कभी यूं भी तो हो
चलने की आहटें जहां
वहीँ तुम्हारी आंख के किनारों पर शाम
उंगलियों के पोर में दोपहरें हो
उंगलियों के पोर में दोपहरें हो
रात गुजरे महक कर
सुबह शीशे की परी हो
सुबह शीशे की परी हो
रोज सुबह काजल से
खींचों किनारों पर मुझे
रात उतारो आंखों से लेंस की तरह
खींचों किनारों पर मुझे
रात उतारो आंखों से लेंस की तरह
उस आधे अंधेरे वाली हथेलियों
उड़ते स्कार्फ़ की तरह जिंदगी हो
उड़ते स्कार्फ़ की तरह जिंदगी हो
इन सारे अंधेरे कमरों में
तुम्हारे उजाले गश्त करें
तुम्हारे उजाले गश्त करें
पत्ते टूटे पेड़ से
उम्र टूटकर यूं झरे।
उम्र टूटकर यूं झरे।
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