Saturday, October 3, 2015

आँगना तो पर्बत भयो, देहरी भयी बिदेस

... हर शाम को ठुमरी की, धीरे- धीरे, टूटी हुई धुन बहती है. बाबुल मोरा नैहरवा छूटा ही जाए. हर शाम को एक जर्जर आवाज में इस ठुमरी के टूटे लफ्ज कान में आ गिरते थे ... जैसे कोई गुनगुनाते- गुनगुनाते हुए अपना सामान समेट रहा हो। जैसे कहीं जाने के लिए कोई सूटकेस में अपने कपड़ें जमा रहा हो, जाने की तैयारी कर रहा हो। फिर एक दिन तीसरी मंज़िल के उस कमरे का वह कौना खाली हो जाता है. कुर्सी खाली हो जाती है, दरअसल जगह सूनी हो जाती है। जिस जगह से शंकरगढ़ के पहाड़ नजर आते थे, जहां से पहाड़ पर खड़ी पवनचक्कियां हवा के साथ बहती थीं, और हम कई बार खाली दोपहरों में पवनचक्कियों और पहाड़ों की बातें किया करते थे। हम सब की आँखें खिड़कियों से बाहर अक्सर उतनी ही दूर होती थी। खिड़कियां दिन ब दिन माफियाओं की कुल्हाड़ी से कटकर और घटकर छोटे होते पहाड़ों को देखती थीं, उनके साथ बातें किया करती थीं। उन खिड़कियों से शहर का वो सालों पुराना बड़ा स्तंभ भी नजर आता था। जिसका दरवाजा कभी बंद नहीं होता। पूरे शहर के लोग उस दरवाजे के आर-पार जा सकते थे. सड़क से गुजरते दूसरे शहरों के लोग उसकी ऊंचाई नापते रहते थे, उसकी उम्र की टोह लेते थे। उस दरवाजे से पूरे शहर के लोग आना-जाना
करते थे। जाते थे, फिर वापस आ जाते थे, लेकिन रविंद्रजी उस दरवाजे से नहीं गए। वो एक ऐसे दरवाजे में दाखिल हो गए जो अंदर से, उस तरफ से बंद हो जाता है। वे अब पूरे शहर के लोगों की तरह आना-जाना नहीं कर सकते। कोई उन्हें आते-जाते नहीं देख सकता। पता नहीं कौनसी अज्ञात, अनंत यात्रा, कौनसा ठोर है, गोल घूमकर वापस आते हैं या सीधे निकल जाते हैं। वे एक दिन अचंभित कर के चले गए. जैसे हर बार, कई बार मैं उनकी जानकारियों और चिंतन से अचंभित होता रहा। उन्होंने ही बताया था, " बाबूल मोरा नैहरवा छूटा ही जाए "  लखनऊ के दसवें और आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने लिखा था। यह भी उनसे ही सुना था कि किस तरह म्यूजिक, डांस और आर्किटेक्चर के लिए वो आखिरी बादशाह हमेशा अपना सर धुनता रहा. उन्होंने बताया कि किस तरह वाजिद अली ने एक परीखाना बनाया, जहां सैकड़ों खूबसूरत लड़कियां डांस और म्यूजिक सीखती थीं. बहुत खूबसूरती और ग्रेसफुली रविंद्रजी बताते थे कि इन लड़कियों को फेयरी यानि परी कहा जाता था। उन्होंने ही बताया था कि लखनऊ से अपने निर्वासन काल के दौरान इस बादशाह ने यह भेरवी ठुमरी बाबूल मोरा नैहरवा लिखी थी। अब तक यह ठुमरी मैने सिर्फ पं. भीमसेन जोशी की आवाज में सुनी थी। बाद में पता चला स्ट्रीट सिंगर फिल्म में कुंदनलाल सहगल ने भी गाई थी, इसके बाद कई और शास्त्रीय मूर्धन्य गायकों ने इसे गाया। वे कई बार शाम को या रात को आॅफिस के बाद अपनी लड़खड़ाती आवाज में राजनीति, धर्म-कर्म, देश, सिस्टम और राजनीति के बड़े लोगों के बारे में अचंभित करने वाले किस्से भी सुनाते थे। किसी शाम संजय गांधी, तो कभी उनके प्रिय चंद्रशेखर ( आज़ाद नहीं ) कुछ किस्सों का जिक्र यहाँ मुफीद नही। वो अपने भीतर शहर भी इकट्ठा करते रहे। उन्होंने अपने अंदर से अपने बलिया, पटना और कलकत्ता को मरने नहीं दिया- इंदौर को वो अपने भीतर लेकर चले। वो अपने पिता के लिए आठ साल की उम्र के बाद बड़े नहीं हुए। जब वो खुद गए तो उनका बेटा भी आठ साल का ही था। मैं फिर अचंभित हूँ, उनके लिए जैसे कोई फिक्स सेड्यूल हो।
नईदुनिया के आॅफिस से बाहर की तरफ पहाड़ों को ताकती उन खिड़कियों के पास तकरीबन हर शाम को रविंद्रजी की जर्जर आवाज में यह ठुमरी एक सिलसिला हो गई थी। हो सकता है इंदौर में वेंटिलेटर पर भी उन्होंने गुनगुनाने की कोशिश की हो। 13 मई 2015 को यह सिलसिला टूट गया। इसी दिन नईदुनिया से मेरी भी रवानगी हो गई। हलक में कुछ अटका सा रह गया। जो अब तक हैं, अटका हुआ। ऐसा लगता है कुछ पूरा होना चाहिए था। पूरा नहीं तो थोडा- बहुत इसके आसपास ही सही। सुबह पाँच बजे नागपुर के एमएलए होस्टल में अकेले रोने का सुख भी आपके कारण भोगा। मुझे ख़ुशी हुई की मैं इस उम्र में भी रो सकता हूँ। उनके आॅफिस में बैठने की कुर्सी और जगह मेरे जहन में है। उन्होंने मुझे खुद को मरा हुआ देखने का मौका भी नहीं दिया। वाजिद अली शाह ने यह ठुमरी लखनऊ से अपने निर्वासन के दौरान लिखी थी और रविंद्रजी इसे अपने निर्वासन के कुछ दिन पूर्व तक गाते- गुनगुनाते रहे। अब, इसके बाद मैं इस ठुमरी को नहीं सुनता हूँ, कभी सुनूंगा तो एक एलजी (शोकगीत) के तौर पर। उनके ठुमरी गाने और उनके चले जाने की टाइमिंग भी मुझे अचंभित कर गई. जैसे गुनगुनाते- गुनगुनाते उन्होंने अपनी तैयारी कर ली हो। हालांकि, एक पुरज़ोर दावे के साथ मैं यह जानता हूँ कि वो मरने के लिए तैयार नहीं थे। एक चिट्ठी में उन्होंने अपने नहीं मरने के लिए प्रार्थना भी की थी, इसलिए नहीं कि वो मौत से डरते थे, इसलिए की उनकी मौत के बाद की जिंदगियां कहाँ और कैसी होगी, वो क्या भोगेगी, लेकिन, शंकरगढ़ के पहाड़ों की तरह उनकी उम्र भी कट गई, घट गई. देह और आत्मा दोनों से स्वस्थ्य आदमी के दिल ने धोखा दे दिया या डॉक्टरों ने यह आज तक समझ नहीं आता। हम हफ्तेभर में दो-तीन बार शराब पीते थे, इस दौरान ऐसा लगता था कि मैं अपने किसी पुरखे के साथ शराब पी रहा हूं। वो मुझे मटन और फिश खिलाने के लिए अपने घर ले जाते थे। मैं उनका आग्रह टालने के लिए उनसे कहता था कि अब मेरी मांस खाने की इच्छा मरती जा रही है। वो कहते थे मांस खाना मत छोड़ना। एक मनुष्य के चरित्र में तामसिक प्रवृतियां होना भी जरुरी है, यह भी वो खुद अपने भीतर सात्विक प्रवृति भी लेकर चलते थे। कभी पूछते थे कि मेरे बच्चों ने कभी पिज्जा नहीं खाया, बताओ कौनसा पिज्जा खिलाऊं, कभी कहते मकान किराये का है यार, लेकिन क्या करना है बस …  बेटा कमाने- खाने के काबिल हो जाए। कभी कहते थे बीमे की राशि मिलती तो है न। साली कंपनियां धोखा तो नहीं दे देगी। लगता था, जैसे वे खुद ही सवाल कर रहे हैं और खुद को ही जवाब दे रहे हैं। आज आपके जन्मदिन पर आपकी मौत के बारे में बात करना ठीक नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि मौत और जीवन इन दोनों के बीच के स्पेस के दो किनारे हैं। अब आप उस किनारे पर हैं, और मैं इस किनारे पर। मैं आपके मरने के बाद अब तक आपके जिंदा नहीं होने का कारण और जवाब ढूंढ रहा हूं। मेरे ग्लास से अपना ग्लास टकराकर आवाज ही सुना दो तो यक़ीन आए कि आप सब देख रहे हो, सुन रहे हो और यहीं कहीं हो, इसी किनारे।

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें (उठायें)
मोरा अपना बेगाना छूटो जाए
बाबुल मोरा ...
आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश
जाए बाबुल घर आपनो मैं चली पीया के देश
बाबुल मोरा ..