Monday, March 5, 2018

जिंदगी के कई नोट्स होल्ड पर हैं

नेपाल में काठमांडू घाटी के पास बागमती नदी बहती है। हिंदुओं और बुद्धिष्ट के लिए यह पवित्र नदी है। खासतौर से हिंदुओं के लिए। कई हिन्दू यहाँ अपने अंतिम दिनों में अपनी देह त्यागने आते हैं। जातक को जब यह लगने लगता है कि अब उसका अंतिम समय निकट आ गया है तो वह घरवालों के साथ यहां मरने के लिए पहुंच जाता है। मान्यता है कि इस नदी किनारे प्राण पखेरु हुए तो मुक्ति को प्राप्त होंगे। नेपाल और भारत से कई लोग यहां पहुँचते हैं और मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं। दो, चार या आठ दिनों में जो मर गए सो मर गए। जो नहीं मर सके वे बेरंग लौट जाते हैं। मानो रेल का टिकट तो खरीद लिया, लेकिन स्टेशन से रेल छूट गई, तो घर वापस लौट आए। जो मृत्यु को प्राप्त नहीं हो पाते वो निराश घर लौट जाते हैं।

- क्या समृद्ध दर्शन है हिन्दू धर्म का, इस संस्कृति का। मृत्यु के इतने करीब आकर सिर्फ हिन्दू ही इतना रचनात्मक, इतना बेलौस हो सकता है। इतनी भयावह, ठंडी और रहस्य से भरी मृत्यु के प्रति इतना उदार हिन्दू के अलावा कोई है?

- सदियों से सवालों में घिरी मौत के रहस्य को सिर्फ हिंदू दर्शन ही मुक्ति शब्द का इस्तेमाल कर चुटकियों में हल कर सकता है। -उसे सिर्फ मुक्ति शब्द का उच्चारण मात्र करना है।

बागमती नदी को लेकर हिंदुओ की इस मान्यता के बारे में मैंने कई साल पहले डिस्कवरी के टैबू सीरीज में जाना था। इसी मान्यता को पृष्टभूमि में रखकर साल 2014 के अंतिम दिनों में देवास में मैंने एक नॉवेल लिखने की शुरुआत की थी। साल 2015  तक लिखने का प्रयास चलता रहा। देवास में ऑफिस के पास दो कमरों के किराए के घर में डेढ़- दो सौ पन्नों पर लिखाई भी हुई। टेकरी की दैवीय ऊर्जा और कुमार गंधर्व के निर्गुणी भजनों की वजह से बहुत हद तक मैं अपने नॉवेल की पृष्ठभूमि के आसपास ही था। फिर 2015 में नागपुर चला गया। नया चूल्हा, नई चौखट। नई सड़कें और एक नई खुश्बू ने मिज़ाज बदल दिया। इन सब के बावजूद आत्मा के एक कोने में इस नॉवेल के टेक्स्ट और इमेज दम भरते रहे। फिर 2016 में एक फ़िल्म आई मुक्ति भवन। अप्रैल 2017 में मुक्ति भवन रिलीज़ हुई। फ़िल्म का किरदार यहाँ वाराणसी घाट पर मरने चला आता है। उसकी अंतिम सांस की प्रतीक्षा के इर्द-गिर्द ही पूरी फिल्म की कहानी है। जिस दिन यह फ़िल्म देखी उसी दिन आत्मा में दबी नॉवेल की कहानी हमेशा के लिए दफ़न हो गई। दुनिया बहुत तेज़ चल रही है और हम बहुत सुस्त। अक्सर कुछ चीज़ें वक्त से पहले घट जाती हैं, कुछ इतनी देर से की वह बेवक़्त हो जाती हैं। दोनों ही तरह की स्थितियों में हमसे कुछ न कुछ छिन जाता है। कई दफ़ा कई मुआमलों में हमसे देर हो जाती है। अब लगता है हम पर मुनीर नियाज़ी की नज़्म ही मुफीद है।

 " हमेशा देर कर देता हूँ मैं, जरूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो, उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो, बदलते मौसमों की सेर में दिल को लगाना हो, उसे जाकर बताना हो, हमेशा देर कर देता हूँ मैं।"

देवास के उस अधूरे नॉवेल की मृत्यु के बाद नागपुर में  एक दूसरे नॉवेल की शुरुआत हुई है। धंतोली की उस ख़्वाबगाह से जहाँ मैं 26 महीने रहा। इक्यावन सीढ़ियों के बाद चौथी मंज़िल पर दो तरफ छतों वाले उस कमरे में। जहाँ मैंने सबसे ज़्यादा कविताएं लिखीं। मेरी अगस्त डायरी का एक बड़ा ब्लूप्रिंट वहीं लिखा गया।

- और अब साल के अंत में,

नागपुर से वापस इंदौर आने के छह महीनों बाद भी हालांकि इस नई नॉवेल के फूटनोट्स होल्ड पर हैं। लेखन पूरा जीवन माँगता है, जैसे जिंदगी भी पसरने के लिए बहुत जगह मांगती है।

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