Saturday, July 24, 2010

नगर में जहरीली छी: थू है

टीप टॉप चौराहें, चमकीले मॉल्स और मेट्रो कल्चर्ड मल्टीप्लेक्स. कोई शक नहीं कि इंदौर विकास या ज्योग्राफिकल बदलाव (विकास या बदलाव पता नहीं ) की तरफ बढ़ रहा है, जो भी हो इसे विकास कि सही परिभाषा तो नहीं कह सकते. यह सच है कि तस्वीर बदल रही है. इस तस्वीर को देखकर शहर का हर आम और खास गदगद नज़र आता है. शहर के आसपास की ग्रामीण बसाहट भी इस चमक से खुश होकर इस तरफ खिंची चली आ रही है. ये ग्रामीण तबका शहर का इतना दीवाना है कि गाँव में अपनी खेतीबाड़ी छोड़कर यहाँ मोबाइल रिचार्ज करवाकर मॉल्स और मल्टीप्लेक्स में शहरी मछलियों के बीच गोता लगा रहे हैं. माफ़ कीजिये अब ये गाँव वाले भी भोलेभाले नहीं रहे.

अगर शहर विकास के मुहाने पर खड़ा है तो,  इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि  जगह- जगह खुदी सड़कें, बेतरतीब  व बेहाल यातायात और तकरीबन रोज होती चोरी व हत्याएं प्रशासन की चोरबाजारी, लापरवाही व शहर की बदहाली की कहानी कह रहा है. बात- बात पर शहर को मिनी बॉम्बे कहकर जुगाली करने वाले इन्दोरियों को पता नहीं है कि मुंबई कि भीड़ किस रहस्यमय तरीके से अपने आप में नियंत्रित है. इंदौर के लोग सिविलियन एथिक्स भूलते जा रहें हैं या ये एथिक्स कभी हमने सीखे ही नहीं. वक़त बे वक़त सड़कों पर उतरकर अपने अधिकारों का वास्ता देकर मांगें करने वाले नागरिक सड़क पर चलते समय अपने सारे फ़र्ज़ भूल जाते हैं. आजकल यातायात का हाल देखते ही बनता है, सारे कायदे भूलकर जिसे जहाँ जगह मिलती है घुस जाता है. नौजवानों ने शहर को कत्बाजी और पायलेटिंग का अखाडा समझ रखा है. ऐसे में पैदल चलने वाला हर वक़्त अपनी जान हथेली पर लेकर चलता है, इंदौर कि सड़कों पर चलने वालों को ही बाज़ीगर कहते है. इन पैदल बाज़ीगरों कि बात करें तो यह सड़कों पर ऐसे चलते हैं जैसे अपने स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए सुबह की चहलकदमी कर रहे हो. सुबह की सो कॉल्ड मोर्निंग वॉक की तरह.

यातायात को सँवारने के लिए सफ़ेद वर्दी में तैनात जवान कभी किसी ऑटो वाले से तम्बाखू गुटखा खाते नज़र आता है तो कभी सुस्ताते हुए.  वो आसपास फैले वाहनों के जाल को ऐसे निहारता है जैसे यह जाल ईश्वर की बुनी हुई कोई अद्भुत रचना है और वह इसके सौंदर्यबोध से अभिभूत होकर इसका आनंद ले रहा है.

दिन भर भान्ग्वाले भोलेनाथियों, चर्सिराम और गंज़नातों की अपने-अपने ठिकानों पर मौज रहती है, शाम होते ही मदीरापान वालों की रात पाली शुरू हो जाती है. वास्तव में ये धर्म को ना जानने वाले धार्मिक लोग होते हैं. हाथों में ढेर सारे डोरे लच्छे और गले में ताबीज पेंडल इनकी खास पहचान होती है. ये नवरात्री और गणेशोत्सव के दौरान ज्यादा सक्रिय दिखाई देते हैं. सबसे पहले ये नहा धोकर खजराना मंदिर या कभी कभी देवास चामुंडा माता देवी के आशीर्वाद लेने जाते हैं. तब तक गली- चौराहों के अंडे ठेले वाले इनके लिए अहाते और जाजम की व्यवस्था कर देते हैं. इनके आते ही ठेले वाले इनके लिए ओम्लेट, बेन्जो  और डिस्पोसल मुहैया करवाते है, जाहिर है ये अपने ग्राहक को किसी तरह कि परेशानी नहीं होने देना चाहते हैं. जिससे इनके अंडे बिकते रहे और धंधा भी चलता रहे. दो - दो डिस्पोसल के बाद इनका माल तेज़ हो जाता है और ये ऑफिस व स्कूल- कॉलेज से थकी भागी घर लौटती लड़कियों और महिलाओं के शरीर संरचना और सौंदर्य की मदीरात्मक व्याख्या करते हैं.

शहर में रात के वक़्त क्लिनिक और मेडिकल खोजने में कभी दिक्कत आ सकती है पर कलाली का लाल-हरा रंग कहीं भी आसानी से देखा जा सकता है  (यहाँ बैठने की उचित व्यवस्था है ) यहाँ अन्दर बैठकर पीने की उचित व्यवस्था के बाद भी देश का अधिकांश भविष्य सड़क किनारे खुले में मज़े लेता है. कुछ कारबाज़ लडके  ( सिर्फ मारुती वाले ) कर के प्रवेश द्वार खोलकर जस्सी के गाने सब को सुनाते हुए तर होते हैं.

प्राचीन इंदौर की जिस देवी या माता का नाम (यहाँ देवी का नाम नहीं लिखना चाहता हूँ ) लेकर इंदौरवासी शहर के इतिहास का बखान करते हैं, उन्हें शहर को एक बार फिर से ओब्सर्व करना होगा. इंदौर के कलचर का यह हिस्सा रूटीन किस्सा है. ला एंड ऑर्डर बिगाड़ने के बाद भी शहर में रहने कि उची व्यवस्था है.

रात को नशेडी लडकें चाक़ूबाज़ी के करतब दिखाकर कई लोगों को घायल कर देते हैं,  तो कभी दिन दहाड़े घर में घुसकर उचक्के घर लुट जाते हैं. महिलाओं के गले से चैन व मंगलसूत्र झपट लिए जाते है. कभी छोटी बच्चियों को हवस का शिकार बना लिया जाता है. माल्स और मल्टीप्लेक्स विकास कि सही परिभाषा नहीं है. इंदौर को मिनी बाम्बे कहने से इसकी प्रकृति नहीं बदल जाएगी. जुगाली बहुत हो गई, अब सच बोलो भिया. नगर में जहरीली छी: थू है और सिस्टम का एक पूरा की पूरा हिस्सा ओपेरा देख रहा है.