Saturday, June 18, 2016

कभी यूं भी तो हो


कभी यूं भी तो हो 

चलने की आहटें जहां 
वहीँ तुम्हारी आंख के किनारों पर शाम
उंगलियों के पोर में दोपहरें हो

रात गुजरे महक कर
सुबह शीशे की परी हो

रोज सुबह काजल से
खींचों किनारों पर मुझे
रात उतारो आंखों से लेंस की तरह

उस आधे अंधेरे वाली हथेलियों
उड़ते स्कार्फ़ की तरह जिंदगी हो

इन सारे अंधेरे कमरों में
तुम्हारे उजाले गश्त करें

पत्ते टूटे पेड़ से
उम्र टूटकर यूं झरे।


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