जिंदगी में होने वाले कई फेरबदल आदमी के भाग्य या दुर्भाग्य पर निर्भर हैं। वहीं जिंदगी के अधिकतर परिणाम आदमी के लिए गए फैसलों पर निर्भर हैं। भाग्य और दुर्भाग्य मोटे तौर पर हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन ज्यादातर फैसलें लेना या नहीं लेना हमारे हाथ में हैं।
करीब दस साल पहले 'कास्टिंग काउच' शब्द काफी प्रचलन में था, जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने मध्य काल में था या इस काल में प्रवेश कर रहा था। अभी फिर से ट्रोल हुआ है। राजनीति और सिनेमा में अपने खास मक़ाम पर पहुँची दो स्त्रियों रेणूका चौधरी और सरोज खान ने यह शब्द दोहराया है। कास्टिंग काउच कितना सही है, कितना गलत, यह बहस तो बिल्कुल विवेकपूर्ण नहीं हो सकती। लेकिन इन दो स्त्रियों की स्वीकारोक्ति या बयानों से यह तो साफ हो ही गया कि राजनीति हो या सिनेमा, समाज की हर इमारत के नीचे एक गंदी गटर बह ही रही है।
सिनेमा की सरोज खान ने कहा कि 'कम से कम बॉलीवुड में कास्टिंग काउच के बदले लड़कियों को रोटी तो मिलती है'। ज़ाहिर है, सरोज खान को या उनके आसपास रहने वाली महत्वकांक्षी लड़कियों को कभी न कभी इससे गुजरना पड़ा होगा।
रेणूका चौधरी ने कहा कि 'राजनीति भी कास्टिंग काउच के धंधे से अछूती नहीं है'। यह उनका सेंट्रल या जनरलाइज्ड आयडिया है। इससे यह साफ होता है कि शायद उनके साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ होगा, लेकिन उनकी जानकारी में है कि दिल्ली समेत देश की राजधानियों में ऐसा अक्सर होता रहा है।
मध्यप्रदेश की खांटी दिवंगत नेता जमुना देवी ने तो कई साल पहले सरोज खान और रेणूका चौधरी से बहुत ज़्यादा सनसनीखेज बयान दिया था, इतना कि बयान से स्त्री की देह की खाल भी उतर गई थी। उस बयान को तो दोहराया भी नहीं जा सकता।
मसला यह है कि उम्र का आधा आंकड़ा बिता चुकी यह महिलाएं अब इस समय में यह बयान क्यों दे रही हैं। क्या यह जवानी के दिनों में किए गए अपने समझौतों की बुढ़ऊ खीज की तरह नहीं है ? या समझौतों की सीढ़ी के सहारे मिली सफलता के प्रति पश्चताप के बयान नहीं हैं ?
सुनिए, जब आप काम मांगने गईं होगी, तो देह सुख की कामना में सदियों से प्रतीक्षा कर रहे पुरुष ने अपनी बाहें खोलकर आपके सामने पसारी होगी। यह आपके निर्णय की घड़ी थी। तब आपके पास एक क्षण था, जिसमे आप उसकी बाहों को उसी तरह सूना छोड़कर उसकी ख़्वाबगाह से बाहर आ जाती, तुम चाहती तो एक धारदार चाकू से पुरुष की सफ़ेद चादर लहुलूहान कर आती। लेकिन ग्लैमर की गंध और राजनीति की महक तुम्हें उसकी बाहों में खींच ले गए। तुमने अपनी नश्वर और छद्म जिंदगी की चमक के बदले अपने चरित्र के अमूल्य कुछ मिनट उसको बेच दिए। यह दीगर बात है कि अब वो महक सड़ांध मारकर तुम्हें परीशां कर रही है।
मेरा यकीन है की स्त्री या किसी लड़की को उसकी इज़ाजत के बगैर दुनिया को कोई पुरुष छू नहीं सकता। इसके विपरीत कोई पुरूष ऐसा करता है तो फिर वह पुरुष नहीं, बलात्कारी है। एक, मर्ज़ी के खिलाफ संबंध बनाना अपराध है। दो, प्रेम के साथ बहती हुई नदी। फिर तीसरा हुआ समझौता। कास्टिंग काउच। जिसका फैसला लेना आपके हाथ में था। लेकिन आपने कोई फैसला नहीं लिया। न तो ना कहने का फैसला लिया और न पूरी तरह से हां कहने का फैसला लिया। और वह एक समझौते में तब्दील हो गया। वही समझौता उम्र बीतने के साथ पीड़ा हो गया, आत्मग्लानि हो गया।
... तुम्हे समझौते की आत्मग्लानि नहीं, फैसले की आज़ादी चुनना थी, क्योंकि फैसलें कभी आत्मग्लानि नहीं देते, उनमें पश्चाताप नहीं होता।
#औघटघाट,
करीब दस साल पहले 'कास्टिंग काउच' शब्द काफी प्रचलन में था, जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने मध्य काल में था या इस काल में प्रवेश कर रहा था। अभी फिर से ट्रोल हुआ है। राजनीति और सिनेमा में अपने खास मक़ाम पर पहुँची दो स्त्रियों रेणूका चौधरी और सरोज खान ने यह शब्द दोहराया है। कास्टिंग काउच कितना सही है, कितना गलत, यह बहस तो बिल्कुल विवेकपूर्ण नहीं हो सकती। लेकिन इन दो स्त्रियों की स्वीकारोक्ति या बयानों से यह तो साफ हो ही गया कि राजनीति हो या सिनेमा, समाज की हर इमारत के नीचे एक गंदी गटर बह ही रही है।
सिनेमा की सरोज खान ने कहा कि 'कम से कम बॉलीवुड में कास्टिंग काउच के बदले लड़कियों को रोटी तो मिलती है'। ज़ाहिर है, सरोज खान को या उनके आसपास रहने वाली महत्वकांक्षी लड़कियों को कभी न कभी इससे गुजरना पड़ा होगा।
रेणूका चौधरी ने कहा कि 'राजनीति भी कास्टिंग काउच के धंधे से अछूती नहीं है'। यह उनका सेंट्रल या जनरलाइज्ड आयडिया है। इससे यह साफ होता है कि शायद उनके साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ होगा, लेकिन उनकी जानकारी में है कि दिल्ली समेत देश की राजधानियों में ऐसा अक्सर होता रहा है।
मध्यप्रदेश की खांटी दिवंगत नेता जमुना देवी ने तो कई साल पहले सरोज खान और रेणूका चौधरी से बहुत ज़्यादा सनसनीखेज बयान दिया था, इतना कि बयान से स्त्री की देह की खाल भी उतर गई थी। उस बयान को तो दोहराया भी नहीं जा सकता।
मसला यह है कि उम्र का आधा आंकड़ा बिता चुकी यह महिलाएं अब इस समय में यह बयान क्यों दे रही हैं। क्या यह जवानी के दिनों में किए गए अपने समझौतों की बुढ़ऊ खीज की तरह नहीं है ? या समझौतों की सीढ़ी के सहारे मिली सफलता के प्रति पश्चताप के बयान नहीं हैं ?
सुनिए, जब आप काम मांगने गईं होगी, तो देह सुख की कामना में सदियों से प्रतीक्षा कर रहे पुरुष ने अपनी बाहें खोलकर आपके सामने पसारी होगी। यह आपके निर्णय की घड़ी थी। तब आपके पास एक क्षण था, जिसमे आप उसकी बाहों को उसी तरह सूना छोड़कर उसकी ख़्वाबगाह से बाहर आ जाती, तुम चाहती तो एक धारदार चाकू से पुरुष की सफ़ेद चादर लहुलूहान कर आती। लेकिन ग्लैमर की गंध और राजनीति की महक तुम्हें उसकी बाहों में खींच ले गए। तुमने अपनी नश्वर और छद्म जिंदगी की चमक के बदले अपने चरित्र के अमूल्य कुछ मिनट उसको बेच दिए। यह दीगर बात है कि अब वो महक सड़ांध मारकर तुम्हें परीशां कर रही है।
मेरा यकीन है की स्त्री या किसी लड़की को उसकी इज़ाजत के बगैर दुनिया को कोई पुरुष छू नहीं सकता। इसके विपरीत कोई पुरूष ऐसा करता है तो फिर वह पुरुष नहीं, बलात्कारी है। एक, मर्ज़ी के खिलाफ संबंध बनाना अपराध है। दो, प्रेम के साथ बहती हुई नदी। फिर तीसरा हुआ समझौता। कास्टिंग काउच। जिसका फैसला लेना आपके हाथ में था। लेकिन आपने कोई फैसला नहीं लिया। न तो ना कहने का फैसला लिया और न पूरी तरह से हां कहने का फैसला लिया। और वह एक समझौते में तब्दील हो गया। वही समझौता उम्र बीतने के साथ पीड़ा हो गया, आत्मग्लानि हो गया।
... तुम्हे समझौते की आत्मग्लानि नहीं, फैसले की आज़ादी चुनना थी, क्योंकि फैसलें कभी आत्मग्लानि नहीं देते, उनमें पश्चाताप नहीं होता।
#औघटघाट,
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