Tuesday, December 15, 2009

क्या आपको गुस्सा आयेगा ?

इंदौर में बीरजू नाम के गुंडे ने अरमान नाम के एक बच्चे की कनपटी पर गोली मारकर ह्त्या कर दी। बच्चे की उम्र महज एक साल थी। कहने का अर्थ यह नहीं की एक खूंखार बदमाश ने छोटे बच्चे की ह्त्या कर दी - मुद्दा तो यह है की उस गुंडे ने सेंकडों लोगों के सामने दिन-दहाड़े एक ह्त्या कर दी। ह्त्या करने से पहले उसने यह कहा की आज मेरी किसी का मर्डर करने की इच्छा हो रही है। यह कह कर उसने अपनी पिस्तोल निकाली ओर बच्चे को मौत के घाट उतार दिया।

दुसरे दिन सुबह के तकरीबन सारे अखबारों ने इस घटना को फ्रोंत पेज की हेडिंग बनाया। किसी ने कहा - मासूम को गोली मारी , किसी ने कहा - मासूम की ह्त्या, घर का चिराग बुझा, तो किसी ने कहा- बच्चे की हत्या माँ की गोद सुनी हुई आदि आदि ।

शहर के जिस छेत्र में यह घटना घटी वंहा के लोगो ने तोड़-फोड़ की ओर थाने का घेराव भी किया। इस घटना पर लोगो का त्वरित गुस्सा जायज़ भी था। चलो ... अखबारों की परम्परागत प्रतिक्रियाए भी हजम कर सकते है। असल में हैरत इस बात पर होती है की लोग, मिडिया ओर शहर के बाकी तबकों ने इस घटना को सनसनीखेज तरीके से देखा ओर इसे दिल दहला देने वाली घटना के रूप में ग्रहण किया। जिसका परिणाम भी यही हुआ की भीड़ उग्र हो गई - ओर फिर शांत भी हो गई। वन्ही अख़बार भी भावुक हुए ओर अगले दिन चुपके से चुनाव की खबरों से चिपक गए।

लोगों ओर मिडिया की मनोस्थाती का थोड़ा सा भी जायजा लें तो पता चलता है की लोगों ओर मिडिया का सारा फोकस मासूम बच्चे की ह्त्या पर था ना की ह्त्या पर। जिस तरह से भीड़ ओर मिडिया की प्रतिक्रियाए थी उस लिहाज से मासूम बच्चे की ह्त्या करने वाले को तुरंत फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए या उसका एन्कौनतर कर दिया जाना चाहिए - लेकिन इसका दूसरा अर्थ यह भी है की किसी अधिक उम्र याने किसी जवान, अधेड़ या किसी बुजुर्ग की ह्त्या करने वाले हत्यारे को माफ़ कर दिया जाना चाहिए - क्योंकि इस तरह की हत्याए तो रोज होती है जिससे कोई भीड़ उग्र नहीं होती और ना ही कोई अख़बार उसे खबर से ज्यादा कुछ बनता है।

दरअसल हमें ऐसी ही किसी सनसनीखेज घटना का इंतज़ार था क्योंकि शहर में होने वाली अन्य हत्याओं की तो हमें आदत हो गई है। जबकि आज से दस या पंद्रह साल पहले हुई किसी ह्त्या और इस मासूम बच्चे की ह्त्या के सनसनीखेज होने में कोई अंतर नहीं है - अंतर सिर्फ इतना है की हमारी सहनशक्ति बढ़ गई है और संवेदना घटती जा रही है - अपराधी सभी की हत्याए करता चला आ रहा हिया, वो जवानों की, अधेड़ों की, बुजुर्गों की, महिलाओं की, लड़कियों की और बच्चों सभी की हत्या कर रहा है।

जब तक कोई दिल दहला देने वाली घटना नहीं घटेगी हमें गुस्सा नहीं आयेगा, हमें हमारी चोपट होती कानून व्यवस्था पर कभी गुस्सा नहीं आता, अपराधियों को खुले सड़क पर घुमते देख कर गुस्सा नहीं आता, गुंडे जब चुनाव लड़ते है तो भी हमें गुस्सा नहीं आता ओर न ही उन्हें वोट देने में शर्म आती है।

इंदौर को इतरा-इतराकर मुंबई कहने वालों ने शहर में तीन-तीन एसपी तैनात करवा दिए लेकिन इन्होने भी अपने हाथ खड़े कर दिए। एक एसएसपी का कहना है कि इस शहर में किसी को किसी का खौफ नहीं रहा।

मैं जानता हूँ मेरे लिखने से कोई बदलाव नहीं आने वाला क्रांति तो हरगिज़ ही नहीं। मै तो सिर्फ यह याद दिलाना चाहता हु कि किसी चौराहे के मुहाने पर लटके चार बाय छः के फ्लेक्स मे जो तस्वीरे आप दिन-रात आते-जाते देखते है, जिन्हें आप वोट भी देते है उनमे से कोई तस्वीर किसी दिन आपके अरमान कि ह्त्या कर सकती है। क्या आपको गुस्सा आयेगा ?