Friday, July 7, 2017

ऑलमोस्ट डाइड,

कभी- कभी इस बेनूर सी जिंदगी में
चुपके से जीना पड़ता है
इतना धीमे की पता भी न चले की सांस का आरोह- अवरोह है भी या नहीं
हम अपनी ही देह को निस्तेज 
और निढाल पड़ा देखते हैं दूर कहीं सुमसाम में
हवा में
हम ऐसे रह गए यहाँ
जैसे छोड़ दी गई जगह कोई
न नगर, न खरपतवार कोई
मन बसता भी नहीं, उजड़ता भी नहीं
दिल्ली में चौंसठ खंभा से कुछ ही दूरी पर
हज़रत निज़ामउद्दीन औलिया की दरगाह के पास
ग़ालिब की सूनी कब्र से हम
सूखे हुए गुलाब के फूल उड़ते हों बगैर खुशबू के जहाँ
पीपल के सूखे पत्तें गर्मियों के दिनों में सरसरा जाते हों दरगाह के फर्श पर जैसे
बारिशों में भीग-भीगकर स्याह काले हो जाते हों पत्थर जहाँ
कोई शायर भरी महफ़िल में
अपनी याददाश्त खो बैठे
शेर याद आए तो मिसरा भूल जाए
या फेज़ का कोई शेर हवा में अटक जाए ऐसे
की उसे वाह भी न मिले और आह भी न मिले
कभी- कभार हम खुद ही
अपनी कलाई पकड़ नस दबाकर देख लेते हैं
हम हैं की नही
किसी के पास कोई हकीमी हुनर हो तो आएं
और देखे
नब्ज़ टटोल लें
बताएं हम हैं की नहीं
तुम हो की नहीं
तुम, हां तुम ही।

- ऑलमोस्ट डाइड,