Sunday, November 12, 2006

पहाड़गंज

अपनी दिल्ली छोड़कर
मेरी सुरंगों में चले आते हो
पहाड़गंज तुम। 

मैं इन रातों में
आँखों से सुनता हूँ तुम्हे
मरे हुए आदमी की तरह।  

ट्रेनें चीखती हैं तुम्हारी हंसी में
मैं अपनी नींद में जागता हूँ।

मेरे सपनों में तुम उतने ही बड़े हो
जितने बड़े ये पहाड़ हमारे दुखों के। 

मैं देखता हूँ
तुम्हारी कमर की लापरवाहियां
और उस शहर के रास्ते
जिसके पानी पर चलते - चलते
थक गए थे हम।

मैं एक सांस खींच लेता हूँ तुम्हारी
जीने के लिए।

कमरें सूंघता हूँ होटल के
उस गली में
धुआं पीता हूँ तुम्हारे सीने से

मैं भूलना चाहता हूँ 
तुम्हारी दिल्ली और अपना पहाड़गंज 
जिसके नवंबर में 
तुम्हारे होठों की चिपचिपी आग से 
सिगरेट जला ली थी मैंने।
तुम धूप ठंडी करते थे मेरी आँखों में 
मैं गुलमोहर के फूल उगाता था तुम्हारे हाथों में। 


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