- गायें जो तुम्हारे जीवन में हैं,
बचपन में माँ उपले बनाती थी। गाय के गोबर के कंडे। फिर घर की दीवारों और ओटले पर उन्हें थेफती थी। घर की कई दीवारें उपलों से भर जाती। जब उपले सूख जाते तो उनका इस्तेमाल घर का चूल्हा जलाने के लिए होता था। उपले थेपते माँ के हाथ उसकी चूड़ियों तक गोबर से सन जाते, फिर वो जब अपने बाल को पीछे धकेलती तो उसके मुंह पर उसके गाल पर भी गोबर लग जाता। बचपन में वो भी गाय के गोबर के साथ खेलता, मिट्टी और गोबर के साथ खेलता हुआ ही बड़ा हुआ। कभी- कभी थोड़ा गीला गोबर उठा लेता और वो भी माँ की तरह उपले थेपता। उसके दोस्त भी इस शग़ल में साथ हो जाते, गोबर से खेलते। फिर दांव लगता। शर्त लगती। किसका उपला सबसे ज्यादा गोल। किसका उपला चाँद जैसा। तेरे उपले की नाक छोटी है। रात को रसोईघर में चूल्हे के सामने हम उसी उपले की सुर्ख़ आंच को देखते। हम अपने जीवन की लौ को ताकते। उसी गर्माहट से आत्मा पिघल जाती। ठंड के दिनों में तो गोबर के अंगारों और चूल्हे की तपन के बीच पूरी देह में आत्मा उग आती और हम उसे पूरे शरीर से झरता हुआ देखते रहते। हम अपने पिता के साथ भविष्य की उन सारी बुरी आशंकाओं को उसी चूल्हे की आग में जलाकर दफ़्न कर देते। सूखे उपलों को अंगारों में तब्दील होने के बाद हम उन पर रोटियों के गुब्बारे उड़ते देखते। काले और कत्थई धब्बों वाले सफ़ेद और गेंहुआ गुब्बारे। हम गोलाइयाँ देखते। माँ के हाथ से बेली गई गोल रोटियां और उपलों की गोलाइयों का अंतर नापते। दोनों के बीच कोई संबंध नहीं- जमीन में उगा गेहूं और गाय का गोबर। फिर ये क्या रिश्ता है। कौनसी संस्कृति का हिस्सा है- जानवर के पेट से निकलने वाले गोबर और मनुष्य के पेट के अंदर जाने वाले अन्न के बीच कौनसा संबंध है। ये किस संस्कृति का हिस्सा रहा है। ये कौनसी परम्परा है। जिसकी आंच में हम सदियों से अपनी देह को तपाते और आत्मा को सींचते आ रहे हैं। चूल्हे की आंच में पिघलते उपले की आग में क्यों हमारे चहरे का खून हमेशा दमकता रहता। जले हुए कंडों की राख भी सुबह हम अपने माथे पर घिस लेते हैं। हथेली पर रखकर हम भभूति की फक्की मार लेते। ये संस्कृति राख हो जाने तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती।
गौ के गोबर से हमारा- तुम्हारा रिश्ता खत्म क्यों नहीं होता - सोलह श्राद्ध में हमारे- तुम्हारे घर की कुंवारी बेटियां हर शाम को दीवारों पर संजा बनाती है, सोलह दिनों तक संजा गीत गाती। शाम होते ही गोबर के चाँद- तारे घरों की दीवारों पर दमकते लगते। ये चाँद- सितारे हमारे लिए आसमान के चाँद- तारों से भी सुंदर होते। श्राद्ध के इन्हीं दिनों में, सुबह हम देखते हैं कि हमारे पुरखों की आत्मा गाय के इसी गोबर की आंच और लौ में तृप्त हो रही है। गुड़ और घी का धूप हमारे पूरे जीवन- नगर को महका रहा। सींच रहा है। पोस रहा है। हम देखते हैं - धूप की गंध हर सीमा को पार कर के यहाँ- वहां पसर रही है।
इस संस्कृति का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है, हमे अब भी राजनीति समझ नहीं आती। सनद रहे हम अब भी राजनीति की बात नहीं कर रहे हैं। बात मानवता की है। बात देस की ख़ुश्बू की है- जो तुम्हारे और हमारे मन और आँगन में रची बसी है। इस ख़ुश्बू के लिए तुमने कभी कोई पौधा नहीं उगाया। देस की ख़ुश्बू को महसूसने के लिए तुमने कभी कोई फूल नहीं खिलाया। मिट्टी किसी वृक्ष का पौधा नहीं। वो कोई फूल नहीं। फिर भी महकती तो है। इसकी महक हमारे- तुम्हारे इर्दगिर्द है। तुम्हारे आँगन में और दीवारें अब भी तुम्हे इसका अहसास तो दिलाते होंगे। चूड़ियों तक गोबर से सने अपनी माँ के हाथ तुम्हे याद तो होंगे, याद तो आते ही होंगे।
"जो भी भारत को अपना देश मानता है, उसे गाय को अपनी माँ मानना चाहिए" पता नहीं क्यों झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुबर दास का यह स्टेटमेंट मुझे बार- बार आकर्षित करता है, इस वाक्य के टेक्स्ट के भीतर का चार्म मुझे अपनी ओर खींचता है। बिटवीन द लाइन इसका एसेंस मुझे समझ आ रहा है। इसमें एक ख़ुश्बू महकती है। हो सकता है राजनीति से प्रेरित होकर उन्होंने यह कह दिया हो। या शायद गलती से- लेकिन हम और तुम गोबर के अंगारों और उसकी आंच को अलग नहीं कर सकते- अलग देख भी नहीं सकते। तुम अपने स्वयं के विचार को खुद से अलग नहीं कर सकते। रोटी और उपलों के बीच कोई संबंध नहीं। लेकिन इन दोनों से तुम्हारा तो कोई रिश्ता कभी रहा होगा। अपनी माँ के कहने पर तुमने कभी तो गाय को पहली रोटी खिलाई होगी। ... तो गाय इसलिए तुम्हारी माँ नहीं हो गई कि तुम उसे पवित्र मानते हो। वो माँ है ही नहीं। वो माँ हो भी नहीं सकती क्योंकि उसके लिए तुम्हे बेटा होना पड़ेगा और तुम तो अपने खून की माँ के भी अब बेटे नहीं रहे। --- क्योंकि - तुम गाय काटकर खाते हो। गाय सिर्फ एक पशु है। कभी तुमने उसे रोटी खिलाई हो इसलिए वो माँ नहीं बन जाती। ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते को रोटी देने पर वो तुम्हारा बाप नहीं हो जाता। तुम गाय को माँ मान ही नहीं सकते। गाय उनकी भी माँ नहीं जो उसे काटते हैं और उनकी भी नहीं जो उसकी रक्षा कर रहे हैं। तुम और हम, हम सब जो बचपन में उपलों से खेला करते थे किसी भी गाय की कोख से नहीं जन्मे, इसलिए उसका खून तुम्हारे अंदर नहीं है। लेकिन उसका दूध तो जरूर तुम्हारी रगों में दौड़ रहा होगा। अपने घरों को पवित्र करने के लिए तुम अब भी उसका मूत्र घरों में छिड़कते होंगे। गायों की तलाश में चौराहों पर जाते होंगे। इसी के कंडों की आंच से उठने वाले धुंए में पुरखों की अतृप्त आत्माएं घुलमिल जाती होगी। खून न सही उसका गोबर तुम्हारा है। - और उसका दूध भी। जाने और अनजाने।
तुम जानवरों को, पशुओं को भी मनुष्य से ... अपने से, खुद से अलग नहीं कर सकते ... चाहकर भी और अनजाने में भी। ... तो यह रिश्ता ही बरकरार रहने दो, मनुष्य और गोबर का रिश्ता। चाहकर या अनजाने में। अपनी गाय से ... अपनी माँ से या अपने पशु और अपने जानवर से। मेरा रिश्ता हो सकता है, गाय से न हो लेकिन उसके गोबर से है, यह मैं जानता हूँ। गाय तुम्हारी माँ नहीं, जानवर है, लेकिन उसके दूध से, इस जानवर के गोबर और मूत्र से तो तुम्हारा कोई रिश्ता होगा। ये संस्कृति। गोबर की संस्कृति राख हो जाने तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। हमारे भी राख हो जाने तक पीछा नहीं छोड़ती ... नहीं छोड़ेगी।
No comments:
Post a Comment