Sunday, August 30, 2009

दिल्ली


अभी भी मैने सम्भाल कर रखी है
तुम्हारी वो दिल्ली वाली चीज़े

वो दिन की तन्हाई
रात का घोर सन्नाटा
वो शाम का अकेला-पन

अभी भी मैने अपने कमरे में रख रखी है
वो सुबह- सुबह की दिल्ली की सड़क
हजारो ख्वाईशे लिए जिस पर
तुम चली जा रही थी
अपने आप में खोई
मुझसे जुदा
बिल्कुल जुदा

लेकिन मै कहीं ओर था
अपने अंदर तो नही
शायद तुम्हारे अंदर
तुम्हारे भीतर कहीं

वो बस की सीट अभी भी मेरी आँखों में रखी है
जिस पर बैठकर तुम मेरे उपर झुक गई थी
और मुझे गुमाँ हो गया था
तुम्हारा मेरे साथ होने का

वो निगाहें भी मेरे पास ही है
खिड़की से बाहर झांकती
बाज़ार की भीड़ को चीरती
दूर कहीं निकल गई थी
किसी असत्य
कल्पना से परे
जीवन सौंदर्य पर टिक गई होगी

शायद मैं ... ?

चाँदनी चौक की तुम्हारी थकान
अभी भी मेरे बिस्तर पर आराम करती है

वो स्टेशन अभी भी मेरी डायरी में कहीं लिखा हुआ पड़ा है
जहाँ उतरकर तुम
एक मुखौटा बन गई थी
हजारों मुखौटों में खो गई थी .

लेकिन पानी का वो टुकड़ा मेरे पास नही है

जो दिल्ली से वापस आते वक्त
मुझसे दूर जाते वक्त
तुमने मुझे दिया था
अपनी आँखों में रखने के लिए

वो टुकड़ा ट्रेन में कहीं गिर गया है
अब तक किसी मुसाफ़िर ने
अपनी ज़ुबान से छूकर
उठा लिया होगा उसे

एक बार फिर अपनी आँखों से गिराने के लिए .

मैं खुदा का बंदा नही


मैं खुदा का बंदा नही

एक अदद कीड़ा हूँ
इंसानी जिस्म में.

हर शाम पिघल कर
रिस जाता हूँ सड़कों पर.

चिपक जाता हूँ
कई जूतों और चप्पलों में.

कुचल दिया जाता हूँ
तितलियों से प्रेम करने के पाप में
बागों में विचरण के अपराध में.

मैं खुदा का बंदा नहीं

पतंग हूँ अटकी हुई
कई बार उतार ली जाती हूँ
या बाँट ली जाती हूँ
लुटे हुए खजाने की तरह.

मैं रस्सी हूँ
कपड़े सुखाने की
टूटे रिश्तों की तरह
जिसे सिर्फ बँधे रहना हैं
कपड़ों की तरह रखी नही जाती अलमारियों में.

मैं खुदा का बंदा नहीं

पक्षी हूँ
बिजली के तारों पर बैठा
कभी तुम पर
तो कभी तुम पर
ठहर जाता हूँ.

मैं जानता हूँ फर्क
कीड़े, पतंग्, रस्सियों
और तितलियों के बीच का
फर्क प्रेम और घृणा के बीच का.

मगर यूँ ही कभी-कभी
गुस्ताखी कर जाता हूँ
जिंदगीयो तुमसे.

होली



हम हँसते है
दौड़ लगाते है सड़कों पर
अपने चेहरों पर हजारों रंग लगाए .

थक जाते है , हांफ जाते है
लेकिन पीछा करते रहते है
दूसरों के चहरो को रंगने के लिए

कितना खुश है हम
कि जीवन के कितने रंग लगा लिए है
अपने चहरो पर हमने .

हम हंसते रहते है अपना पेट पकड़ कर .

लगातार रंगो से खेलते हुए
हम उत्सव मनाते है
मानो अपने मुखौटे उतारकर
फैक दिए हो हमने कहीं .

कुछ देर ही सही
पर हम अपने अंदर आ जाते है .
हम स्वयं हो जाते है .

लेकिन हमे अखरता है
हमारा अपना होना
डरते है हम अपने ही रंगो से
और घीस - घीस कर साबुन से
बहा देते है नालियो मै
हम अपने ही चेहरो को
और स्वयं को
पहन लेते है
वही भावशुन्य मुखौटा

जिसका अपना कोई रंग नही .

हिटलर ने कहा था


भारत को भारत की चुनौती

26/11 के मुंबई पर फि‍दायीन हमले के बाद मुझे कुछ दोस्‍तों या यूँ कहे कि कुछ जान पहचान के लोग मिले तो मिलते ही उन्‍होंने कहा '' भोत बम फुड़वा र‍िये हो आजकल '' उनके कहने का अर्थ था कि मुंबई में बम विस्‍फोट मैंने करवाए। उन्‍हें य‍ह नहीं पता कि यह बम विस्‍फोट नहीं हमला है। मुंबई पर एक सीधा हमला भारत को चुनौती। इसी तर्ज पर कुछ और लोगो के फोन मेरे पास आए, उनका पहला वाक्‍य भी य‍ही था '' क्‍यों भिया भोत विस्‍फोट करवा रिये हो बम्‍बई में '' ये हमारे देश के आम नागर‍िकों के मुंबई हमले पर व्‍यंग्‍य थे या कहें कि प्रतिक्रियाएँ थीं।

जिन लोगों की बात मैं कर रहा हूँ वे मामुली से अखबारी लोग या पत्रकार है लेकिन आम नागरिकों के तौर पर उन्‍हें देखा जाए तो वे बहुत ताकतवर हैं। जनता बहुत ताकतवर होती है। जनता ही ताकत होती है। जब लाखों-करोड़ों अलग-अलग व्‍यवसाय या क्षेत्र से जुड़े लोगों का विचार बिन्‍दू एक ही हो जाए या सभी का विचार एक ही बिन्‍दू पर केंद्रि‍त हो जाए तो वे पत्रकार, डॉक्‍टर और अध्‍यापक नहीं रह जाते वे जनता हो जाते हैं लेकिन जनता में से जब कुछ लोग देश पर इस तरह के हमले के बाद ऐसी प्रतिक्रियाएँ दें तो सोच लीजि‍ए कि हमें किस 'विचार' की जरूरत है।

भारत को पाकिस्‍तान की चुनौतियाँ

कांधार अपहरण
24 दिसबर 1999 में भारत के इंडियन एयर लाइंस-814 विमान का अपहरण कर लिया गया, जो नेपाल के काठमान्‍डू के त्रि‍भुवन अंतरराष्‍ट्रीय हावई अड्डे से उड़कर दिल्‍ली जाने वाला था, विमान में 180 लोग सवार थे। विमान के सभी 180 यात्रियों को बंधक बनाकर अफगानिस्‍तान ले जाया गया और उन्‍हें छोड़ने के लिए फिरौती और भारत में बंद 180 आतंकवादियों को छुड़वाने की माँग की गई। भारत को अपहरणकर्ताओं की माँगें मानना पड़ी और तीन कट्टर मुस्लिम आतंकवादि‍यों को छोड़ना पड़ा। भारतीय विदेश जसवंत सिंह स्‍वयं कांधार गए और मौलाना मसूद अजहर, मुश्‍ताक अहमद जारगर और अहमद उमर सईद शेख को सौंप कर आए।

संसद पर हमला
13 दिसंबर 2001 में दिल्‍ली में भारत की संसद पर आतंकियों ने हमला किया। हमले के 40 मिनट पहले ही लोकसभा और राज्‍यसभा की कार्यवाही स्‍थगित कर दी गई थी। माना जाता है कि तात्‍कालिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी और विपक्ष की नेता सोनिया गाँधी हमले के कुछ देर पहले ही संसद से निकले थे, जबकि लालकृण आडवाणी और कई नेता हमले के समय संसद में ही थे।

इन दो उल्‍लेखनीय हमलो के अलावा कई बार भारत को पाकिस्‍तान के विरुध्‍द प्रमाण मिले। भारत ने पाकिस्‍तान से जवाब तलब किया। पाकिस्‍तान ने हमेशा ही की तरह अपहरण, बम धमाकों, आतंकी हमलों में अपना हाथ न होने का राग आलापा, पुख्‍ता प्रमाण पेश करने की माँग की और अपना पल्‍ला झाड़कर बच निकला। बावजूद इन सब के भारत की भुमिका उल्‍लेखनीय नहीं रही। बस सेवाएँ, रेल सेवाएँ बंद की गई फ‍िर शांति प्रक्रिया के तहत इन सेवाओं को बहाल किया गया। नए और मजबुत संबंधों की चिल-पुकार में कई निरर्थक प्रयास किए गए और इसी शांति प्रक्रिया के दौरान भारत के दिल्‍ली, मुंबई, बैंगलोर, अहमदाबाद, सुरत, जयपुर, वाराणसी जैसे शहरों पर हमले बदस्‍तूर जारी रहे।

भारत: बहस का एक अदद मंच
भारतीय अखबार और समाचार चैनल्‍स भारत-पाक संबंधों पर बहस, आतंकवाद पर बहस और भष्‍ट्राचार पर बहस से पटे पड़े हैं। बहस का कोई अंत नहीं और नाहीं कोई पर‍िणाम निकलता है, लेकिन पत्रकारों, बुध्‍दीजीवि‍यों और सा‍ह‍ित्‍यकारों ने मि‍लकर इस देश को बहस का एक अदद मंच बनाकर रख दिया है। वर्तमान स्‍थति में भारत एक Debating Society बन गया है। भारत एक (sovereign country) स्‍वतंत्र देश है। इसकी सम्‍प्रभुता पर कई बार हमला हुआ है। यह एक सीधी चुनौती है अगर बहस करने वाला समाज इसे चुनौती माने तो। नहीं तो सीधी सी बात है कि पाकिस्‍तान पर हमला नहीं करे तो कम से कम भारत अपना बचाव तो कर ही सकता है।

सोचना यह है कि भारत अपना बचाव कि‍स रूप में करे। बचाव कर के बचाव करे या हमला कर के बचाव करे। '' ह‍िटलर ने कहा था आक्रमण ही बचाव है ''

Tuesday, August 18, 2009

एब्‍सट्रैक्‍ट कमीने



मुंबई की पटरियों पर सरपट दौड़ती लोकल और बेक ग्राउंड में एक नए किस्म का और कभी कभी जेम्स्बोंड की याद दिलाता म्यूजिक । रेसकोर्स की रेस में भागते घोडों की सी तेज गति की तरह यहाँ से वहाँ लहराते कैमरों ने फ़िल्म को एक अलग ही मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है । एक से दुसरे में तब्दील होता सीन इतनी गति लिए होता है की दर्शक बिना पलक झपकाए फ़िल्म देखने को मजबूर हो जाता है। हर सीन इतना कसा हुआ की तमाशबीन पिछला सीन भूल कर आंखों के सामने चलने वाले सीन पर सिमट जाए। चार्ली जब स्क्रीन पर हो तो हम गुड्डू को भूल जाते है और जब गुड्डू दिखाई दे तो चार्ली याद नही आता है, जब स्वीटी दिखती है तो मुंबई की सडकों और लोकल में घुमती वहां की हर उन्मुक्त लड़की बरबस ही याद आ जाती है।

विशाल भारद्वाज कुछ कुछ ही नही बिल्कुल बदले हुए नजर आते है। विशाल ने कमीने में अपने ही पेटर्न को तोडा है। दर्शक फ़िल्म नही मानों ढाई घंटे चलने वाला कोई "मूविंग एब्‍सट्रैक्‍ट आर्ट" देख रहा हो।

मकबूल, ओमकारा और ब्लू अम्ब्रेला देखकर कभी हैरत नहीं होती क्योंकि सभी यह बखूबी जानते है की शेक्सपियर के नाटकों पर विशाल ही इस तरह का बेहतरीन सिनेमा रच सकते है। उनकी फिल्मो में दर्शक आंखों में और चहरे पर उदासी लेकर बाहर निकलता है जिसे हम "सो कॉल्ड ट्रेजेडी" कहते है जिसमे विशाल माहिर भी है।

ओथेलो का देसी चरित्र ओमकारा अपनी पत्नी पर अविश्वास और मानविय स्वार्थपूर्ण षडयंत्र में फंसकर मृत्यु को गले लगा लेता है। मकबूल का मेकबेथ भी अपने लिए मौत ही चुनता है। दर्शक को यह पता नही होता है कि मकबूल और ओमी शुक्ला उनका नायक है या खलनायक है फ़िर भी उनकी मौत का बोझ अपने कंधो पर लेकर सिनेमा हॉल से बाहर निकलता है।

मकडी और ब्लू अम्ब्रेला को छोड़ दें तो विशाल को शेक्सपियर के नाटकों में दखल देने वाला डायरेक्टर ही माना जाता रहा है और वही दखल अंदाजी उनका अपना पेटर्न बन गई इसलिए विशाल के मुरीदों को यही इंतज़ार था कि अब "डेनमार्क का प्रिन्स हेमलेट" देखने को मिलेगा, गोया कि शेक्सपियर जैसे महान नाटककार की रचनाओं में दखल देना गुस्ताखी है लेकिन फ़िर भी मकबूल और ओमकारा सराहनीय है और इन खुबसूरत रचनाओं को माफ़ किया जा सकता है। बहरहाल हैरत होती है जब विशालनुमा शेक्सपियर सिनेमा से बाहर निकल कर कमीने जैसी बेहतरीन एब्‍सट्रैक्‍ट बनाते है।

स्वयं की अवधारणा तोड़ कर नए पेटर्न का सिनेमा दिखाना या बनाना इम्पोस्सिब्ल नहीं तो मुश्किल तो है ही। कमीने विशाल की शैली नहीं है फ़िर भी विशाल ने ही बनाई है इस बात की खुशी होती है। कम से कम विशाल अपने दर्शकों पर भरोसा तो करते ही है इसीलिए कमीने में उन्होंने एक कदम आगे बढ़ा कर सिनेमा के बेहतरीन अनछुए हिस्सों को छुआ है ।

चार्ली सपने बुनता है और रेसकोर्स के घोडे की सी तेज़ गति से भाग कर उन्हें साकार कराने की कोशिश करता है, वह फौर्टकट से भी छोटे फौर्टकट में यकीन करता है जबकि गुड्डू कुत्ती दुनिया के कमीनेपन का शिकार होता रहता है, बहरहाल तमाशे तो बहुत होते है फिल्म कभी कभी बनती है।

Thursday, August 13, 2009

अनंत प्रकाश की ओर

सुबह - सुबह सड़क पर
जब धूल की तरह उड़ती है यादें
तो मन कहता है कि चले आओ .

शाम को जब अपने घर की
खिड़कियों से देखता हूँ
चिड़ियों को चह - चहाते
तो मन कहता है कि चले आओ .

रात को सोने से पहले
सुनता हूँ जब खामोशी के सन्नाटे
तो मन कहता है कि चले आओ .

चले आओ क्योंकि
मै जीवन के उस अंधेरे घर मै खड़ा हूँ
जहाँ से तुम्हारे पास नही आ सकता
ना तुम मुझे देख सकती हो
ना ही मै तुम्हे दिखाई देता हूँ
तुम मुझे सिर्फ मह्सुस कर सकती हो
क्योंकि मै सिर्फ एक अह्सास हूँ
और खड़ा हूँ अभी भी उस अंधेरे घर मै
इस उम्मीद मै कि कहीं से तुम आओगी
और मुझे अपने साथ ले जाओगी
उस अनंत प्रकाश की और
जहाँ सिर्फ तुम मुझे दिखाई देती हो
और सिर्फ मै तुम्हे दिखाई दे सकूँगा.

कभी - कभी देखता हूँ जब
उस अनंत प्रकाश की किरणों को लह - लहाते
तो मन कहता है कि चले आओ

जहाँ कहीं भी हो चले आओ .

Tuesday, August 4, 2009

आदमी


मै रोज इस कुएँ मै झांकता
पानी पर अपनी परछाई देखता
आवाज भी लगाता हूँ
कि कोई सदा लौटकर आएगी
और मुझे अपना पता बताएगी

मगर सड़क पर
दौड़ती , हांफती
इन मशीनो ने
मुझे बहरा बना दिया
और अंधा भी.

बादलों की उंचाईया नापती
इन इमारतों ने मुझे छोटा कर दिया
इतना छोटा
कि बच्चों के लिए
पेड़ से आम नही तोड़ सकता
ना ही अपनी माँ के लिए तोड़ पाता हूँ बिलपत्र.

वो कोई और ही होगा
जिसने अपनी प्रेमिका के लिए तोड़े होंगे तारे.

इंद्रधनुश से रंग चुरा कर
बहन को दिए होंगे
आंगन मै रंगोली बनाने के लिए.

वो कोई और ही होगा
जिसने सुरज मै से
रोशनी की मुट्ठी भर कर
बीवी की मांग भर दी होगी .

आदमी ... ?

नही... नही...
आदमी तो हरगिज नही

मै तो रोज इस कुएँ मै झांकता
पानी पर अपनी परछाई देखता
आवाज भी लगाता हूँ
कि कोई सदा लौटकर आएगी
और मुझे अपना पता बताएगी