Sunday, March 11, 2018

उम्र घिसे, चप्पल घिसे, घिसे न इमां

खून में कुछ गर्म रवानी हो तो यकीं आए हम हिंदुस्तान में ही हैं, उम्र घिसे, चप्पल घिसे, घिसे न इमां तो तुम हिंदुस्तानी हो।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खां एक एटीट्यूड था। मैं उन्हें शहनाई वादक से भी पहले इसी एटीट्यूड के साये के तौर पर देखता हूँ। हद इस क़दर कि अपने हर दूसरे- तीसरे आलेख में उस्ताद का ज़िक्र बरबस ही साया हो जाता है। अपनी मौसिक़ी के बेइंतेहा ऊंचे दौर में उन्हें हज़ार दफ़े अमेरिका ने अपने यहां बसाने के जतन किए। अमेरिका की रॉक फेलर संस्था ने खां साहब से गुज़ारिश की थी कि वे उन्हें अपने देस में बसाने के लिए मरे जा रहे हैं। अगर वे अपना देस छोड़ अमेरिका आ जाएं तो वहां बनारस की तरह उनके मन माफ़िक माहौल अता फरमाएंगे। वहां उनके लिए आला दर्जे के साज़ ओ सामां होंगे। उनकी ज़रूरत की हर एक चीज़ एक ताली पर उनके सामने हाज़िर होंगी। लेकिन उस्ताद एक एटिट्यूड था। उन्होंने जवाब दिया कि  'अमेरिका में बनारस तो बसा दोगे, लेकिन वहां मेरी गंगा कैसे बहाओगे'। मैं देख सकता हूँ, घोर नाउम्मीदी के वक़्त में भी दो जलेबी और एक पैप्सी का शौक़ीन हिंदुस्तान का यह फ़नकार अपने एटीट्यूड के साथ अब भी जिंदा है, गर आपको नज़र नहीं आता तो यह दीगर मसला है।

इसी के इर्दगिर्द एक थी ललिता देवी, लालबहादुर शास्त्री की पत्नी। पीएनबी बैंक घोटाले के संदर्भ में एक ज़िक्र आया है उनका। आर्थिक, सामाजिक और नैतिक अराजकता के इस दौर में यह बानगी बिल्कुल मुफ़ीद नहीं है। इस मिसाल का कौड़ीभर मोल नहीं। फिर भी, ज़िक्रभर जो था तो कर रहा हूँ। अपने प्रधानमंत्री रहते हुए शास्त्री जी ने समय की बचत को ध्यान में रखते हुए फ़िएट कार खरीदने का मन बनाया था, लेकिन उस वक़्त उनके पास कुल जमा सात हज़ार ही थे और कार की कीमत बारह हज़ार। पांच हज़ार का कर्ज़ शास्त्री जी ने इसी बैंक से लिया था जिसकी दुर्गति नीरव मोदी कर गया। कार खरीदने के एक साल बाद ही शास्त्रीजी की मृत्यु हो गई। इंदिरा गांधी ने बैंक को कर्ज माफ़ी की पहल की, लेकिन शास्त्रीजी की पत्नी ललिता देवी ने इनकार कर दिया और सालों तक इस कर्ज को अपनी पेंशन से चुकता कर दिया। छोटे कद के शास्त्री जी अपने एटीट्यूड में बड़े थे, ऐसा सुना था, लेकिन पत्नी ललिता देवी ऐसे एटीट्यूड की माँ- बाप थीं।

इन किस्सों का यूँ मोल तो कुछ भी नहीं, की हम सबको अपने एकाउंट में 15 लाख की प्रतीक्षा जो है। बावजूद इसके इन किस्सों से गर मेरे और तुम्हारे ख़ून में कुछ गर्म रवानी महसूस हो तो यकीं आए की हम हिंदुस्तान में ही रहते हैं।

उम्र घिसे, चप्पल घिसे, घिसे न इमां तो तुम हिंदुस्तानी हो।

प्रिया प्रकाश

रोशन अब्दुल रऊफ फिलहाल प्रिया प्रकाश से ज्यादा सुखी है। क्योंकि वो नहीं है। वो देश के 70 एमएम के पर्दे पर होकर भी इन्विज़िबल है। प्रेम में होना हर बार इतना भी सुखकर नहीं होता, भले ही वो एक तरफा ही क्यूं न हो।

ज्यादातर जमात उसकी कारी आंखों में डूब गई है। देश उसकी आइब्रो के साथ ऊपर- नीचे हो रहा है। 26 क्षणों के वीडियो में उसने सिर्फ एक बार आंख मारी थी, लेकिन अब करीब 40 लाख बार से ज़्यादा वायरल हो चुकी प्रिया इतनी ही बार आंख मार चुकी हैं, करीब इतनी ही बार पिस्तौल चला चुकी हैं। 18 साल की यह लड़की 24 घण्टों में 25 बार साक्षात्कार दे चुकी हैं। नेशनल न्यूज़ चैनल लड़की से अब भी आंख मारने की गुजारिश कर रहे हैं। वो कभी पिस्तौल चलाती हैं, कभी गाना भी गाती हैं। इंस्टाग्राम पर 30 लाख फॉलोवर्स के साथ उसे वायरल गर्ल, नेशनल क्रश ऑफ इंडिया और वैलेंटाइन गर्ल के खिताब से नवाजा जा चुका है। यूँ कहें तो बेहतर, की ये समय अपने चरम पर है।

लड़की को अपनी फेम भारी पड़ रही है। - 'उससे जब पूछा जाता है की कैसा लग रहा है, तो वो कहती हैं, खुशी हो रही है, लेकिन उसकी आत्मा कह रही है क्षमा कर दो, गलती हो गई। पूरा मीडिया मिलकर इस बाला को करप्ट कर देगा। दरअसल, दुनिया तो एक ही है, फिर भी सबकी अलग- अलग है। प्रिया प्रकाश वारियर की अलग और रोशन अब्दुल रऊफ की दुनिया अलग।

प्रिया अपने ट्रोल में दुखी है, रोशन अब्दुल रऊफ अपने नहीं होने में ज़्यादा सुखी है।

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आंख का रंग

वहां से दूर 
बहुत दूर
यहां इस तरफ 
तुम क्या जानो, याद क्या होती है

आंख का रंग कैसे याद करना पड़ता है
कितना खपना पड़ता है
काले और कत्थई के बीच

कितनी कोशिशों के बाद 
मुझे अब भी तुम्हारी आंखों का रंग याद नहीं 

आँखों की स्मृति में एक उम्र बीत सकती है

और वो वादा
जो आंखों में किया था
की हम कभी भी
कॉफ़ी नहीं पिएंगे अकेल- अकेले
और कोई सपना भी नहीं देखेंगे

ये फासलें न हो तो
आंखों के रंग पर दीवान लिखे जा सकते हैं

तेज़ हवा में गालों से रिसता हुआ तुम्हारा आई लाईनर
यहां एक मुद्दत की तरह है मेरे पास

एक गहरी बहती हुई लकीर
जो हर सुबह तुम अपनी आंखों के पास खिंचती हो
शाम तक खुद ब खुद अपने ही पानी में डूब जाती है।

मुझे याद है
तुम्हारे कमरे के रोशनदान के पास
कैसे इकट्ठा हो जाते हैं कबूतर
और हर सुबह तुम्हें जगा देते हैं

तुम रोज कबूतरों के ख़िलाफ़ शिकायतें करती थी
मैं तुम्हारी वो सारी शिकायतें सुनता रहा हूँ

बावजूद इसके की 
ज़्यादातर धूसर भूरे कबूतर मेरी कविताओं का बिंब हैं।

याद है तुम्हें
एक बार तुम्हारी कमर के ताबीज़ के धागे को बांधने में उंगलियां कितनी उलझ गईं थी मेरी,