Sunday, July 1, 2018

'लेड जेपलीन' अप-डाउनर म्यूजिक है, 'ओपेथ' के अपने क्वांसिक्वेंसेस है


मैने ज्यादातर म्यूजिक चलती हुई बसों और ट्रेनों में सुना। या फिर अप- डाउन करते हुए। इसलिए मैं मानता हूं कि दुनिया का ज्यादातर म्यूजिक सफर के लिए बना है। संगीत सबसे ज्यादा यात्राओं में प्रासंगिक है। यही बात बस और ट्रेन से होकर ट्रकों और कुछ ठेलों तक भी पहुंचती है।

कुछ गीत बसों में अच्छे लगते हैं। ट्रकों में बजने वाले गानों की तरफ भी कान चले जाते हैं। मैं ट्रेन में हमेशा हेडफोन लगाकर रहता हूं। कई बार ऐसा होता है कि देर तक कान में हेडफोन लगा रह जाता है, तब भी जब कोई म्यूजिक प्ले नहीं हो रहा होता हो।   

इसलिए लेड जेपलीन को मैं कभी ठहरकर नहीं सुन पाया। यह मेरे लिए अप- डाउन म्यूजिक है। करीब तीन साल तक रोज़ाना  33 किलोमीटर का अप-डाउन और जेपलीन का 'द रैन सॉन्ग'  'कश्मीर' ‘स्टेयर वे टू हेवन'  'इन माय टाइम ऑफ डाईंग'  'सिंस आई हेव बीन लविंग यू'... एंड सो ऑन। इस सब के बीच उपनगरीय बसों का शोर। एक नदी। विंदयाचल श्रंखला के पर्वत और कुछ पवन चक्कियां। एक निःसंग, अकेला और बहुत ही अजीब सफ़र। अजीब इस लिहाज़ से कि उस्ताद अमीर खां के घराने से कुमार गंधर्व के घराने की तरफ जाते हुए एक इंग्लिश रॉक बैंड लेड ज़ेपलीन को सुनना। रोज एक नदी से गुजरना। पहाड़ और दूर हवा में घूमती पवन चक्कियां देखना। बस के शीशे से बाहर धूएं से भरा एक धुंधला विस्तार।

लेड जेपलीन देह की परतें उतारता जाता है धीमे- धीमे। यह तब पता चलता है, जब देह खत्म हो जाती है और आत्मा में तब्दील होकर सामने खड़ी हो जाती है। फिर सिर्फ एक चीख बचती है। हवा में लटकी हुई। जिसे तुम बार-बार छूकर देख सकते हो। रॉबर्ट प्लांट की चीख। गिटार की स्ट्रिंग्स को छूती जिमी पेज की उंगलियां। जॉन पॉल जॉन्स, जॉन बोनहोम की बेखुदी और आधी रात के अंधेरे में जुगनुओं की तरह हज़ारों- लाखों फ्लैश लाइट में दमकता हुआ लेड जेपलीन का एक विशाल ब्लू स्टेज।

1968 के दौर में लंदन में फॉर्म किए गए इस इंग्लिश रॉक बैंड के खाते में करीब नौ स्टूडियो, चार लाइव और सौलह सिंगल एलबम हैं। हज़ारों रिकॉर्डेड लाइव शोज़ और वर्ल्ड म्यूजिक टूर। इनमें से कुछ ही अब तक सुने हैं, लेकिन बेखुदी के लिए इतने ही काफी है।


रॉबर्ट प्लांट को सुनते हुए यह यकीन होने लगता है कि उसकी चीख तुम्हारी चीख है। उसका रूदन, तुम्हरा दर्द। वह घावों को कुरेदता है, फिर मरहम भी लगाता है। मुझे नहीं लगता लेड ज़ेपलीन को सुनने के लिए कानों की जरुरत हो सकती है। उसे बगैर देह के सुना जा सकता है। आत्मा के साथ। मन की अंधेर सुरंगों और उसकी अतल गहराइयों में धँसते हुए।

लेड जेपलीन के बाद मैं ‘ओपेथ’ की ज़द में आया। स्वीडिश हैवी मेटल बैंड। 1989 में स्टाकहोम में बना यह बैंड मोटेतौर पर अपने डेथ मेटल और डेथ ग्रॉल्स के लिए जाना जाता है। डेथ मेटल हैवी म्यूजिक का एक जॉनर और डेथ ग्रॉल्स एक तरह का वोकल स्टाइल है। उदासी कितने लोगों को पसंद है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ओपेथ का एक स्टूडियो एल्बम ‘वॉटरशेड’ रिलीज के पहले हफ्ते में बिलबोर्ड रैंकिंग चार्ट में 23वें नंबर पर था। अपनी इसी स्टाइल के लिए यह बैंड मुझे हमेशा उदास करता है। एक मोर्बिड अवस्था या भाव में लेकर जाता है। हमारे कंट्री म्यूजिक और विदेशी रॉक या मेटल बैंड में यही एक अंतर है। मौत के बारे में लिखे ओपेथ के टेक्स्ट उदासी में लेकर जाते हैं, वहीं जब हम कबीर के निर्गुणी भजन सुनते हैं तो मृत्यु हमें एक उत्सव की तरह नजर आती है। जो अंतर सिमेट्री और शमशान घाट में है वैसा ही कुछ। सिमेट्री एक अंतहीन खामोशी और उदासी का भाव जगाती है, जबकि शमशान घाट वैराग्य उत्पन्न करते हैं। सिमेट्री बारिश और गर्मियों के दिनों में अलग-अलग महसूस होती है। गर्मियों में उजाड़, सूखे खरखराते हुए पत्तों से भरी एक सूनी जगह। बारिश के दिनों में सफेद रंग से पुती हुई कब्रें हरे पेड़ और पत्तों में डूबी और भीगी सी नजर आती हैं। वहीं शमशान सभी मौसम में एक जैसे नजर आते हैं। उन पर मौसम का कोई असर नहीं होता। वहां हर मौसम में सुलगती या बुझी हुई राख ही होती है।

यह ओपेथ का ही असर है। मैने म्यूजिक के बारे लिखने के लिए सिरा पकड़ा था, लेकिन दूसरा या अंतिम सिरा सिमेट्री और शमशान घाट तक ले आया। ओपेथ को सुनने के बाद ऐसा ही कुछ लिखा जा सकता है। राख की तरह ठंडा, बुझा और भटका हुआ आलेख। यही ओपेथ के क्वांसिक्वेंसेस हैं।