उसकी चुप्पी से खुलते हैं शहर
गहरी खाई से ऊबकर आते हैं सवेरे
गहरी खाई से ऊबकर आते हैं सवेरे
उजली हंसी में उगता है दिन
उसकी उंगलियां रफ़ मसौदा लिखती हैं
संवलाई हाथ बातें करते हैं
संवलाई हाथ बातें करते हैं
मोत्ज़ार्ट की धुन पर
ऊंघती हैं उदास दोपहरें
ऊंघती हैं उदास दोपहरें
दिन अपनी धूप को सरकाता हैं
धीमे धीमे शाम की तरफ
धीमे धीमे शाम की तरफ
रात तब्दील हो जाती है
अपने मिज़ाज़ में
अपने मिज़ाज़ में
सख़्त नींदें झुकती नहीं
फिर भी बिस्तरों की तरफ
फिर भी बिस्तरों की तरफ
वो कोई हैरत सुनना चाहती है
मुझे आसान नींद पसंद नहीं
मुझे आसान नींद पसंद नहीं
पवनचक्कियां बहती हैं
पहाड़ों पर जहां
वहीं, उसकी आंख के एक छोर पर हूं मैं
पहाड़ों पर जहां
वहीं, उसकी आंख के एक छोर पर हूं मैं
वो अपने होठों पर नमी चाहती हैं
मैं उसके माथे का तिल देखता हूं बार बार।
मैं उसके माथे का तिल देखता हूं बार बार।
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