Monday, July 25, 2016

मैं अब वहीं हूँ

मैं अब वहीं हूँ
उसकी आँख के एक छोर पर

पहाड़ों पर फिरकती
पवनचक्कियों में

चलती हुई
लेकिन कहीं नहीं पहुँचती हुई

उसके होंठ के किनारों में हूँ
सूखते नहीं, जो भीगते भी नहीं

मैं वहां नहीं हूँ, यहाँ भी नहीं
कहीं भी नहीं

अपनी आत्मा की तरह
जिंदा भी नहीं, मृत भी नहीं

बगैर दीवारों के मकान
जिनके दरवाजें नहीं, दस्तकें भी नहीं

उन रास्तों में हूँ
चलते नहीं, जो ठहरते भी नहीं

सड़क के पीले और सफ़ेद लेम्पोस्ट की तरह
जिनकी रोशनियों से कुछ छटता नहीं

पतंगे छटपटा कर मर जाते हैं जहाँ
ऐसे चौराहों को हासिल जहाँ कुछ भी नहीं

मैं वहीं कटूंगा धीरे- धीरे
जहाँ छोड़ा था तुमने
जिसे तुम पहला या अंतिम सिरा कहती थी
वहीं अपने घावों को देखूंगा
सुख में बदल जाने तक

मुझे मनाने की कोशिश मत करना
मैं सीख गया हूँ अब
नहीं लिखना - कुछ भी नहीं लिखना

अब मैं सिर्फ देखूंगा
अपना जीना, अपना मरना।