Thursday, August 13, 2009

अनंत प्रकाश की ओर

सुबह - सुबह सड़क पर
जब धूल की तरह उड़ती है यादें
तो मन कहता है कि चले आओ .

शाम को जब अपने घर की
खिड़कियों से देखता हूँ
चिड़ियों को चह - चहाते
तो मन कहता है कि चले आओ .

रात को सोने से पहले
सुनता हूँ जब खामोशी के सन्नाटे
तो मन कहता है कि चले आओ .

चले आओ क्योंकि
मै जीवन के उस अंधेरे घर मै खड़ा हूँ
जहाँ से तुम्हारे पास नही आ सकता
ना तुम मुझे देख सकती हो
ना ही मै तुम्हे दिखाई देता हूँ
तुम मुझे सिर्फ मह्सुस कर सकती हो
क्योंकि मै सिर्फ एक अह्सास हूँ
और खड़ा हूँ अभी भी उस अंधेरे घर मै
इस उम्मीद मै कि कहीं से तुम आओगी
और मुझे अपने साथ ले जाओगी
उस अनंत प्रकाश की और
जहाँ सिर्फ तुम मुझे दिखाई देती हो
और सिर्फ मै तुम्हे दिखाई दे सकूँगा.

कभी - कभी देखता हूँ जब
उस अनंत प्रकाश की किरणों को लह - लहाते
तो मन कहता है कि चले आओ

जहाँ कहीं भी हो चले आओ .

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