Monday, July 20, 2015

... खोटा सिक्का था सुधीर

भगवानदास मूलचंद लुथरिया या भागु या फिर सुधीर। यक़ीनन बहुत कम लोगों को एक ही आदमी के यह तीन नाम याद होंगे। नाम धोखा दे सकते हैं। नाम धोखा देते भी हैं, लेकिन आदमी का अंदाज़ कभी झूठ नहीं बोलता। -अंदाज़ याद रह जाता हैं - और अंदाज़ याद रह गया। मुझे भी और तुम्हे भी। गले की नली से घसीटकर निकली हुई आवाज़ और होंठों के बीच चलती -फिर फिसलती, इस कोने से उस कोने तक खेलती सिगरेट। उस पर बदनीयत से भरी आँखों का टेढ़ापन। खोटा सिक्का था सुधीर, बिलकुल खोटा। खोटा भी अपने खोटेपन में खरा हो सकता हैं, लेकिन पहचाना नहीं गया, फिर भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं ऐसे खोटे सिक्कों की कीमत। मैं भी हूँ उनमे से एक। जो खोटे सिक्कों को बाज़ार के साथ नहीं देखता। बस! जेब में रखा हो तो लगता है कि जेब में कुछ हैं। सुधीर की फिल्मों में यही अहमियत थी। ७० एमएम की स्क्रीन वाले बड़े कैनवास पर सब की अपनी पूरी दुनिया होती हैं, जिसे देखने के लिए आँखों को बड़ा करना पड़ता हैं, जोर डालना पड़ता हैं रगों पर। लेकिन सुधीर का नुकीला अंदाज़ खुद नज़र आता हैं - बिना एफर्ट के। कोई कोशिश नहीं बुरा बनने की- सुधीर था ही बुरा। जैसे कोई बुरा आदमी होता हैं, तो बस होता है - और बुरा होने का यही अच्छा गुण हैं। सहज बुरा। खोटा सिक्का सहज खोटा होता हैं - लेकिन मुझे अभी भी याद हैं बचपन के वो सारे खोटे सिक्के जिन्हे मैं अपनी जेब में संभालकर रखता था। तुम भी उन्ही की तरह अब एक स्मृति हो। तुम्हारे अंदाज़ याद रहेंगे भगवानदास मूलचंद लुथरिया या भागु या फिर सुधीर। नाम से तुम्हे कम ही लोग पहचान पाएंगे। इसलिए तुम्हारा एक अंदाज़ यहाँ दिखा रहा हूँ - सुधीर। हो सकता हैं तुम्हारी मौत भी कोई अंदाज़ हो तुम्हारा। १३ मई २०१४