आंधी की तरह उड़कर एक राह गुजरती है,
यह उन दिनों की बात है। जब गर्मियां शुरू हो गई थी। उस वक्त पतझर शुरू नहीं हुआ था हालांकि, फिर भी पेड़ों से पत्तों के खिरने की शुरुआत हो चुकी थी। हम सड़कों पर कई पत्तें यहां-वहां गिरे देखते रहे उन दिनों। इस शहर का ज्यादतर शोर हमारे जीवन का संगीत था।
आंधी की तरह उड़कर हर राह गुजरती थी। हर रात गुजरती थी।
हम सब लोग। बहुत सारे लोग जिनका वास्ता लहू से नहीं था, वो हम सब उसी अज्ञात डोर से बंधे हुए थे। फिर जब हम जवान होने लगे… उस वक्त हम सब सोचते थे, कि हम कहीं पहुंचेंगे- लेकिन हम कहीं नहीं पहुंचते हैं- हम सिर्फ अपनी जगहें खाली करते हैं। हम अपने कमरें खाली करते हैं, अपने क्लास रूम खाली करते हैं।
... और अंत में,
अंतत: हम सब का वास्ता सिर्फ मिट्टी से होता है, राख से होता है। जिनका लहू से वास्ता है और जिनका लहू से वास्ता नहीं है- वो हम सब उसी अज्ञात और जादुई गंध से जुड़े हुए हैं।
कुछ पुरानी चीजें हमारी यहां छूट जाती हैं। मैं सोच रहा हूं अतं में मेरे बाद यहां क्या छूटा रह जाएगा। पतझर, गर्मियां, हवा … राख या कुछ और या कुछ भी नहीं,
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ReplyDeleteकितना सुंदर❤️🌼
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