Sunday, July 4, 2010

धुंध

निर्मल वर्मा ... इस शब्द के बारे में सोचते ही एक धुंध सी छा जाती है ... प्राग और वहाँ गिरती सफ़ेद बर्फ आँखों के सामने तैरने लगती है... एक साथ हज़ारों लोग सड़कों के किनारों पर, बार में, क्लबों में ... और यहाँ- वहाँ बीयर पीते दिखाई देते हैं... मैं खुद को शेरी...कोन्याक और स्लिबो वित्से के कोकटेल के नशे में चूर पता हूँ ...

निर्मल वर्मा... इस नाम का कोई आदमी अब मौजूद नहीं है ... बस एक नशा है ज़हन में और डबडबाती आँखों के सामने ओस कि तैरती हुई सेकड़ों गलियां ... गलियों में सिगरेट का बेपनाह ... बेतरतीब... आवारा धुआं ...

निर्मल  वर्मा इस नाम का आदमी पहले भी कहीं मौजूद नहीं था... जो कुछ था वो एक धुंध थी... जो अब तक फैली हुई है किताबों की तहों में ... पेज दर पेज... रात के गर्भ और उसके अंतहीन अँधेरे में ... किताबों से सटे हुए शब्द और मेरी सांस के बीच कि ख़ामोशी में ...