... कुछ रिश्तों और उनके लम्हों को 'सितंबर' के नाम से भी पुकारा जा सकता है। उन रिश्तों का नाम लैम्पपोस्ट रखा जा सकता है। शहर के बीचोंबीच या उसके मुहाने पर रुकी/ ठहरी हुईं झीलें भी किसी दोपहर या शाम के नाम का लम्हा ही है। इन रिश्तों को नदी का किनारा भी बुलाया जा सकता है। काली मिर्च और दाल के छोक की महक से भी तुम याद आती हो। हरी चादर और उस पर बिछे गुलाब के ऊपर बहती इत्र की ख़ुश्बू भी कोई पल हो सकता है। जिस फूल वाली गली से तुम बार- बार गुजरते हो, वो भी तो एक रूमानी सफ़र ही है। ऐसीकहानियों की शुरुआत किसी दोपहर कब्रगाह के पास टहलते हुए भी हो सकती है। वहीँ से कविताएं भी लिखी जा सकती हैं।
... और वो जो कांच के पास दीवार पर अनजाने में अपनी आंख का काजल पोंछ देती हैं, हमारी जिंदगी की इबारतें ही होंगी।
इस शहर की उन कुछ जगहों पर ऊँगली रखकर कहा जा सकता है यह तुम हो, - यहाँ इस जगह तुम ही हो।
- हिबिस्कस हम दोनों का फूल है/
उसके स्कार्फ़ का बेवजह हवा में उड़ना भी तो प्रेम ही है।
- अगस्त डायरी।
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