Friday, March 5, 2010

यंहा ख्वाब भी टांगो पर चलते है

बड़ी लम्‍बी-सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पाँव जमीं पर हैं
समन्‍दर छोड़ती है, न समन्‍दर में उतरती है
ये नगरी बम्‍बई की...
जुराबें लम्‍बे-लम्‍बे साह‍िलों की, पिंडलियों तक खींच रक्‍खी है
समन्‍दर खेलता रहता है पैरों से लिपट कर
हमेशा छींकता है, शाम होती है तो 'टाईड' में।

यहीं देखा है साहिल पर
समन्‍दर ओक में भर के
'जोशान्‍दे' की तरह हर रोज पी जाता है सूरज को
बड़ा तन्‍दरुस्‍त रहता है
कभी दुबला नहीं होता!
कभी लगता है ये कोई तिलिस्‍मी-सा जजीरा है
जजीरा बम्‍बई का...

किसी गिरगिट की चमड़ी से बना है आसमाँ इसका
जो वादों की तरह रंगत बदलता है
'कसीनो' में रखे रोले (Roulette) की सूरत चलता रहता है!
कभी इस शहर की गर्दिश नहीं रुकती
बसे 'बियेरिंग' लगे हैं
किसी 'एक्‍सेल' पे रक्‍खा है।

तिलिस्‍मी शहर के मंजर अजब है
अकेले रात को निकलो, सिया साटिन की सड़कों पर
तिलिस्‍मी चेहरे ऊपर जगमगाते 'होर्डिंग' पर झूलते हैं
सितारे झाँकते हैं, नीचे सड़कों पर
वहाँ चढ़ने के जीने ढूँढने पड़ते हैं
पातालों में गुम होकर।

यहाँ जीना भी जादू है...
यहाँ पर ख्‍वाब भी टाँगों पे चलते है
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी में रक्‍खे मूंग के दाने
चटखते है तो जीभें उगने लगती हैं
यहाँ दिल खर्च हो जाते हैं अक्‍सर...कुछ नहीं बचता
सभी चाटे हुए पत्‍तल हवा में उड़ते रहते हैं
समन्‍दर रात को जब आँख बन्‍द करता है, ये नगरी
पहन कर सारे जेवर आसमाँ पर अक्‍स अपना देखा करती है

कभी सिन्‍दबाद भी आया तो होगा इस जजीरे पर
ये आधी पानी और आधी जमीं पर जिन्‍दा मछली
देखकर हैराँ हुआ होगा!! - गुलज़ार