Thursday, December 22, 2016

उसकी चुप्पी

उसकी चुप्पी से खुलते हैं शहर
गहरी खाई से ऊबकर आते हैं सवेरे 

उजली हंसी में उगता है दिन 

उसकी उंगलियां रफ़ मसौदा लिखती हैं
संवलाई हाथ बातें करते हैं 

मोत्ज़ार्ट की धुन पर
ऊंघती हैं उदास दोपहरें 

दिन अपनी धूप को सरकाता हैं
धीमे धीमे शाम की तरफ 

रात तब्दील हो जाती है
अपने मिज़ाज़ में 

सख़्त नींदें झुकती नहीं
फिर भी बिस्तरों की तरफ 

वो कोई हैरत सुनना चाहती है
मुझे आसान नींद पसंद नहीं

पवनचक्कियां बहती हैं
पहाड़ों पर जहां
वहीं, उसकी आंख के एक छोर पर हूं मैं 

वो अपने होठों पर नमी चाहती हैं
मैं उसके माथे का तिल देखता हूं बार बार।