किसी ऊँची जगह पर चढ़ना और मेहदी हसन की ग़जल सुनना, कमोबेश दोनों का एक ही हासिल है, कम अज कम मेरे लिए तो। ऐसा सुख जिसे हम किसी ऊंचाई पर पहुँच कर भोगते हैं- जैसे पहाड़ पर चढ़ने का सुख।
जगजीत सिंह ज्यादातर गज़लों में दुःख गाते हैं। वे एक राग रुदन के साथ तुम्हे अंधेरे में तन्हां छोड़ देते हैं। अगर उनके गाये पंजाबी टप्पों को छोड़ दिया जाए तो, वे अपनी अधिकतर गज़लों में ताउम्र पीड़ा ही गुनगुनाते रहे।
इसके बरअक्स, मेहदी हसन इश्क़ गाते थे। राग इश्क। उनकी खरज हमें रूमानी हासिल के साथ एक क्लैसिक हाइट पर ले जाती है- एक रूमानी गहराई में। इश्क और मौसिकी दोनों में एक साथ सबसे ऊँची जगह होने का अंदाज़ देती हुई। प्रेम में होने और मौसिकी के सुर- ताल, स्वर लहरियां व इबारत समझने की मिक्स फीलिंग। कई बार उन्हें सुनने के दौरान हम कुछ भी दर्ज नहीं कर पाते। कोई टेक्स्ट नहीं, कोई कविता नहीं।
लता मंगेशकर ने एक बार कहीं कहा था- ' मेहदी हसन की आवाज़ ख़ुदा की आवाज है ' - ख़ुदा ने ख़ुदा की आवाज़ को ख़ुदा कहा। सुनिए, ख़ुदा की आवाज़ कैसी होगी।
करीब बाईस साल पहले एक टूरिस्ट बस में पहली बार मेहदी हसन की आवाज़ सुनी थी, पहली गज़ल थी- ' जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ' दूसरी थी - ' रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ ' एक ही सफर में प्रेम के दोनों छोर, दोनों किनारे समझ में आ गए- पहले प्रेम और फिर विरह। - और फिर अपना स्टेशन आ गया, जहाँ हम उतर गए।
इसके बाद इतने सालों में वक़्त- बेवक़्त मेहदी की सैकड़ों गज़लें सुनी। रिकॉर्डिंग्स, लाइव कंसर्ट रिकॉर्डिंग और पाकिस्तान की चलताऊ फिल्मों में गाये उनके गाने भी। सब सुना। इस बीच इंटरनेट कैफे पर कई - कई घण्टों डाउनलोडिंग का भी एक लंबा सिलसिला चला। इस पैशन से कई रेयर गज़लें भी इकट्ठा हो गईं। इनमें से बहुत तो याद हो गई, कुछ की सिर्फ धुनें याद है- सैकड़ों सुनना अभी बाकी है। - इतने सालों तक सुनते रहने के बाद अब
भी लगता है जैसे एक बड़ा सा नीला समंदर अपने भरे गले से गा रहा है, शे'र पढ़ रहा है। इतना इत्मीनान और ठहराव, एक पूरी अंधेर रात में सिर्फ एक सांस। पूरी रात जगराता और लगे कि सिर्फ एक आह ली हों। जैसे हम भी धीरे- धीरे जी रहे हों, मेहदी की आवाज के साथ- साथ। जैसे पहाड़, जंगल और समंदर जीते हैं अपनी ही जगहों पर खड़े- खड़े। पहाड़ कहीं नहीं जाता, वहीँ होता है अपनी जगह, फिर भी अपने जीवन में सबसे ऊंचा है, समंदर कहीं नहीं जाता, वह अपनी जगह ही अपने राग और अपने आलाप में बहता है। अरण्य किसी के पास चलकर नहीं जाता, वो हर कहीं नहीं उगता, फिर भी अपने खुद में गहन है- इंटेंस है। मेहदी हसन की आवाज भी वहीँ है, अपने ही होठों पर हलकी सी मुस्कुराती हुई, उन्हीं के अंदर, उस तह में, उनके गले की गहरी सुरंग में- और इस तरफ तुम्हारे मन की अतल गहराइयों में।
दरअसल, मेहदी हसन गाते नहीँ थे, सुनाते थे, जैसे पहाड़ गाते नहीं, फिर भी वे तुम्हे वो सब देते हैं, जो तुम्हे चाहिए -एक अदम्य ऊंचाई, बीते हुए पत्थर, कांटे और फूल भी। प्रेम और विरह का एक इंटेंस जंगल, एक अरण्य। ग़जल सुनने की एक क्लैसिक हाइट।
बहुत मार्मिक लेख..
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