Saturday, December 11, 2010

अश्वथामा ने कहा था


रात की ख़बरें
घर चली आती है
साथ- साथ

उनकी खुमारियां
साथ सोती है बिस्तर पर

हत्या
जिन्दा जलाया
अधमरा तडपता रहा सड़क पर
जिला अस्पताल

मौत

रात के ठहाके जरुरी है
कांच के गिलासों के साथ

सुबह के वक़्त
क्योंकि मुस्कुराना मुश्किल है

हो सकता है
ऐसे मुस्कुराने पर हंसी आ जाये

पर इस सुबह होंठ हिल ही गए

दिनों बाद ब्रुनो भी
इस सुबह सैर पर साथ गया
उसने भी जमकर ख़ुशी मनाई

सुबह ... आह !

नीली - सफ़ेद
छोटी- छोटी स्कर्ट
कुछ पाँव-पाँव
कुछ साइकिलों से
स्कूल जाती लड़कियां

हम खुश थे
संसार सुन्दर था

एक साथ
स्कूल जाते
बहुत सारे बच्चे
एक अपनी पीठ पर
कद से बड़ी
गिटार लटकाए
म्यूजिक क्लास जाता हुआ

कहीं निर्मल वर्मा की नॉवल का
कोई लैंडस्केप तो नहीं !

कोई छद्म या कल्पना कोई
या असत्य

क्या सच संसार है
या दिखता है सिर्फ

कुछ तो होगा
सुबह लिखी गई
इस कविता के तरह

कविता !

कई उदास
नीरस रातों के बाद

फ्लेशबेक में रखी हुई
एक किताब
वह पंक्ति

अश्वथामा ने कहा था
यह संसार एक दिन अवश्य सुन्दर बनेगा

(ब्रुनो मेरा बच्चा है)

Friday, November 12, 2010

अलावा मेरे

अखरता है मेरा अपना होना मुझे
जबकि जानता हूँ
कि मैं सिर्फ मैं हो सकता हूँ
मै हो सकता नही कोई और
ना कोई और हो सकता हूँ मैं.

अखरता है मेरा अपना होना मुझे.

कि मै नही हूँ वो
जो होना चाहिए था मुझे.

लेकिन क्या हो सकता था मैं ?
अलावा मेरे अपने होने के.

हो सकता था कोई बहुत बुरा
या बहुत अच्छा कोई.

हो सकता था सपना
या सच कोई.

किसी कहानी का चरित्र
या कविता कोई.

मै क्यों हो ना सका
बजती हुई तालियाँ
या नैपथ्य से आती आवाज कोई.

हो सकता था संगीत
या विरह का गीत कोई.

किसी नाटक का अंत
या शुरुआत कोई.

मै क्यों हो ना सका चुप्पी
सवांदो के बीच की
या गहरा पसरा मौन कोई.

शब्द हो सकता था
या ध्वनि उनकी.

हो सकता था कारण कुछ होने का
या फिर अर्थ कुछ भी नही होने का.

Friday, October 15, 2010

सफ़ेद

वो सफ़ेद में थी
और मैं सफ़ेद में

उसकी आँखें
बहुत सारा काजल
पानी ...

बस की रफ़्तार

पीछे छुटते हुए
उस वक़्त के
पेड़, हवा

उस वक़्त की
एक नदी

आँखें ... काजल ... पानी
नशा ... क्या ...?
 
मैं जब्त होता गया

हासिल कुछ भी नहीं 
सिवाय सफ़ेद
और वक़्त के


खोया भी कुछ नहीं
सिवाय सफ़ेद
और वक़्त के

Friday, August 20, 2010

सब कुछ निर्मल है

सब कुछ निर्मल है 

कमरे में छाई धुंध 
जो निर्मल वर्मा 
प्राग से समेटकर लाये थे

रायना की अंतहीन रहस्यमयता को 
अपनी कोख में बसाकर
बेहताश नशे में
भटकती रहती है वे दिन

कमरे में 

टेबल पर एक चिथड़ा सुख है

सुख...!

ना घटता है ना बढ़ता है 

दिन और रात 
असामान्य तरीके से समान है

धुंध से उठती धून
हर वक़्त - हमेशा
बिस्तर पर
सिरहाने रखी रहती है
मै जानबूझकर उसे वहाँ से उठाता नहीं 

मै नींद मै भी देख सकूँ 
चलती हुई दुनिया 

पीछे छुटता हुआ आज 

शब्द और स्मृति 
हिस्सा है 
जीवन और मृत्यु का 
जीवन और मृत्यु की तरह 

सब कुछ निर्मल है 

Saturday, July 24, 2010

नगर में जहरीली छी: थू है

टीप टॉप चौराहें, चमकीले मॉल्स और मेट्रो कल्चर्ड मल्टीप्लेक्स. कोई शक नहीं कि इंदौर विकास या ज्योग्राफिकल बदलाव (विकास या बदलाव पता नहीं ) की तरफ बढ़ रहा है, जो भी हो इसे विकास कि सही परिभाषा तो नहीं कह सकते. यह सच है कि तस्वीर बदल रही है. इस तस्वीर को देखकर शहर का हर आम और खास गदगद नज़र आता है. शहर के आसपास की ग्रामीण बसाहट भी इस चमक से खुश होकर इस तरफ खिंची चली आ रही है. ये ग्रामीण तबका शहर का इतना दीवाना है कि गाँव में अपनी खेतीबाड़ी छोड़कर यहाँ मोबाइल रिचार्ज करवाकर मॉल्स और मल्टीप्लेक्स में शहरी मछलियों के बीच गोता लगा रहे हैं. माफ़ कीजिये अब ये गाँव वाले भी भोलेभाले नहीं रहे.

अगर शहर विकास के मुहाने पर खड़ा है तो,  इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि  जगह- जगह खुदी सड़कें, बेतरतीब  व बेहाल यातायात और तकरीबन रोज होती चोरी व हत्याएं प्रशासन की चोरबाजारी, लापरवाही व शहर की बदहाली की कहानी कह रहा है. बात- बात पर शहर को मिनी बॉम्बे कहकर जुगाली करने वाले इन्दोरियों को पता नहीं है कि मुंबई कि भीड़ किस रहस्यमय तरीके से अपने आप में नियंत्रित है. इंदौर के लोग सिविलियन एथिक्स भूलते जा रहें हैं या ये एथिक्स कभी हमने सीखे ही नहीं. वक़त बे वक़त सड़कों पर उतरकर अपने अधिकारों का वास्ता देकर मांगें करने वाले नागरिक सड़क पर चलते समय अपने सारे फ़र्ज़ भूल जाते हैं. आजकल यातायात का हाल देखते ही बनता है, सारे कायदे भूलकर जिसे जहाँ जगह मिलती है घुस जाता है. नौजवानों ने शहर को कत्बाजी और पायलेटिंग का अखाडा समझ रखा है. ऐसे में पैदल चलने वाला हर वक़्त अपनी जान हथेली पर लेकर चलता है, इंदौर कि सड़कों पर चलने वालों को ही बाज़ीगर कहते है. इन पैदल बाज़ीगरों कि बात करें तो यह सड़कों पर ऐसे चलते हैं जैसे अपने स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए सुबह की चहलकदमी कर रहे हो. सुबह की सो कॉल्ड मोर्निंग वॉक की तरह.

यातायात को सँवारने के लिए सफ़ेद वर्दी में तैनात जवान कभी किसी ऑटो वाले से तम्बाखू गुटखा खाते नज़र आता है तो कभी सुस्ताते हुए.  वो आसपास फैले वाहनों के जाल को ऐसे निहारता है जैसे यह जाल ईश्वर की बुनी हुई कोई अद्भुत रचना है और वह इसके सौंदर्यबोध से अभिभूत होकर इसका आनंद ले रहा है.

दिन भर भान्ग्वाले भोलेनाथियों, चर्सिराम और गंज़नातों की अपने-अपने ठिकानों पर मौज रहती है, शाम होते ही मदीरापान वालों की रात पाली शुरू हो जाती है. वास्तव में ये धर्म को ना जानने वाले धार्मिक लोग होते हैं. हाथों में ढेर सारे डोरे लच्छे और गले में ताबीज पेंडल इनकी खास पहचान होती है. ये नवरात्री और गणेशोत्सव के दौरान ज्यादा सक्रिय दिखाई देते हैं. सबसे पहले ये नहा धोकर खजराना मंदिर या कभी कभी देवास चामुंडा माता देवी के आशीर्वाद लेने जाते हैं. तब तक गली- चौराहों के अंडे ठेले वाले इनके लिए अहाते और जाजम की व्यवस्था कर देते हैं. इनके आते ही ठेले वाले इनके लिए ओम्लेट, बेन्जो  और डिस्पोसल मुहैया करवाते है, जाहिर है ये अपने ग्राहक को किसी तरह कि परेशानी नहीं होने देना चाहते हैं. जिससे इनके अंडे बिकते रहे और धंधा भी चलता रहे. दो - दो डिस्पोसल के बाद इनका माल तेज़ हो जाता है और ये ऑफिस व स्कूल- कॉलेज से थकी भागी घर लौटती लड़कियों और महिलाओं के शरीर संरचना और सौंदर्य की मदीरात्मक व्याख्या करते हैं.

शहर में रात के वक़्त क्लिनिक और मेडिकल खोजने में कभी दिक्कत आ सकती है पर कलाली का लाल-हरा रंग कहीं भी आसानी से देखा जा सकता है  (यहाँ बैठने की उचित व्यवस्था है ) यहाँ अन्दर बैठकर पीने की उचित व्यवस्था के बाद भी देश का अधिकांश भविष्य सड़क किनारे खुले में मज़े लेता है. कुछ कारबाज़ लडके  ( सिर्फ मारुती वाले ) कर के प्रवेश द्वार खोलकर जस्सी के गाने सब को सुनाते हुए तर होते हैं.

प्राचीन इंदौर की जिस देवी या माता का नाम (यहाँ देवी का नाम नहीं लिखना चाहता हूँ ) लेकर इंदौरवासी शहर के इतिहास का बखान करते हैं, उन्हें शहर को एक बार फिर से ओब्सर्व करना होगा. इंदौर के कलचर का यह हिस्सा रूटीन किस्सा है. ला एंड ऑर्डर बिगाड़ने के बाद भी शहर में रहने कि उची व्यवस्था है.

रात को नशेडी लडकें चाक़ूबाज़ी के करतब दिखाकर कई लोगों को घायल कर देते हैं,  तो कभी दिन दहाड़े घर में घुसकर उचक्के घर लुट जाते हैं. महिलाओं के गले से चैन व मंगलसूत्र झपट लिए जाते है. कभी छोटी बच्चियों को हवस का शिकार बना लिया जाता है. माल्स और मल्टीप्लेक्स विकास कि सही परिभाषा नहीं है. इंदौर को मिनी बाम्बे कहने से इसकी प्रकृति नहीं बदल जाएगी. जुगाली बहुत हो गई, अब सच बोलो भिया. नगर में जहरीली छी: थू है और सिस्टम का एक पूरा की पूरा हिस्सा ओपेरा देख रहा है.

Sunday, July 18, 2010

यूँ ही तुम्हे

तुम एक पंछी बन जाओ
और मैं गगन तुम्हारा

बिखर जाओ
मेरे हर एक छोर पर

और मैं देखता रहूँ
यूँ ही तुम्हे

कभी धूप
कभी शाम
तो कभी चाँद बनते हुए

Wednesday, July 14, 2010

चाय के दो कप

केबिन मै चाय के दो कप

आज सुबह केबिन में
एक जिन्‍दगी
अचानक घुस आई.

कुछ पल ठहरीं
और एक युग रिस गया.

दरवाजों को छुआ
मशीनों को जिंदा किया.

कुछ फर्नीचर कविताओं में तब्दिल हुआ
कुछ कहानियों में.
और कांच के टुकड़े किस्सों में

कुछ सामान अभी भी
मुँह बनाएँ केबिन को घूर रहा था

झुले की चरचरा‍हट
और किलकारियों के बीच
असंख्‍य साँसे बिखर पड़ी.

एक आवाज प्रसव पीड़ा की तरह

मैंने देखा चाय के दो खाली कप
प्यार में थे 

Saturday, July 10, 2010

आधे - आधे हम दोनो और एक जिंदगी .

नापी है कई गलिया और सड़कें
दिन मै , रात मै और दोपहरो मै
कोहरे को चीरते
चांदनी मै नहाएँ
हम दोनो .

देर तक और दूर तक
चलते रहते
उजाले से बेखबर
स्याह रात से निडर
जिंदगी की बातें करते
मजाक उड़ाते उसका
हम दोनो .

धुआँ निगलते
और उगलते
चलते रहते
हम दोनो .

उन दिनों
हम चलते रहते
जीते रहते
कई जिंदगीया एक साथ .

वक्त अब नही है वो
ना ही शहर मुनासिब ये
लेकिन जिंदा है
माचिस की कई गीली तिलिया
जलने को तैयार
सड़कों पर बिखरी पड़ी है .

चमक रहे है अभी भी सड़कों पर
सिगरेट के फेंके हुए कई ठुठ .

चिपकी हुई है चाशनी
चाय के उन गिलासो मै .

कानो मै घुल रहा है
होटलों मै बजता वो संगीत .

जिंदा है यह सब अभी भी
उन धड़कती गलियों
सांस लेती सड़कों
और शोर मचाते
उन चौराहो की तरह
जिन पर जीते थे
आधे - आधे हम दोनो
और एक जिंदगी .

Sunday, July 4, 2010

धुंध

निर्मल वर्मा ... इस शब्द के बारे में सोचते ही एक धुंध सी छा जाती है ... प्राग और वहाँ गिरती सफ़ेद बर्फ आँखों के सामने तैरने लगती है... एक साथ हज़ारों लोग सड़कों के किनारों पर, बार में, क्लबों में ... और यहाँ- वहाँ बीयर पीते दिखाई देते हैं... मैं खुद को शेरी...कोन्याक और स्लिबो वित्से के कोकटेल के नशे में चूर पता हूँ ...

निर्मल वर्मा... इस नाम का कोई आदमी अब मौजूद नहीं है ... बस एक नशा है ज़हन में और डबडबाती आँखों के सामने ओस कि तैरती हुई सेकड़ों गलियां ... गलियों में सिगरेट का बेपनाह ... बेतरतीब... आवारा धुआं ...

निर्मल  वर्मा इस नाम का आदमी पहले भी कहीं मौजूद नहीं था... जो कुछ था वो एक धुंध थी... जो अब तक फैली हुई है किताबों की तहों में ... पेज दर पेज... रात के गर्भ और उसके अंतहीन अँधेरे में ... किताबों से सटे हुए शब्द और मेरी सांस के बीच कि ख़ामोशी में ...

Sunday, June 20, 2010

काफ्का, कामू और बोर्खेज

देह भटकती है
अपने ही अन्दर
हांफ जाने तक
हांफ कर तिड़क जाने तक

तड़पती है किताब दर किताब
पेज दर पेज
काफ्का, कामू और बोर्खेज

शब्दों के अंतहीन अजगर
रेंगते है उसके बिस्तर पर
एक बेतरतीब कमरे की कोख में
छटपटाती है देह रात भर.

Saturday, June 12, 2010

शेरी, कोन्याक, स्लिबो वित्से

मुझे रायना से प्रेम हो गया है
और प्राग से भी
वो खुबसूरत है
प्राग की सफ़ेद बर्फ की तरह
किताब में लिखी रायना से कहीं अधिक

वह मेरी आखों में है
शब्दों से बाहर निकल सांस लेती हुई


सच कहा था तुमने
यह किताब एक नशा है

शेरी, कोन्याक, स्लिबो वित्से
और सिगरेट की बेपनाह धुंध
कार्ल मार्क्स स्ट्रीट बहक गई होगी
नशे में चूर होंगे
वहां के नाईट क्लब्स

वहीं किसी बार में
उदास बैठी होगी मारिया
रायना को खोजते होंगे निर्मल वर्मा
प्राग के खंडहरों में

मुझे रायना से प्रेम हो गया है
और प्राग से भी .

Monday, May 24, 2010

वो कोई कैदखाना तो नहीं

मई का महीना है और पारा 44 - 45  पर है. गाँधी का कमरा तकरीबन साढ़े तीनसो से चारसो लोगों से भरा है. उस पर कार्यक्रम के व्यवस्थापकों ने हॉल की करीब पच्चीस- तीस ट्यूबलाईट और चार - पाँच हेलोजन भी जला रखे हैं जिन्हें संगीत की महफ़िल के लिहाज से बुझा देने का ख़याल उनके मन में एक बार भी नहीं आया. कम से कम उर्जा की बचत और एनवॉयरमेंट के बारे में ही सोच लेते. प्रथम पंक्ति में शहर के कुछ रसूखदार लोग भी है स्वाभाविक था गर्मी ओर बढ़ना ही थी. ये तो अच्छा हुआ कि शहर का भू- माफिया बॉबी छाबड़ा चार दिन पहले ही पुलिस के हत्थे चढ़ गया नहीं तो गाँधी के कमरे में आग ही लग जाती. इन सब के बावजूद वहाँ यह देखना अच्छा लग रहा था कि ये रसूख लोग ओर नेता किसी कलाकार को सुनने के लिए फर्श पर आलती -पालती मारकर बैठे थे.
देवास में एक साल पहले पंडित मुकुल शिवपुत्र को सुनकर जो नशा चढ़ा था वो इंदौर में उतरा. लेकिन देवास और इंदौर के बीच के समय में शिवपुत्र की गायकी की खुमारी बाकायदा बनी रही. इसी अन्तराल में अपने कुछ अच्छे दोस्तों से पंडित जी की सीडियां मांग-मांग कर सुनी. इंदौर में उन्हें सुनने का यह एक और मौका था. कुछ लोग हिम्मत और साहस दिखाकर शिवपुत्र को नेमावर आश्रम से लाये और कुछ दिनों तक इंदौर में किसी अखाड़े में कैद कर के रखा. बाईस मई को कुमार गंधर्व जयंती समारोह के बहाने गवाया लेकिन देवास वाला जादू नदारद रहा.

इंदौर में उनके सुनने वाले ज्यादा थे जो धीरे- धीरे घटते चले गए वहीं देवास में चालीस -पचास लोग थे जो वहीं जब्त होकर रह गए. यही फर्क था. सच! इस बार नशा नहीं हुआ. पता नहीं क्यों, पर नहीं हुआ. इसका कोई लौजिकल कारण नहीं है. संगीत में मेरी समझ भी इतनी गहरी नहीं है कि मै उनके किसी सुर को या राग को ख़ारिज करूँ. बस... अच्छा नहीं लगा तो नहीं लगा. देवास में उन्हें सुनना किसी जादू कि तरह था लेकिन इंदौर में मन नहीं लगा. मेरा मोह अभी भंग नहीं हुआ है वे अभी भी क्लासिकल गायकी में पहली पंक्ति के कलाकार है. मै उनके व्यक्तित्व और जीवनशैली से अभिभूत हूँ . जब भी कभी मौका मिला तो उन्हें जरुर सुनूंगा. प्रश्न और उसका जवाब यह है कि कोई भी अच्छा कलाकार हमेशा अच्छा नहीं हो सकता या कोई बुरा कलाकार हमेशा बुरा नहीं हो सकता. अच्छा इन्सान हमेशा अच्छा और बुरा इन्सान हमेशा बुरा हो ये भी जरुरी नहीं. वो घटता - बढ़ता रहता है.

शिवपुत्र की महफ़िल के दुसरे दिन कुछ अखबारों ने अतिरेक के साथ उनकी तारीफ़ मै लिखा है. ये लिखने वाले पूर्वग्रह से ग्रसित है या उनकी जूठी तारीफ़ कर रहे हैं या फिर ये उन हिपोक्रेट लोगों मे से हैं जो सरगम का आरोह - अवरोह भी नहीं जानते और महफ़िलों मे बैठे- बैठे रागों, हरकतों और मुरकियों पर दाद देते रहते हैं.

माफ़ कीजिये ... पंडित मुकुल शिवपुत्र से मैं अभिभूत हूँ और जल्दी ही उनसे कुछ सुनने की उम्मीद लेकर और उन पर कुछ लिखने के लिए नेमावर आश्रम जाऊँगा. लेकिन अख़बार वालों से गुजारिश करूँगा कि  ऐसा ना लिखे कि सुर ही ना मिले. शिवपुत्र कलाकार है कोई कैदखाना नहीं कि बाहर ही ना निकला जा सके .

Thursday, May 20, 2010

तुम

सबकी आँखों मै
फुंकते हो उम्मीदें
सपने बाँटते हो .

घटते रहते हो
अजीब सी कहानियों की तरह
मानों हजारों जिंदगीया ले ली हो
वक्त से उधार तुमने
अब लौटाते हो वापस
एक - एक टुकड़ा जिंदगी
अपने अंदर से तोड़कर .

तुम ईश्वर तो नही
ईश्वर जेसे भी नही .

हाँ , मैंने देखा है
तुम्हारे अंदर
किसी और को सांस लेते हुए
तुम्हारी सांसे उसकी सांसो मै घुलते हुए
शंख बजाते , राख उड़ाते .
सबकी आँखों मै
फुकंते हो उम्मीदें
सपने बाँटते हो .

तुम ईश्वर तो नही
ईश्वर जेसे भी नही
लेकिन मुखोटों के मेलों मै

कुछ - कुछ इंसान के जेसे हो .

Thursday, April 15, 2010

फिरकती लड़कियों में

बोरियत से भरी गर्मियों की
उन तमाम बोझिल दोपहरों में
कुछ मिनटों की आराम तलब
झपकी लेने के बजाये
घंटों इंटरनेट पर
तुम्हे खोजता रहा.

गूगल की उस विशालकार
समुद्रीय टेक्नोलॉजी पर भी
तुम मुझे नहीं मिली.

और में कई दोपहरों में
की - बोर्ड पर
तुम्हारी आवाजें तलाशता रहा.

कई आईने बनाये
हजारों चहरें उलटता
और पलटता रहा रात भर.

सब्जियां खरीदती औरतों की
आँखें टटोली.

गलियों में और सड़कों पर
फिरकती लड़कियों की लम्बी, गेहुवां, गुलाबी
और कभी -कभी सांवली
टांगों को नापता रहा.

इमारतों में
रात के वक़्त
परदों के पीछे
गाउन से ढकीं
कमरों में टहलती
औरतों के सायों को ताकता रहा.

संवलाई चाँदनी में
खिड़कियों से बाहर झांकते 
परदों से लहराते
रात के परिंदों से उड़ते
उरोजों के अंदाज देखता रहा.

Wednesday, April 14, 2010

स्पर्श

तुम्हारा स्पर्श था या जिंदगी
सूखे पत्ते पर टिकी
ओस की बूँद की तरह
छू लिया था तुमने मुझे
पागल नदी की तरह उतर गई मेरे अंदर
जेसे कभी जुदा ना होगी .

तुम्हारा स्पर्श था या बिजली
जो धरती का सीना चीरकर
धंस गई पाताल की गहराईयो मै
और यह कह गई
कि अल - सुबह फिर आउंगी
सूरज बन कर
और तुम्हे जगाउंगी
अपनी गर्म सांसो से .

तुम्हारा स्पर्श था या रोशनी
जो खडी रही दिन भर मेरे सिरहाने
मुझे जगाने के लिए .

शाम दलते - दलते
तुम जा तो रही थी
लेकिन कह रही थी
मुझे पह्चान लेना
मै रात को वापस आउंगी
आधा चांद बन कर
तुम्हे छुने के लिए

तुम्हारा स्पर्श था या जिंदगी .

Friday, April 9, 2010

टूटे हुए बिखरे हुए

वो गंध थी कुछ देहो की
और इस गर्मी का पसीना भी.

कुछ नमक, कुछ शहद बनकर
जबान तक रिस आए थे.

हम अपने-अपने जिस्म उतारकर
रुह को सूँघ रहे थे
हम रिश्ते बुन रहे थे.

वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी
अब एक चुप्पी सी है
गहरा पसरा मौन भी.

वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी .

Monday, March 29, 2010

कमलेश्वर

कितनी सच है तुम्हारी मृत्यु
और कितना सच है यह
कि अब तुम नही रहे .

लेकिन कितना झूठ है यह समय
और कितना झूठा हूँ मै
कि तुम्हे श्रद्धांजलि देने के लिए
किताब उठाकर तुम्हारी
माथे से लगाता हूँ अपने .

और मरने के बाद तुम्हारे
पढ़ना चाहता हूँ कहानी तुम्हारी .

कितना अजीब है यह समय

तुम्हारे ना रहने पर
और अधिक पढ़े जाते हो तुम .

बिस्मिल्लाह की शहनाई
संगत करने लग जाती है लहरों के साथ
गंगा के तट पर .

ऋषिकेश मुखर्जी जब विदा होते है
हर आदमी बन जाता है
आनंद और बाबू मुशाय .

कानों को अच्छे लगने लगते है
सुर और धुने नौशाद की .

सारे किरदार जीवंत हो उठते है
अभिव्यक्ति के लिए
दुनिया के रंग-मंच पर
जब किसी रंगकर्मी के जीवन का
परदा गिर जाता है हमेशा के लिए .

क्या जिंदा रहने से
महत्व घट जाता है
या मर जाना होता है महत्वपूर्ण ...?

Friday, March 26, 2010

रंग ओ कूची वाला यात्री

मकबूल फ़िदा हुसैन के कुछ ब्रश और केनवास देश में बचे थे जिन्हें अब क़तर भेज दिया जाना चाहिए और वो सारी पेंटिंग्स भी जो देश के कई बड़े घरानों के ड्राइंग और बैडरूम्स में टंगी है. हुसैन की भारतीय नागरिकता तो उसी वक़्त ख़त्म हो गई थी जब कुछ हिपोक्रिट लोगों ने उन्हें बनिश्मेंट का फरमान सुना दिया था, क़तर की नागरिकता स्वीकार कर तो उन्होंने भारत में अपनी आखिरी पेंटिंग पर आखिरी पैच लगाया है.
जहाँ तक देश में कलाकारों के आखिरी दिनों के ब्यौर का सवाल है तो भारत की स्थिति कई मायनों में पाकिस्तान से कोई ज्यादा अच्छी नहीं रही है. दोनों देशों ने वक़्त-बा-वक़्त अपने-अपने कलाकारों को उनके आखिरी दिनों में बदहाली और बेबसी में जीने पर मजबूर किया है. उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई के सुरों की गहराईयों और ऊँचाइयों से हर हिन्दुस्तानी वाकिफ है और जिंदगी भर की उनकी मुफलिसी और फाकों से भी कोई ना-वाकिफ नहीं है. इक्कीस अगस्त को उनकी चौथी बरसी पर शायद हम बिस्मिल्ला को याद करें.
सीमा पार भी कलाकारों के बे इन्तहा दर्द का कोई अंत नहीं है. पाकिस्तानी सरकार इतनी भी काबिल नहीं कि अपने बेश कीमती ग़ज़ल फनकार उस्ताद मेहदीं हसन के लिए कुछ लाख रूपये खर्च कर उन्हें फेफड़ों की बीमारी से बचा सके.शायद पाकिस्तान ने अपना सारा धन अमेरिका से गोला बारूद खरीदने में लगा दिया है. आगा खां यूनिवर्सिटी अस्पताल से मेहदीं हसन को सिर्फ इसलिए डिसचार्ज करवाना पड़ा था कि अब उनके कुनबे के पास इलाज के पैसे नहीं बचे थे. लता मंगेशकर ने खां साहब की आवाज को खुदा की आवाज बताया था और उनके इलाज के लिए सारा खर्च उठाने के लिए उन्हें खबर भेजी थी. सच है ... एक कलाकार ही दुसरे कलाकार का दर्द जी सकता है, बशर्ते कलाकार सच्चा हो. जिस गज़ल गायक ने दोनों देशों के लाखों करोड़ों लोगों की जिंदगी में ताउम्र सुर फूंकें उसकी सांस आज पाई पाई को मोहताज है. पता नहीं मेहदीं हसन कैसे पाकिस्तान की उस आबो-हवा में सांस ले रहें है.
हुसैन के साथ भी तकरीबन वही सब हुआ जो दुसरे कलाकारों के साथ हुआ. हिन्दू देवी-देवताओं की विवादस्पद पेंटिंग्स बनाने के कारण हुसैन को एक्सजाइल के लिए मजबूर किया गया. देश में नहीं घुसने देने की धमकियाँ दीं, पेंटिंग्स जलाई गई, एक महान कलाकार के पुतलों को सडकों पर फूंका गया .
हुसैन ने तकरीबन सारी जिन्दगी देश में बिताई. अपनी जिंदगी के 90 साल भारत में गुजारकर सेकड़ों केनवास रंगे और भारत के साथ-साथ दुनिया को भी रंगों के मायने सीखाये. सन 2007 से दुबई और लन्दन में खाक छानी. अब क़तर ने उन्हें अपनी नागरिकता देने का एलान किया है जिसके लिए हुसैन ने कोई गुहार नहीं लगाई थी, ना ही हुसैन किसी और देश की शरण के लिए मोहताज है. एक कलाकार को सांस लेने के लिए किसी देश की नागरिकता की जरुरत नहीं. लेकिन फिर भी उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया है, अगर जिन्दा रहने की यही शर्त है तो यही सही...
अभी कुछ दिनों पहले ही हुसैन ने अपना भारतीय पासपोर्ट भी वापस कर दिया है हालाँकि पासपोर्ट वापस लौटने से पहले हुसैन को यह भी ख्याल करना चाहिए था कि शाहरूख खान और आमिर खान भी हिंदुस्तान में रह रहें है, उन्हें देश में उतना डर नहीं लगा जितना हुसैन को लगा.
खैर, हुसैन को यह हक़ है की वो अपनी बाकी जिन्दगी कहाँ गुजरे. एक कूची और कुछ रंगों के साथ नंगे पैर दुनिया नापने वाला 95  साल का बूढ़ा किसी देश की नागरिकता का मोहताज नहीं है. ना हिंदुस्तान और ना ही क़तर. वो हमारी या आपकी दो कोडी के लिए रंगों से नहीं खेलता है. फिल्मों के पोस्टर और कलाकारों के केनवास सडकों पर फूंककर खुश होने वाले जिस दिन हुसैन की कूची और उसके रंग का अर्थ समझ जायेंगे उस दिन वे खुद को किसी देश की नागरिकता के लायक नहीं समझेंगे. हुसैन तो हवा है जिसे किसी वतन की जरुरत नहीं. रंग ओ कूची वाले यात्री को वतन की जरुरत नहीं

Friday, March 5, 2010

यंहा ख्वाब भी टांगो पर चलते है

बड़ी लम्‍बी-सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पाँव जमीं पर हैं
समन्‍दर छोड़ती है, न समन्‍दर में उतरती है
ये नगरी बम्‍बई की...
जुराबें लम्‍बे-लम्‍बे साह‍िलों की, पिंडलियों तक खींच रक्‍खी है
समन्‍दर खेलता रहता है पैरों से लिपट कर
हमेशा छींकता है, शाम होती है तो 'टाईड' में।

यहीं देखा है साहिल पर
समन्‍दर ओक में भर के
'जोशान्‍दे' की तरह हर रोज पी जाता है सूरज को
बड़ा तन्‍दरुस्‍त रहता है
कभी दुबला नहीं होता!
कभी लगता है ये कोई तिलिस्‍मी-सा जजीरा है
जजीरा बम्‍बई का...

किसी गिरगिट की चमड़ी से बना है आसमाँ इसका
जो वादों की तरह रंगत बदलता है
'कसीनो' में रखे रोले (Roulette) की सूरत चलता रहता है!
कभी इस शहर की गर्दिश नहीं रुकती
बसे 'बियेरिंग' लगे हैं
किसी 'एक्‍सेल' पे रक्‍खा है।

तिलिस्‍मी शहर के मंजर अजब है
अकेले रात को निकलो, सिया साटिन की सड़कों पर
तिलिस्‍मी चेहरे ऊपर जगमगाते 'होर्डिंग' पर झूलते हैं
सितारे झाँकते हैं, नीचे सड़कों पर
वहाँ चढ़ने के जीने ढूँढने पड़ते हैं
पातालों में गुम होकर।

यहाँ जीना भी जादू है...
यहाँ पर ख्‍वाब भी टाँगों पे चलते है
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी में रक्‍खे मूंग के दाने
चटखते है तो जीभें उगने लगती हैं
यहाँ दिल खर्च हो जाते हैं अक्‍सर...कुछ नहीं बचता
सभी चाटे हुए पत्‍तल हवा में उड़ते रहते हैं
समन्‍दर रात को जब आँख बन्‍द करता है, ये नगरी
पहन कर सारे जेवर आसमाँ पर अक्‍स अपना देखा करती है

कभी सिन्‍दबाद भी आया तो होगा इस जजीरे पर
ये आधी पानी और आधी जमीं पर जिन्‍दा मछली
देखकर हैराँ हुआ होगा!! - गुलज़ार