Monday, March 29, 2010

कमलेश्वर

कितनी सच है तुम्हारी मृत्यु
और कितना सच है यह
कि अब तुम नही रहे .

लेकिन कितना झूठ है यह समय
और कितना झूठा हूँ मै
कि तुम्हे श्रद्धांजलि देने के लिए
किताब उठाकर तुम्हारी
माथे से लगाता हूँ अपने .

और मरने के बाद तुम्हारे
पढ़ना चाहता हूँ कहानी तुम्हारी .

कितना अजीब है यह समय

तुम्हारे ना रहने पर
और अधिक पढ़े जाते हो तुम .

बिस्मिल्लाह की शहनाई
संगत करने लग जाती है लहरों के साथ
गंगा के तट पर .

ऋषिकेश मुखर्जी जब विदा होते है
हर आदमी बन जाता है
आनंद और बाबू मुशाय .

कानों को अच्छे लगने लगते है
सुर और धुने नौशाद की .

सारे किरदार जीवंत हो उठते है
अभिव्यक्ति के लिए
दुनिया के रंग-मंच पर
जब किसी रंगकर्मी के जीवन का
परदा गिर जाता है हमेशा के लिए .

क्या जिंदा रहने से
महत्व घट जाता है
या मर जाना होता है महत्वपूर्ण ...?

Friday, March 26, 2010

रंग ओ कूची वाला यात्री

मकबूल फ़िदा हुसैन के कुछ ब्रश और केनवास देश में बचे थे जिन्हें अब क़तर भेज दिया जाना चाहिए और वो सारी पेंटिंग्स भी जो देश के कई बड़े घरानों के ड्राइंग और बैडरूम्स में टंगी है. हुसैन की भारतीय नागरिकता तो उसी वक़्त ख़त्म हो गई थी जब कुछ हिपोक्रिट लोगों ने उन्हें बनिश्मेंट का फरमान सुना दिया था, क़तर की नागरिकता स्वीकार कर तो उन्होंने भारत में अपनी आखिरी पेंटिंग पर आखिरी पैच लगाया है.
जहाँ तक देश में कलाकारों के आखिरी दिनों के ब्यौर का सवाल है तो भारत की स्थिति कई मायनों में पाकिस्तान से कोई ज्यादा अच्छी नहीं रही है. दोनों देशों ने वक़्त-बा-वक़्त अपने-अपने कलाकारों को उनके आखिरी दिनों में बदहाली और बेबसी में जीने पर मजबूर किया है. उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई के सुरों की गहराईयों और ऊँचाइयों से हर हिन्दुस्तानी वाकिफ है और जिंदगी भर की उनकी मुफलिसी और फाकों से भी कोई ना-वाकिफ नहीं है. इक्कीस अगस्त को उनकी चौथी बरसी पर शायद हम बिस्मिल्ला को याद करें.
सीमा पार भी कलाकारों के बे इन्तहा दर्द का कोई अंत नहीं है. पाकिस्तानी सरकार इतनी भी काबिल नहीं कि अपने बेश कीमती ग़ज़ल फनकार उस्ताद मेहदीं हसन के लिए कुछ लाख रूपये खर्च कर उन्हें फेफड़ों की बीमारी से बचा सके.शायद पाकिस्तान ने अपना सारा धन अमेरिका से गोला बारूद खरीदने में लगा दिया है. आगा खां यूनिवर्सिटी अस्पताल से मेहदीं हसन को सिर्फ इसलिए डिसचार्ज करवाना पड़ा था कि अब उनके कुनबे के पास इलाज के पैसे नहीं बचे थे. लता मंगेशकर ने खां साहब की आवाज को खुदा की आवाज बताया था और उनके इलाज के लिए सारा खर्च उठाने के लिए उन्हें खबर भेजी थी. सच है ... एक कलाकार ही दुसरे कलाकार का दर्द जी सकता है, बशर्ते कलाकार सच्चा हो. जिस गज़ल गायक ने दोनों देशों के लाखों करोड़ों लोगों की जिंदगी में ताउम्र सुर फूंकें उसकी सांस आज पाई पाई को मोहताज है. पता नहीं मेहदीं हसन कैसे पाकिस्तान की उस आबो-हवा में सांस ले रहें है.
हुसैन के साथ भी तकरीबन वही सब हुआ जो दुसरे कलाकारों के साथ हुआ. हिन्दू देवी-देवताओं की विवादस्पद पेंटिंग्स बनाने के कारण हुसैन को एक्सजाइल के लिए मजबूर किया गया. देश में नहीं घुसने देने की धमकियाँ दीं, पेंटिंग्स जलाई गई, एक महान कलाकार के पुतलों को सडकों पर फूंका गया .
हुसैन ने तकरीबन सारी जिन्दगी देश में बिताई. अपनी जिंदगी के 90 साल भारत में गुजारकर सेकड़ों केनवास रंगे और भारत के साथ-साथ दुनिया को भी रंगों के मायने सीखाये. सन 2007 से दुबई और लन्दन में खाक छानी. अब क़तर ने उन्हें अपनी नागरिकता देने का एलान किया है जिसके लिए हुसैन ने कोई गुहार नहीं लगाई थी, ना ही हुसैन किसी और देश की शरण के लिए मोहताज है. एक कलाकार को सांस लेने के लिए किसी देश की नागरिकता की जरुरत नहीं. लेकिन फिर भी उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया है, अगर जिन्दा रहने की यही शर्त है तो यही सही...
अभी कुछ दिनों पहले ही हुसैन ने अपना भारतीय पासपोर्ट भी वापस कर दिया है हालाँकि पासपोर्ट वापस लौटने से पहले हुसैन को यह भी ख्याल करना चाहिए था कि शाहरूख खान और आमिर खान भी हिंदुस्तान में रह रहें है, उन्हें देश में उतना डर नहीं लगा जितना हुसैन को लगा.
खैर, हुसैन को यह हक़ है की वो अपनी बाकी जिन्दगी कहाँ गुजरे. एक कूची और कुछ रंगों के साथ नंगे पैर दुनिया नापने वाला 95  साल का बूढ़ा किसी देश की नागरिकता का मोहताज नहीं है. ना हिंदुस्तान और ना ही क़तर. वो हमारी या आपकी दो कोडी के लिए रंगों से नहीं खेलता है. फिल्मों के पोस्टर और कलाकारों के केनवास सडकों पर फूंककर खुश होने वाले जिस दिन हुसैन की कूची और उसके रंग का अर्थ समझ जायेंगे उस दिन वे खुद को किसी देश की नागरिकता के लायक नहीं समझेंगे. हुसैन तो हवा है जिसे किसी वतन की जरुरत नहीं. रंग ओ कूची वाले यात्री को वतन की जरुरत नहीं

Friday, March 5, 2010

यंहा ख्वाब भी टांगो पर चलते है

बड़ी लम्‍बी-सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पाँव जमीं पर हैं
समन्‍दर छोड़ती है, न समन्‍दर में उतरती है
ये नगरी बम्‍बई की...
जुराबें लम्‍बे-लम्‍बे साह‍िलों की, पिंडलियों तक खींच रक्‍खी है
समन्‍दर खेलता रहता है पैरों से लिपट कर
हमेशा छींकता है, शाम होती है तो 'टाईड' में।

यहीं देखा है साहिल पर
समन्‍दर ओक में भर के
'जोशान्‍दे' की तरह हर रोज पी जाता है सूरज को
बड़ा तन्‍दरुस्‍त रहता है
कभी दुबला नहीं होता!
कभी लगता है ये कोई तिलिस्‍मी-सा जजीरा है
जजीरा बम्‍बई का...

किसी गिरगिट की चमड़ी से बना है आसमाँ इसका
जो वादों की तरह रंगत बदलता है
'कसीनो' में रखे रोले (Roulette) की सूरत चलता रहता है!
कभी इस शहर की गर्दिश नहीं रुकती
बसे 'बियेरिंग' लगे हैं
किसी 'एक्‍सेल' पे रक्‍खा है।

तिलिस्‍मी शहर के मंजर अजब है
अकेले रात को निकलो, सिया साटिन की सड़कों पर
तिलिस्‍मी चेहरे ऊपर जगमगाते 'होर्डिंग' पर झूलते हैं
सितारे झाँकते हैं, नीचे सड़कों पर
वहाँ चढ़ने के जीने ढूँढने पड़ते हैं
पातालों में गुम होकर।

यहाँ जीना भी जादू है...
यहाँ पर ख्‍वाब भी टाँगों पे चलते है
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी में रक्‍खे मूंग के दाने
चटखते है तो जीभें उगने लगती हैं
यहाँ दिल खर्च हो जाते हैं अक्‍सर...कुछ नहीं बचता
सभी चाटे हुए पत्‍तल हवा में उड़ते रहते हैं
समन्‍दर रात को जब आँख बन्‍द करता है, ये नगरी
पहन कर सारे जेवर आसमाँ पर अक्‍स अपना देखा करती है

कभी सिन्‍दबाद भी आया तो होगा इस जजीरे पर
ये आधी पानी और आधी जमीं पर जिन्‍दा मछली
देखकर हैराँ हुआ होगा!! - गुलज़ार