Thursday, July 16, 2009

अमंगल में मंगल बिस्मिल्‍लाह...


साँसें ही जीवन होती है और यही साँसें उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खान साहब अपनी शहनाई में फुँकते थे जो ध्‍वनि बनकर जीवन में तब्दिल हो जाती थी। कहते है कि ध्‍वनियाँ कभी मरती नहीं, विज्ञान ने भी इस बात का समर्थन किया है कि ध्‍वनियाँ हमेशा फिजाओं में गुँजती है। जब ध्‍वनियाँ जिंदा है तो क्‍या इस बात को नहीं माना जा सकता कि बिस्मिल्‍लाह भी अपनी शहनाई की ध्‍वनियों में, सुरों में, बाबा विश्‍वनाथ के मंदिर में, गंगा किनारे बनारस में जिंदा है?

बिस्मिल्‍लाह बिहार के डुमरांव में राजघराने के नौबतखाने में शहनाई बजाने वाले परिवार में जन्‍में थे। शहनाई बजाना उनका खानदानी पेशा रहा है। जब वे बहुत छोटे थे तभी अपने मामा के साथ बनारस आ गए। उनके मामा बाबा विश्‍वनाथ के नौबतखाने में शहनाई बजाते थे इसी जगह पर खान साहब ने शहनाई का रियाज करना शुरू कि‍या। वे यहाँ गंगा में खूब नहाते और फिर बालाजी के सामने घंटों रियाज करते, सच्‍चे सुर की खोज करते।

बिस्मिल्‍लाह ने एक बार कहा था कि यहीं र‍ियाज करते-करते भगवान बालाजी उनके सामने आए और सिर पर हाथ फेर कर कहा कि 'जाओ खूब मजे करो'

फिजाओं में साम्‍प्रदायिकता का जहर घोलते समय यह याद रखना चाह‍िए कि बिस्मिल्‍लाह एक सिया मुसलमान थे जो सुबह बाबा विश्‍वनाथ के मंदिर में शहनाई बजाते, लंगोट पहन कर गंगा में नहाते और बालाजी के सामने रियाज करते। वे पाँच बार के नमाजी थे लेकिन मानते थे कि बालाजी ने ही उन्‍हें शहनाई वरदान में दी है।

क्‍या वह इंसान जो ना ह‍िंदू था और ना मुसलमान विश्‍वनाथ के मंदिर में, गंगा के तट पर बनारस में जिंदा नहीं है? क्‍या ऐसा बिस्‍िमल्‍लाह 15 अगस्‍त 1947 की आजादी की सुबह बनकर लाल किले पर शहनाई नहीं बजा रहा है? क्‍या बिस्मिल्‍लाह जीवन की ध्‍वनि बनकर देश की फिजा में सुर बनकर नहीं बिखरा हूआ है? मृत्यु तो हम सभी की हो गई है कि हमने उनके मकबरे के लिए आज तक चार ईंटे और कुछ स‍ीमेंट तक मुहैया नहीं कराई। कहीं पढ़ा था कि एक बार तो उन्‍हें अपने संयुक्‍त परिवार को चलाने के लिए शहनाई बजाने के लिए जयपूर जाना पड़ा ताकि कुछ पैसे मिल जाए।

ये वही बिस्मिल्‍लाह है जिन्‍हें अमेरिका की एक संस्‍था 'रॉकफेलर फाउंडेशन' अमेरिका में बसाने के लिए हमेशा प्रयास करती रही। संस्‍‍था ने बिस्मिल्‍लाह को उनके कलाकार साथियों के साथ अमेरिका में बसाना चाहा इस वादे के साथ कि वे उन्‍हें अमेरिका में बनारस जेसा उनके मन-माफिक वातावरण उपलब्‍ध कराएँगे। इस पर बिस्मिल्‍लाह ने कहा था कि अमेरिका में बनारस तो बना लोगे पर वहाँ 'मेरी गंगा कहाँ से बहाओगे'

फ‍िजाओं में जहर घूला हुआ है लेकिन ध्‍वनियाँ अभी भी जिंदा है, सुर हवाएँ बनकर अभी भी बह रहें है। शहनाई की मंगल धुनें अभी भी लहरें बनकर गंगा के तट से टकरा रही है। बनारस, काशी, मथुरा, मक्‍का और मदिना में अभी भी मंगल गान गाए जा रहे है, मंगल नृत्य किए जा र‍हे है।

आज के दौर में कोई इस लायक तो नहीं कि किसी का श्राध्‍द करे और फातेहा पढ़े, मैं खुद को तो इस लायक समझता ही नहीं लेकिन फिर भी इस श्राध्‍द में बिस्मिल्‍लाह का फातेहा पढ़ने की कोशिश जरूर करूँगा। कोई खुद को अगर उनका श्राध्‍द करने लायक समझे तो जरूर करे। अमंगल में मंगल बिस्मिल्‍लाह...

Friday, July 3, 2009

बाबा ब्लॉगनाथ की जय हो




क्या बुरे दिन आ गए थे. कितने मंदिर गए। दरगाह पर मत्था टेका। ताबिज बंधवाए कि यह पत्रकार बनने का भूत भाग जाए पर कोई फायदा नही हुआ। घर वालो ने भी अपना सारा जोर लगा दिया। कई नीम - हकीमो को हमे दिखाया पर यह तो होनी थी इसे कौन टाल सकता था भाग मै लिखा कोई टाल सकता है क्या भला. इसी संकट की घड़ी मै आपकी एंट्री हुई बाबा. वाह बाबा आपकी महीमा ही न्यारी है आपने भूखे कलमकारो के मूह मै हाथ डाल दिया है अब मै आपके क्या गुण गाउ आपने तो सभी छोटे - बड़े कलमकारो के के वारे - न्यारे कर दिए . क्या उंचे , क्या नीचे , क्या काम वाले , क्या बेकाम . आपने तो सभी की प्यास बुझा दी , सबकी भूख मिटा दी बाबा . कसम बाबा भोलेनाथ की आप भगवान भोलेनाथ से कम नही . जेसे उन्होने अमृत- मंथन से निकला जहर पीया था वेसे ही आप भी हम सब छोरे - छपाटों के सीने मै उबलता हुआ जहर पीने आ गए हो . क्या दिन थे कसम से . हमे कोई नही पूछता था . ना ही कोई हमारा नाम ही लेता था . लिखने के लिए गली - गली , मोहल्ले - मोहल्ले भटकते थे . छटपटाते थे . कभी यह दैनिक तो कभी वो सांध्य. मगर कोई भी कागद कारा हमारे पेट की भूख और मन की ताप शांत करने नही आया . एक आप ही हमारे खेवनहार बनकर आए हो . अब आप ही हमारे माई - बाप और आप ही हमारे अन्नदाता है . आप ही हमारी कलम की लाज रख सकते है. जितना जो कुछ , थोड़ा बहुत हम जानते है वो लिख सकते है . आपके सामने उगल सकते है . इसे अब आप ही पचा सकते है . हे बाबा ब्लॉगनाथ आपको कसम हे बाबा भोलेनाथ की . आपको हमारा यह जहर भी पीना पड़ेगा और हमे जिंदा रखना पड़ेगा. नही तो हम किधर जायेंगे . अपनी पीर किसे बतायेंगे. क्या करेंगे . कहाँ हम अपना जहर उगलेंगे. सारे अखबारों, पत्रिकाओ पर तो इन तमाम साहित्यकारों और लेखकों ने अधिग्रहण कर लिया है. अब इन्हे कौन समझाए कि यह अधिग्रहन भी सिंगुर और नंदीग्राम जेसा ही है. इन साहित्य्कारो और लेखको मे कुछ तो मर - खप गए है फिर भी अपनी कब्रो मै से निकल - निकल कर हमारी लिख्ने की जो थोड़ी - बहुत स्पेस है वो भी छीन लेते है . और जो जिंदा है वो बार - बार अपना फन उठाकर ऐसा जहर उगलते है कि हम नये- नवेले , अज्ञानी , अभाशी , अधर्मी छोरे - छपाटे डरकर , दुबक कर ऐसा मूह बना लेते है कि हमारे चेहरे पर पत्रकार होने का कोई लक्षण ही नजर ना आए . वेसे भी इन साहित्यकारों के डर से हम अपने पत्रकारिक और लेखकिय गुण उजागर नही कर पाते है उपर से इसके ( पत्रकारिता ) के लक्षण भी इनके खौफ से हमे छुपाना पड़ते है. ऐसे मै हम किधर जाते , कहाँ अपनी कलाकारी दिखाते , कौन हमारी लिखी बांचता. अब आप ही बताओ बाबा ब्लॉगनाथ हुए ना आप हमारे बाबा भोलेनाथ .