Sunday, September 18, 2011

ले एत्रेंजर

मैं चाय की उसी होटल में बैठा सिगरेट पी रहा था जहाँ हम अक्सर मिलते थे. चाय के लिए मैने लडके को आवाज लगा चूका था पर वह अभी तक चाय लेकर आया नहीं था. इसलिए मैंने सिगरेट सुलगा ली और अपने आसपास छोड़े गए चाय के जूठे गिलासों को देखने लगा. कभी कभी मेरा ध्यान रह रहकर अखबार के कागज़ के उन टुकड़ों पर चला जाता जो लोगों ने पोहे खाकर इधर-उधर फेंक दिए थे. अखबार के उन टुकड़ों में खबरों की हेडिंग्स पर नज़रें ठहर रही थी. कुछ ख़बरें पुरानी और कुछ बहुत पुरानी खबरें थी. कागज़ के टुकड़ों में कुछ खबरें कल ही की थी. यह देखते देखते अचानक एक विचार मन में आ गया कि  ख़बरें कितनी भी बड़ी और ताज़ा ही क्यों हो नाश्ते के साथ परोसे जाने पर उनका कोई मूल्य नहीं होता. मैंने सिगरेट का आखिरी कश लिया और इसी दौरान मुझे उसका ख्याल आ गया ... फिर याद आया कि वो बस अभी आने ही वाली है. वो सामने से आती हुई नज़र आई. मुझे लगा यह उसका ख्याल भर ही है बस. लेकिन वो सचमुच सामने से आती हुई मुझ तक पहुँच रही थी. मैं बस उसे अपनी और आते देखता रहा ... बिलकुल विचार सून्य सा. लगा मेरे पास से होकर वो किसी दुसरे रास्ते की तरफ मुड जायेगी. मैं उससे मिलना नहीं चाह रहा था. दरअसल मैं खुद से मिलना नहीं चाह रहा था. यह बहुत मुश्किल था. 
वह मेरे सामने आकर बैठ गई. सफ़ेद सलवार कुरता और बाजू में काला बैग लटकाया हुआ. बाल जैसे हलकी बारिश से थोड़े भीग से गए हो. लेकिन बरिश नहीं हुई थी. शायद नहाकर सीधे चली आ रही थी. जैसे उसने मुझे भांप लिया हो . क्यों मुझे देखकर ख़ुशी नहीं हुई. ऐसी तल्खी से उसने पहले कभी सवाल नहीं किया था. मैंने जवाब नहीं दिया. मैंने आवाज लगाईं ... एक चाय और लाना. लड़का इस बार जल्दी से चाय ले आया. मैंने अक्सर इस बात का अनुभव किया है कि जब कोई लड़की या महिला साथ हो तो होटल वाले नाश्ते या चाय का ऑर्डर लाने में जरा भी देर नहीं करते. लड़का चाय देकर एक दीवार के सहारे खड़ा हो गया और हम दोनों को निहारने लगा. शायद इसी तरह चाय- पोहे की जूठन और कांच के गिलासों की टन-टन से भरे अपने दिन के कुछ हिस्से को रूमानियत के साथ वे जीते है. वह चाय पीते हुए मुझे देख रही थी. इसमें देखने से अधिक घुरना था. कई दिनों बाद मुझ से मिल रही थी. उसे मुझ से कई बातें करना थी. मुझे खुशी होना चाहिए थी. वह मुझे मेरी अपनी बातें करने वाली थी. संगीत और किताबों की बातें. लेकिन मुझे इस बात की कोई ख़ुशी नहीं थी. मेरा दम घुट रहा था.किताबों की बदबू से मेरा जी घबराने लगा था. उसने अपना मुंह खोल दिया. कल रात मैंने शोभा गुर्टू की ठुमरी सुनी... " याद पिया की आये " मेरे कान फूटने लगे. लगा कानो से गरम शीशा रिसने लगा हो. उसे बोलने से मैं रोक नहीं सकता था. कहने लगी... यह ठुमरी ही है न ! तो फिर ख्याल क्या होता है ...? और दादरा..?  मुझे कोफ़्त होने लगी. सर पर पसीने की बूँदें चमक आई. मतली सी आने लगी. लेकिन वो मुझ से बेपरवाह बस बोले जा रही थी. मैंने मुंह नहीं खोला. खोलता तो उलटी आ जाती. मैंने दूसरी सिगरेट सुलगना चाही इसलिए माचिस टटोलने लगा. उसे लगा अब मैं माचिस लेन के लिए उठूँगा या लड़के को आवाज लगाऊंगा. वह फिर बोलने लगी. वह पता नहीं क्या कह रही थी. उसके वाक्यों के बीच बीच में बस ये नाम सुनाई आ रहे थे ... बड़े गुलाम अली... आमिर खान साहब ... मेहदी हसन... मैं घर जाना चाहता था. लेकिन अब तक वो उबल पड़ी. और वापस लौटा रही थी. वो सब कुछ जो मैंने उसे दिया था. मुझे लगा किसी ने मेरा गला दबा दिया हो. उसने मुझे फिर चौंका दिया...! अरे हाँ...! कल रात को मैंने निर्मल वर्मा का नॉवेल पढ़ा ... वे दिन!  कान से रिसता हुआ गरम शीशा अब कानों से होकर कन्धों तक चला आया. सीना धक् से रहा गया. कन्धों पर से रिसते हुए गरम शीशे और उसके गीलेपन को मैंने छूकर देखा तो मेरी उंगलियाँ लाल हो गई. 
वह बोले जा रही थी ... बेपरवाह ... मानो अकेली हो और खुद से बातें कर रही हो. उसका ध्यान मेरी तरफ नहीं था. तपाक से बोली. और हाँ ! आज तो मैंने वो नॉवेल भी पढना शुरू की है. वो क्या नाम है उसका ... हाँ ! अल्बेयर कामू की ले एत्रंजर ...
हवा तेज़ हो गई. अखबार के टुकड़ों पर छपी खबरें इधर-उधर फडफडाने लगी... मेरा सीधा हाथ जोर से ऊपर उठा और तेज़ी से उसके गले की नली को छूता हुआ गुजर गया. खून का गरम फव्वारा मेरे मुंह पर मुझे महसूस हुआ. मैं चाय के गिलास के टूटे हुए टूकडे को हाथ से वहीं छोड़कर बाहर निकल गया.