलते - दलते
तुम जा तो रही थी
लेकिन कह रही थी
मुझे पह्चान लेना
मै रात को वापस आउंगी
आधा चांद बन कर
तुम्हे छुने के लिए

तुम्हारा स्पर्श था या जिंदगी .

Friday, April 9, 2010

टूटे हुए बिखरे हुए

वो गंध थी कुछ देहो की
और इस गर्मी का पसीना भी.

कुछ नमक, कुछ शहद बनकर
जबान तक रिस आए थे.

हम अपने-अपने जिस्म उतारकर
रुह को सूँघ रहे थे
हम रिश्ते बुन रहे थे.

वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी
अब एक चुप्पी सी है
गहरा पसरा मौन भी.

वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी .