आनंद आश्रम
... वो जगहें दौड़ती नहीं.
मेट्रो की रफ्तार से भागती जिंदगी में एक पल भी हाथ से छूट जाए तो इसे वक्त से पीछे हो जाने जैसा माना जाता है. लेकिन कुछ जगहें और कुछ जीवन ऐसे होते हैं जहां थम जाना ही जीवन की गति है. वे लोग भागते नहीं, वो जगहें दौड़ती नहीं. वो जीवन कभी खुद से उबता भी नहीं. धैर्य और संतोष ही जहां जीवन का सार हैं। आनंद आश्रम भोजनालय. नागपुर की धंतोली की एक गली में पुराने आधे लटके एक बोर्ड पर यही लिखा हुआ है. आनंद आश्रम भोजनालय. आजादी के पहले के समय का कुछ-कुछ अंग्रेजों के घरों या कार्यालयों की तरह. टीम-टप्पर सा एक मकान. शीशम की लकड़ियों की टेबल- कुर्सियां और अंदर की तरफ एक कोने में जमीन के अंदर खुदा हुआ एक भट्टीनुमा चूल्हा. इसी चूल्हे की आंच पर पिछले 90 बरसों से लगातार खाना पक रहा है. भट्टी की यह आंच ठंड के दिनों में गर्म आंचल की तरह काम करती है, लेकिन तपतपाती गर्मी में खलती है. फिर भी 47 से भी ज्यादा के आंकड़े में यहां के महाराज भट्टी के सामने घंटों बैठकर रोटियां बेलते हैं. आटा गूथते हैं, और यह सिलसिला सुबह - शाम चलता हैं. सतत कई सालों से चल रहा हैं. दाल-चावल, हरी सब्जी, कड़ी और गेहूं की रोटी. इतने बरसों तक यही इस जगह का मेनू रहा है. लेकिन थाली की कीमत बदल गई है. 90 साल पहले 25 पैसे मतलब चार आना से भी कम में मिलने वाली थाली अब 80 रुपए की है.
1924 में बना आनंद आश्रम
वासूदेव जोशी, आनंद आश्रम के वर्तमान संचालक बताते हैं कि पार्टनरशिप फर्म के तहत 1924 में आनंद आश्रम की नींव रखी गई थी. इसके चार पार्टनर थे. नंदराम जोशी, चंपालाल जोशी, कोदरजी पुरोहित और केशवजी त्रिवेदी. यह चारों लोग राजस्थान के डूंगरपुर से नागपुर काम की तलाश में आए थे. इसी का नतीजा आनंद आश्रम है. इसी समय यहां यात्रियों के रूकने के लिए एक प्रतीक्षालय और रेस्टोरेंट भी शुरू किया गया था. श्री जोशी के मुताबिक यहां आने वालों में व्यापारी, थियेटर आर्टिस्ट और राजनीतिज्ञ सभी शामिल हैं. वे यहां घंटों बैठकर देश की राजनीति, आर्ट - कल्चर और संगीत पर बातें करते थे, लेकिन अब यहां ऐसी कोई जाजम नहीं बिछती। वे बुझे मन से बताते हैं- ' अब कौन बात करेगा आर्ट-कल्चर और संगीत की ' . उनका इशारा था की इस अराजकता में किसे फुरसत।
... जब गांधी जी आते थे
श्री जोशी ने बताया कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधीजी कई बार सैनानियों के साथ यहां आते थे. वे आश्रम के पीछे ही स्थित कांग्रेस नेता गंगाधर राव टीकेकर के घर रुकते थे. सभी सैनानी साथियों का भोजन आनंद आश्रम से ही जाता था, लेकिन गांधीजी उस वक्त अन्न ग्रहण नहीं करते थे. वे फल-जल पर ही रहते थे. श्री जोशी आश्रम की दीवार पर लटकी गांधीजी और टीकेकर की तस्वीर दिखाते हैं. इसके बाजू में लगी कष्ण की विराट रूप वाली एक पैंटिंग. जिसके बारे में उनका कहना है कि यह इटली के किसी कलाकार ने बनाकर यहां भेजी है. क्यों बनाई, किसलिए यह तस्वीर भेजी इसकी जानकारी नहीं। उन्होंने संशय के साथ इतना भर कहा की गिफ्ट दी होगी। खेर, पेट की तरफ लौटते हैं। आनंद आश्रम में खाना बनाने के लिए इतने सालों में कभी गैस या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं किया गया. भट्टी पर रखे तवे पर रोटियां फूलती हैं और सब्जी बनती है. कड़ी और सब्जी ठंडी हो जाए तो सिगड़ी पर गर्म हो जाती हैं. शीशम की करीब 70 साल पुरानी गोल टेबल पर बैठकर लोग सादे भोजन का आनंद लेते हैं. श्री जोशी के मुताबिक पहले यहां के भोजन के स्वाद के लिए भीड़ लगती थी, लेकिन अब भी यहां आने वालों की तादात कम नहीं है.
33 साल से महाराज बना रहे खाना
आनंद आश्रम में 7 से 8 लोगों का स्टाफ है. मप्र के रीवा के रामखिलावन तिवारी और सुंदरलाल तिवारी पिछले 33 साल से यहां खाना बना रहे हैं. पहले यहां राजस्थान के कई महाराज खाना बनाया करते थे. अब वे ही 33 साल से यह काम कर रहे हैं. इतनी गर्मी में सुर्ख लाल तपती भट्टी के सामने खाना बनाने के सवाल पर वे कहते हैं कि मजा आता है लोगों को अच्छा खाना खिलाने में. अब उनका रहना- खाना यहीं है और वेतन के रूप में 5 हजार रुपए मिलते है. इतना कम वेतन और परिवार से भी दूर. इस सवाल पर दोनों कुछ नहीं कहते, सिर्फ मुस्कुरा देते हैं. उनकी मुस्कुराहट में जीवन का धैर्य और संतोष छलक आता है. मैं अपनी नाक में भट्टी का धुआं और मन में लिखने के स्वाद के साथ लौट आता हूँ।
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