मैं आई भी तो बारिश के मौसम में चली आई और देखो बाहर तो बारिश हो भी नहीं रही है, बहरहाल पहले ठुमरी गाऊंगी, फिर कजरी, फिर दादरा और फिर जो भी आप लोग फरमाएंगे वो सुना दूंगी। सारंगी - तानपुरे की ट्यूनिंग और कैमरों की फ्लेश लाइट के बीच फिर लगा जैसे सूखे पत्तें खरखरा रहे हो, जैसे कोई बहुत पुराना पेड़ गला साफ़ कर गाना शुरू करने वाला है। मुँह में पान - गिलौरी को इधर - उधर सरकाते हुए गिरिजादेवी ने " जिया मोरा दरपावे " शुरू किया तो ख़याल आया कि किसी घर में कोई दादी गुनगुना रही हो। गले को बार - बार साफ़ करते हुए सूखी आवाज में " गगन गरज चमकत दामिनी " शुरू किया तो महफ़िल की थोड़ी - थोड़ी आंच महसूस होने लगी, लेकिन 80 साल से ज्यादा पुरानी आवाज का खरखराता सूखा बोझ सहन करने का मन नहीं हो रहा था, सोचा घर निकल जाऊं और खाना खाकर सो जाऊं - ईश्वर उनकी उम्र को कई साल और मौसिक़ी को कई सिलसिले अदा करे, लेकिन एक इसी ख़याल से मैं वहां से उठने का हौंसला नहीं जुटा पाया। फिर जब वे गाने के इतर बोलने और समझने लगीं तो ज्यादा ग्रेसफुल नज़र आई। कहने लगीं - बनारस घराने की गायकी में सबकुछ हैं, टप्पा, ठुमरी ख़्याल, दादरा, कज़री, चैती, झूला सब - मन था कि बारिश की कोई ठुमरी सुनाऊँ, लेकिन बारिश तो है ही नहीं, इसलिए खमाज की ठुमरी गाती हूँ। मन के बारे में बात सुनकर अच्छा लगा। मन की सुनना फायदेमंद भी रहा। गला साफ़ किया, आलाप और कुछ तानों के बाद रूककर बोलीं - बनारस की ठुमरी है इसलिए इसमें कविताएं या तानें नहीं है, ये सिर्फ सीधी- सीधी ठुमरी हैं। सीधी - सीधी ठुमरी सी सीधी - साधी और मॉडेस्ट गिरजादेवी अब भाने लगीं। " संवरिया को देखे बिना नाही चैना " यह ठुमरी खत्म होने तक महफ़िल में सुरों के साथ इत्मिनान पसारने लगा। गले के साथ उनका मन भी साथ देने लगा। सूखे पत्तों की खरखरी और पुराने पेड़ का बोझ नर्म - मुलायम डाली सा लगने लगा। इस उम्र में भी उन्हें वक़्त का भान था - वो बोल पड़ी ठुमरी, टप्पा, और दादरा अपनी जगह हैं और कज़री - चैती अपनी जगह हैं, इसलिए थोड़ा - थोड़ा सब सुना दूंगी। सुरों के साथ हम सब पसरकर बैठने लगे - भीतर देह में एक इत्मिनान सा आ गया। मेरे घर जल्दी निकलने की कश्मकश छट गई। गिरिजादेवी को इसलिए दाद नहीं मिल रही थी कि वो इस उम्र में गा रही थी, इसलिए दाद निकल रही थी कि वो गा रही थी और हमारी उम्र में गा रही थी। शहर के कमिश्नर साब की फ़रमाईश पर " बरसन लागी बदरिया " सुना दी। यह वही ठुमरी थी जो मैंने सबसे पहले बनारस के ही पंडित छन्नुलाल मिश्र की ठेठ गायकी में सुनी थी, लेकिन वही तर्ज़, वही मिज़ाज़ सिर्फ वक़्त और जगह अलग। 17 अगस्त 2015 की तारीख़ में जज़्ब हो चुकी नागपुर की इस महफ़िल में फिर एक झूला " धीरे से झुलाओ बनवारी संवरिया, सुर, नर, मुनि सब शोभा देखे " इसके बाद एक दादरा सुना। जो आवाज थी वो इलाही थी। मैं सुनकर बे - ख़याल हो गया। बगल में बैठे बाबू मोशाय के हाथ में रखी पुड़िया से सींगदानों की ख़ुश्बू से भूख का अहसास हुआ - और मैं अपनी पेट की भूख के लिए घर चला आया। Friday, August 21, 2015
... देखो, मैं बारिश में चली आई
मैं आई भी तो बारिश के मौसम में चली आई और देखो बाहर तो बारिश हो भी नहीं रही है, बहरहाल पहले ठुमरी गाऊंगी, फिर कजरी, फिर दादरा और फिर जो भी आप लोग फरमाएंगे वो सुना दूंगी। सारंगी - तानपुरे की ट्यूनिंग और कैमरों की फ्लेश लाइट के बीच फिर लगा जैसे सूखे पत्तें खरखरा रहे हो, जैसे कोई बहुत पुराना पेड़ गला साफ़ कर गाना शुरू करने वाला है। मुँह में पान - गिलौरी को इधर - उधर सरकाते हुए गिरिजादेवी ने " जिया मोरा दरपावे " शुरू किया तो ख़याल आया कि किसी घर में कोई दादी गुनगुना रही हो। गले को बार - बार साफ़ करते हुए सूखी आवाज में " गगन गरज चमकत दामिनी " शुरू किया तो महफ़िल की थोड़ी - थोड़ी आंच महसूस होने लगी, लेकिन 80 साल से ज्यादा पुरानी आवाज का खरखराता सूखा बोझ सहन करने का मन नहीं हो रहा था, सोचा घर निकल जाऊं और खाना खाकर सो जाऊं - ईश्वर उनकी उम्र को कई साल और मौसिक़ी को कई सिलसिले अदा करे, लेकिन एक इसी ख़याल से मैं वहां से उठने का हौंसला नहीं जुटा पाया। फिर जब वे गाने के इतर बोलने और समझने लगीं तो ज्यादा ग्रेसफुल नज़र आई। कहने लगीं - बनारस घराने की गायकी में सबकुछ हैं, टप्पा, ठुमरी ख़्याल, दादरा, कज़री, चैती, झूला सब - मन था कि बारिश की कोई ठुमरी सुनाऊँ, लेकिन बारिश तो है ही नहीं, इसलिए खमाज की ठुमरी गाती हूँ। मन के बारे में बात सुनकर अच्छा लगा। मन की सुनना फायदेमंद भी रहा। गला साफ़ किया, आलाप और कुछ तानों के बाद रूककर बोलीं - बनारस की ठुमरी है इसलिए इसमें कविताएं या तानें नहीं है, ये सिर्फ सीधी- सीधी ठुमरी हैं। सीधी - सीधी ठुमरी सी सीधी - साधी और मॉडेस्ट गिरजादेवी अब भाने लगीं। " संवरिया को देखे बिना नाही चैना " यह ठुमरी खत्म होने तक महफ़िल में सुरों के साथ इत्मिनान पसारने लगा। गले के साथ उनका मन भी साथ देने लगा। सूखे पत्तों की खरखरी और पुराने पेड़ का बोझ नर्म - मुलायम डाली सा लगने लगा। इस उम्र में भी उन्हें वक़्त का भान था - वो बोल पड़ी ठुमरी, टप्पा, और दादरा अपनी जगह हैं और कज़री - चैती अपनी जगह हैं, इसलिए थोड़ा - थोड़ा सब सुना दूंगी। सुरों के साथ हम सब पसरकर बैठने लगे - भीतर देह में एक इत्मिनान सा आ गया। मेरे घर जल्दी निकलने की कश्मकश छट गई। गिरिजादेवी को इसलिए दाद नहीं मिल रही थी कि वो इस उम्र में गा रही थी, इसलिए दाद निकल रही थी कि वो गा रही थी और हमारी उम्र में गा रही थी। शहर के कमिश्नर साब की फ़रमाईश पर " बरसन लागी बदरिया " सुना दी। यह वही ठुमरी थी जो मैंने सबसे पहले बनारस के ही पंडित छन्नुलाल मिश्र की ठेठ गायकी में सुनी थी, लेकिन वही तर्ज़, वही मिज़ाज़ सिर्फ वक़्त और जगह अलग। 17 अगस्त 2015 की तारीख़ में जज़्ब हो चुकी नागपुर की इस महफ़िल में फिर एक झूला " धीरे से झुलाओ बनवारी संवरिया, सुर, नर, मुनि सब शोभा देखे " इसके बाद एक दादरा सुना। जो आवाज थी वो इलाही थी। मैं सुनकर बे - ख़याल हो गया। बगल में बैठे बाबू मोशाय के हाथ में रखी पुड़िया से सींगदानों की ख़ुश्बू से भूख का अहसास हुआ - और मैं अपनी पेट की भूख के लिए घर चला आया।
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