Tuesday, August 4, 2009

आदमी


मै रोज इस कुएँ मै झांकता
पानी पर अपनी परछाई देखता
आवाज भी लगाता हूँ
कि कोई सदा लौटकर आएगी
और मुझे अपना पता बताएगी

मगर सड़क पर
दौड़ती , हांफती
इन मशीनो ने
मुझे बहरा बना दिया
और अंधा भी.

बादलों की उंचाईया नापती
इन इमारतों ने मुझे छोटा कर दिया
इतना छोटा
कि बच्चों के लिए
पेड़ से आम नही तोड़ सकता
ना ही अपनी माँ के लिए तोड़ पाता हूँ बिलपत्र.

वो कोई और ही होगा
जिसने अपनी प्रेमिका के लिए तोड़े होंगे तारे.

इंद्रधनुश से रंग चुरा कर
बहन को दिए होंगे
आंगन मै रंगोली बनाने के लिए.

वो कोई और ही होगा
जिसने सुरज मै से
रोशनी की मुट्ठी भर कर
बीवी की मांग भर दी होगी .

आदमी ... ?

नही... नही...
आदमी तो हरगिज नही

मै तो रोज इस कुएँ मै झांकता
पानी पर अपनी परछाई देखता
आवाज भी लगाता हूँ
कि कोई सदा लौटकर आएगी
और मुझे अपना पता बताएगी

4 comments:

  1. बेहद खूबसूरत !!!

    बड़ी विडम्बना है कि
    औसत आयु तो बढ़ रही है परन्तु कद छोटा होता जा रहा है.

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  2. इसी की तलाश जिन्दगी है .........और जब आदमी के जिन्दगी मे हर एक पल छ्लावा आता है तो वह उन परिस्तिथियो मे वह पूरी तरह से आपने आप को पता नही कर पाता है वह कौन है तब वह इस कविता के भाव से होकर गुजरता है ..........जो आपने वह बात करी है जब कभी आत्मा के साथ होता है ........बहुत ही सुन्दर

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  3. lajawab....yah shabad bhi kam lag raha hai is rachna ke liye....ise bar-bar pathane ka man kar raha hai. mujhe garv hai ki tum mere dost ho.

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  4. बहुत खूब लिखा है नवीन रांगियाल साहेब..आपके भीतर के कवि को मैं तो आज जाना हूं।

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