वो गंध थी कुछ देहो की
और इस गर्मी का पसीना भी.
कुछ नमक, कुछ शहद बनकर
जबान तक रिस आए थे.
हम अपने-अपने जिस्म उतारकर
रुह को सूँघ रहे थे
हम रिश्ते बुन रहे थे.
वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी
अब एक चुप्पी सी है
गहरा पसरा मौन भी.
वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी .