Sunday, September 18, 2016

जहाँ रुदन था अंतिम

फिर भी तुम नहीं लिख सके
नहीं पहुँच सके वहां
जहां गर्दन पर
नली के ठीक ऊपर
सांस के आरोह-अवरोह के बीच
तेज़ और चमकदार धार रखी है
धूप की तरह उजली
और गर्म
उस वक़्त कहीं नहीं होती हैं आँखेँ
बैगेर लड़खड़ाए
कुछ ही क्षण में
रक्त अख्तियार कर लेता है खंजर
पृथ्वी ने भी देखा
वह दृश्य लाल अपनी छाती पर
फिर भी तुम नहीं लिख सके
नहीं पहुँच सके वहां
जहाँ रुदन था अंतिम