Monday, May 24, 2010

वो कोई कैदखाना तो नहीं

मई का महीना है और पारा 44 - 45  पर है. गाँधी का कमरा तकरीबन साढ़े तीनसो से चारसो लोगों से भरा है. उस पर कार्यक्रम के व्यवस्थापकों ने हॉल की करीब पच्चीस- तीस ट्यूबलाईट और चार - पाँच हेलोजन भी जला रखे हैं जिन्हें संगीत की महफ़िल के लिहाज से बुझा देने का ख़याल उनके मन में एक बार भी नहीं आया. कम से कम उर्जा की बचत और एनवॉयरमेंट के बारे में ही सोच लेते. प्रथम पंक्ति में शहर के कुछ रसूखदार लोग भी है स्वाभाविक था गर्मी ओर बढ़ना ही थी. ये तो अच्छा हुआ कि शहर का भू- माफिया बॉबी छाबड़ा चार दिन पहले ही पुलिस के हत्थे चढ़ गया नहीं तो गाँधी के कमरे में आग ही लग जाती. इन सब के बावजूद वहाँ यह देखना अच्छा लग रहा था कि ये रसूख लोग ओर नेता किसी कलाकार को सुनने के लिए फर्श पर आलती -पालती मारकर बैठे थे.
देवास में एक साल पहले पंडित मुकुल शिवपुत्र को सुनकर जो नशा चढ़ा था वो इंदौर में उतरा. लेकिन देवास और इंदौर के बीच के समय में शिवपुत्र की गायकी की खुमारी बाकायदा बनी रही. इसी अन्तराल में अपने कुछ अच्छे दोस्तों से पंडित जी की सीडियां मांग-मांग कर सुनी. इंदौर में उन्हें सुनने का यह एक और मौका था. कुछ लोग हिम्मत और साहस दिखाकर शिवपुत्र को नेमावर आश्रम से लाये और कुछ दिनों तक इंदौर में किसी अखाड़े में कैद कर के रखा. बाईस मई को कुमार गंधर्व जयंती समारोह के बहाने गवाया लेकिन देवास वाला जादू नदारद रहा.

इंदौर में उनके सुनने वाले ज्यादा थे जो धीरे- धीरे घटते चले गए वहीं देवास में चालीस -पचास लोग थे जो वहीं जब्त होकर रह गए. यही फर्क था. सच! इस बार नशा नहीं हुआ. पता नहीं क्यों, पर नहीं हुआ. इसका कोई लौजिकल कारण नहीं है. संगीत में मेरी समझ भी इतनी गहरी नहीं है कि मै उनके किसी सुर को या राग को ख़ारिज करूँ. बस... अच्छा नहीं लगा तो नहीं लगा. देवास में उन्हें सुनना किसी जादू कि तरह था लेकिन इंदौर में मन नहीं लगा. मेरा मोह अभी भंग नहीं हुआ है वे अभी भी क्लासिकल गायकी में पहली पंक्ति के कलाकार है. मै उनके व्यक्तित्व और जीवनशैली से अभिभूत हूँ . जब भी कभी मौका मिला तो उन्हें जरुर सुनूंगा. प्रश्न और उसका जवाब यह है कि कोई भी अच्छा कलाकार हमेशा अच्छा नहीं हो सकता या कोई बुरा कलाकार हमेशा बुरा नहीं हो सकता. अच्छा इन्सान हमेशा अच्छा और बुरा इन्सान हमेशा बुरा हो ये भी जरुरी नहीं. वो घटता - बढ़ता रहता है.

शिवपुत्र की महफ़िल के दुसरे दिन कुछ अखबारों ने अतिरेक के साथ उनकी तारीफ़ मै लिखा है. ये लिखने वाले पूर्वग्रह से ग्रसित है या उनकी जूठी तारीफ़ कर रहे हैं या फिर ये उन हिपोक्रेट लोगों मे से हैं जो सरगम का आरोह - अवरोह भी नहीं जानते और महफ़िलों मे बैठे- बैठे रागों, हरकतों और मुरकियों पर दाद देते रहते हैं.

माफ़ कीजिये ... पंडित मुकुल शिवपुत्र से मैं अभिभूत हूँ और जल्दी ही उनसे कुछ सुनने की उम्मीद लेकर और उन पर कुछ लिखने के लिए नेमावर आश्रम जाऊँगा. लेकिन अख़बार वालों से गुजारिश करूँगा कि  ऐसा ना लिखे कि सुर ही ना मिले. शिवपुत्र कलाकार है कोई कैदखाना नहीं कि बाहर ही ना निकला जा सके .