उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि हाँ उन्हें अपने जमाने की सुरैया से प्रेम था. उन्होंने सुरैया के सामने अपनी मोहब्बत का इज़हार भी किया. सुरैया भी देव आनन्द से प्रेम करती थी. लेकिन चीज़ें आगे घट नहीं सकीं. देव आनन्द ने इसके बाद यह भी कहा कि अब वे सुरैया को याद नहीं करते. वो अतीत में नहीं वर्तमान में रहने वाले इंसान है. वास्तव में जिंदगी उनके लिए धुएं की तरह थी. कहानियां उनके जीवन में भी घटती रही, जैसे हर किसी आदमी के जीवन में घटती है. लेकिन वे उन्हें छाटते और आगे निकलते गए हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाते हुए. उन्होंने कहा भी है कि उन्हें नियति में यकीन नहीं. इसीलिए उम्रभर अथक काम करते रहे. अपनी मौत के पहले उन्होंने यह भी इच्छा जाहिर कि थी की उन्हें मरने के बाद भारत ना ले जाया जाये. वही लन्दन में ही उनका अन्तिम संस्कार हो. इस के पीछे की वजह तो ठीक तरह से वही जानते है. लेकिन अटकलें तो यही लगाईं जा सकती है कि नौजवानों को वे अपने चहरे की झुर्रियां नहीं दिखाना चाहते होंगे. सच तो यह है कि देव आनन्द ने अपनी जिंदगी को आजादी के साथ जिया. बगैर इसकी गुलामी किए. इसलिए अतीत के जाले कभी उन पर कब्ज़ा नहीं कर सके. सुरैया की रूमानियत भी उन्हें फ़िक्र में नहीं डाल सकी और जीवन पर अपनी पकड़ बनाये रखी. राजू अपने रास्तों से ही जीवन का स्वामी बना. अतीत के जालों को तोड़कर और वर्तमान पर अपना कब्ज़ा बनाए रखकर. मौत आई भी तो बुढ़ापे का इंतज़ार करती रही.
Monday, December 5, 2011
मौत आई भी तो बुढ़ापे का इंतज़ार करती रही.
उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि हाँ उन्हें अपने जमाने की सुरैया से प्रेम था. उन्होंने सुरैया के सामने अपनी मोहब्बत का इज़हार भी किया. सुरैया भी देव आनन्द से प्रेम करती थी. लेकिन चीज़ें आगे घट नहीं सकीं. देव आनन्द ने इसके बाद यह भी कहा कि अब वे सुरैया को याद नहीं करते. वो अतीत में नहीं वर्तमान में रहने वाले इंसान है. वास्तव में जिंदगी उनके लिए धुएं की तरह थी. कहानियां उनके जीवन में भी घटती रही, जैसे हर किसी आदमी के जीवन में घटती है. लेकिन वे उन्हें छाटते और आगे निकलते गए हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाते हुए. उन्होंने कहा भी है कि उन्हें नियति में यकीन नहीं. इसीलिए उम्रभर अथक काम करते रहे. अपनी मौत के पहले उन्होंने यह भी इच्छा जाहिर कि थी की उन्हें मरने के बाद भारत ना ले जाया जाये. वही लन्दन में ही उनका अन्तिम संस्कार हो. इस के पीछे की वजह तो ठीक तरह से वही जानते है. लेकिन अटकलें तो यही लगाईं जा सकती है कि नौजवानों को वे अपने चहरे की झुर्रियां नहीं दिखाना चाहते होंगे. सच तो यह है कि देव आनन्द ने अपनी जिंदगी को आजादी के साथ जिया. बगैर इसकी गुलामी किए. इसलिए अतीत के जाले कभी उन पर कब्ज़ा नहीं कर सके. सुरैया की रूमानियत भी उन्हें फ़िक्र में नहीं डाल सकी और जीवन पर अपनी पकड़ बनाये रखी. राजू अपने रास्तों से ही जीवन का स्वामी बना. अतीत के जालों को तोड़कर और वर्तमान पर अपना कब्ज़ा बनाए रखकर. मौत आई भी तो बुढ़ापे का इंतज़ार करती रही.
Friday, December 2, 2011
तस्वीरें...
( युवा कवि और लेखक सोनू उपाध्याय द्वारा अपने अजीज दोस्त नवीन रांगियाल की कुछ पुरानी तस्वीरों को देखकर 19 जुलाई 2011 को सुबह 10 :15 बजे लिखे गए कुछ विचार जिन्होंने अचानक कविता का रूप धर लिया.) सोनू की अन्य कविताओं और आलेखों के लिए यहाँ क्लिक करें http://vimarshupadhyay.blogspot.com/
क्या कहूं तुम्हें
कि तुम जितने पुराने हो रहे हो
उतना ही ताजा बन पडे हो..
रंगों मे रहकर रंगहीन क्यों हो तुम
कि तुम्हारे होने न होने के बीच
हर बार तुम्हे एक नये रंग के साथ देखता हूं इन तस्वीरों में...
कोई गंध भी तो नहीं है तुम्हारी
फिर भी महकता हूं तुम्हें याद करते ही..
रहस्यमयी है तुम्हारी मुस्कान
कि तुम्हारे हंसते ही पृथ्वी सुस्ता लेती है थोडी देर
और समंदर मछलियों को थाम लेता है कुछ पल
हवा, आग, पानी सारे के सारे
मुठ्ठी भर इतिहास में मचल लेते हैं कुछ देर..
जानता हूं, बात केवल तस्वीरों की नहीं हो सकती
गल रही है जिंदगी
मोरी में रखे साबुन की तरह
और ठंडी हो रही है एक आग
जिसे पाल रहे थे हम अपने अंदर
सूरज को निगल जाने की होड में..
लेकिन क्या कहूं तुम्हें, जादूगर हो तुम
तोड चुके हो इस मायावी समय के हर तिलस्म को
इस दुनिया के गर्भवती होने के पहले से..
फैल रहे हो नदी, पर्वत पेड और फूल से लेकर
नवजातों की पहली मुस्कान में..
बडा अजीब लगता है तुम्हारा होना इस समय में
जब सांझ का घोसले में लौटना संदिग्ध हो
और डूब रही हो बैलों के घुंघरूओं की गूंज
हरिया के चेहरे पर चल रही घर्र-घर्र मशीन में..
चौपाल की चर्चा में बताया था मैंने
की सगे की मौत पर समुंदर के भीतर थे
और रोटी की तलाश में भटकते हुए
चिडिया के बच्चों को सिखा रहे थे संगीत..
वैसे कहना बहुत कुछ है तुम्हे
पर शेष है मुठ्ठी में समय, साथ बिताए दिन
और यह कविता..
जो सपनों में आती है बुजुर्गों और बच्चों के
ताकी बीते हुए पर मलाल न हो,
हंसकर खिले कोई नया फूल..
और तुम्हारी पुरानी तस्वीरों को देखकर
लोग दोस्तों को नम आंखों से याद कर सके..
क्या कहूं तुम्हें
कि तुम जितने पुराने हो रहे हो
उतना ही ताजा बन पडे हो..
रंगों मे रहकर रंगहीन क्यों हो तुम

कोई गंध भी तो नहीं है तुम्हारी
फिर भी महकता हूं तुम्हें याद करते ही..
रहस्यमयी है तुम्हारी मुस्कान
कि तुम्हारे हंसते ही पृथ्वी सुस्ता लेती है थोडी देर
और समंदर मछलियों को थाम लेता है कुछ पल
हवा, आग, पानी सारे के सारे
मुठ्ठी भर इतिहास में मचल लेते हैं कुछ देर..
जानता हूं, बात केवल तस्वीरों की नहीं हो सकती
गल रही है जिंदगी
मोरी में रखे साबुन की तरह
और ठंडी हो रही है एक आग
जिसे पाल रहे थे हम अपने अंदर
सूरज को निगल जाने की होड में..
लेकिन क्या कहूं तुम्हें, जादूगर हो तुम
तोड चुके हो इस मायावी समय के हर तिलस्म को
इस दुनिया के गर्भवती होने के पहले से..
फैल रहे हो नदी, पर्वत पेड और फूल से लेकर
नवजातों की पहली मुस्कान में..
जब सांझ का घोसले में लौटना संदिग्ध हो
और डूब रही हो बैलों के घुंघरूओं की गूंज
हरिया के चेहरे पर चल रही घर्र-घर्र मशीन में..
चौपाल की चर्चा में बताया था मैंने
की सगे की मौत पर समुंदर के भीतर थे
और रोटी की तलाश में भटकते हुए
चिडिया के बच्चों को सिखा रहे थे संगीत..
वैसे कहना बहुत कुछ है तुम्हे
पर शेष है मुठ्ठी में समय, साथ बिताए दिन
और यह कविता..
जो सपनों में आती है बुजुर्गों और बच्चों के
ताकी बीते हुए पर मलाल न हो,
हंसकर खिले कोई नया फूल..
और तुम्हारी पुरानी तस्वीरों को देखकर
लोग दोस्तों को नम आंखों से याद कर सके..
Sunday, September 18, 2011
ले एत्रेंजर
मैं चाय की उसी होटल में बैठा सिगरेट पी रहा था जहाँ हम अक्सर मिलते थे. चाय के लिए मैने लडके को आवाज लगा चूका था पर वह अभी तक चाय लेकर आया नहीं था. इसलिए मैंने सिगरेट सुलगा ली और अपने आसपास छोड़े गए चाय के जूठे गिलासों को देखने लगा. कभी कभी मेरा ध्यान रह रहकर अखबार के कागज़ के उन टुकड़ों पर चला जाता जो लोगों ने पोहे खाकर इधर-उधर फेंक दिए थे. अखबार के उन टुकड़ों में खबरों की हेडिंग्स पर नज़रें ठहर रही थी. कुछ ख़बरें पुरानी और कुछ बहुत पुरानी खबरें थी. कागज़ के टुकड़ों में कुछ खबरें कल ही की थी. यह देखते देखते अचानक एक विचार मन में आ गया कि ख़बरें कितनी भी बड़ी और ताज़ा ही क्यों हो नाश्ते के साथ परोसे जाने पर उनका कोई मूल्य नहीं होता. मैंने सिगरेट का आखिरी कश लिया और इसी दौरान मुझे उसका ख्याल आ गया ... फिर याद आया कि वो बस अभी आने ही वाली है. वो सामने से आती हुई नज़र आई. मुझे लगा यह उसका ख्याल भर ही है बस. लेकिन वो सचमुच सामने से आती हुई मुझ तक पहुँच रही थी. मैं बस उसे अपनी और आते देखता रहा ... बिलकुल विचार सून्य सा. लगा मेरे पास से होकर वो किसी दुसरे रास्ते की तरफ मुड जायेगी. मैं उससे मिलना नहीं चाह रहा था. दरअसल मैं खुद से मिलना नहीं चाह रहा था. यह बहुत मुश्किल था.
वह मेरे सामने आकर बैठ गई. सफ़ेद सलवार कुरता और बाजू में काला बैग लटकाया हुआ. बाल जैसे हलकी बारिश से थोड़े भीग से गए हो. लेकिन बरिश नहीं हुई थी. शायद नहाकर सीधे चली आ रही थी. जैसे उसने मुझे भांप लिया हो . क्यों मुझे देखकर ख़ुशी नहीं हुई. ऐसी तल्खी से उसने पहले कभी सवाल नहीं किया था. मैंने जवाब नहीं दिया. मैंने आवाज लगाईं ... एक चाय और लाना. लड़का इस बार जल्दी से चाय ले आया. मैंने अक्सर इस बात का अनुभव किया है कि जब कोई लड़की या महिला साथ हो तो होटल वाले नाश्ते या चाय का ऑर्डर लाने में जरा भी देर नहीं करते. लड़का चाय देकर एक दीवार के सहारे खड़ा हो गया और हम दोनों को निहारने लगा. शायद इसी तरह चाय- पोहे की जूठन और कांच के गिलासों की टन-टन से भरे अपने दिन के कुछ हिस्से को रूमानियत के साथ वे जीते है. वह चाय पीते हुए मुझे देख रही थी. इसमें देखने से अधिक घुरना था. कई दिनों बाद मुझ से मिल रही थी. उसे मुझ से कई बातें करना थी. मुझे खुशी होना चाहिए थी. वह मुझे मेरी अपनी बातें करने वाली थी. संगीत और किताबों की बातें. लेकिन मुझे इस बात की कोई ख़ुशी नहीं थी. मेरा दम घुट रहा था.किताबों की बदबू से मेरा जी घबराने लगा था. उसने अपना मुंह खोल दिया. कल रात मैंने शोभा गुर्टू की ठुमरी सुनी... " याद पिया की आये " मेरे कान फूटने लगे. लगा कानो से गरम शीशा रिसने लगा हो. उसे बोलने से मैं रोक नहीं सकता था. कहने लगी... यह ठुमरी ही है न ! तो फिर ख्याल क्या होता है ...? और दादरा..? मुझे कोफ़्त होने लगी. सर पर पसीने की बूँदें चमक आई. मतली सी आने लगी. लेकिन वो मुझ से बेपरवाह बस बोले जा रही थी. मैंने मुंह नहीं खोला. खोलता तो उलटी आ जाती. मैंने दूसरी सिगरेट सुलगना चाही इसलिए माचिस टटोलने लगा. उसे लगा अब मैं माचिस लेन के लिए उठूँगा या लड़के को आवाज लगाऊंगा. वह फिर बोलने लगी. वह पता नहीं क्या कह रही थी. उसके वाक्यों के बीच बीच में बस ये नाम सुनाई आ रहे थे ... बड़े गुलाम अली... आमिर खान साहब ... मेहदी हसन... मैं घर जाना चाहता था. लेकिन अब तक वो उबल पड़ी. और वापस लौटा रही थी. वो सब कुछ जो मैंने उसे दिया था. मुझे लगा किसी ने मेरा गला दबा दिया हो. उसने मुझे फिर चौंका दिया...! अरे हाँ...! कल रात को मैंने निर्मल वर्मा का नॉवेल पढ़ा ... वे दिन! कान से रिसता हुआ गरम शीशा अब कानों से होकर कन्धों तक चला आया. सीना धक् से रहा गया. कन्धों पर से रिसते हुए गरम शीशे और उसके गीलेपन को मैंने छूकर देखा तो मेरी उंगलियाँ लाल हो गई.
वह बोले जा रही थी ... बेपरवाह ... मानो अकेली हो और खुद से बातें कर रही हो. उसका ध्यान मेरी तरफ नहीं था. तपाक से बोली. और हाँ ! आज तो मैंने वो नॉवेल भी पढना शुरू की है. वो क्या नाम है उसका ... हाँ ! अल्बेयर कामू की ले एत्रंजर ...
हवा तेज़ हो गई. अखबार के टुकड़ों पर छपी खबरें इधर-उधर फडफडाने लगी... मेरा सीधा हाथ जोर से ऊपर उठा और तेज़ी से उसके गले की नली को छूता हुआ गुजर गया. खून का गरम फव्वारा मेरे मुंह पर मुझे महसूस हुआ. मैं चाय के गिलास के टूटे हुए टूकडे को हाथ से वहीं छोड़कर बाहर निकल गया.
Saturday, July 23, 2011
किश्तों के सहारे
अपने दोस्त सोनू उपाध्याय के साथ मुंबई में गुजारे कुछ खास दिनों की याद में...
अब लिखना है मुश्किल
उतना जितना प्रेम का मिल जाना
इस से तो अच्छा है कि टपक जाये एक आंसू छम से
और तुम सुन सको उसका गिरना
और तुम मुझे लेने आओ
उसी पहली बार की तरह
या फिर साथ चलो पटरियों के किनारों पर
या फिर साथ चलो पटरियों के किनारों पर
और बताओ मुझे कि देखो वो मरीन ड्राइव है और ये बेंडस्टैंड
सेकड़ों फास्ट और लोकल के बीच भी
कितने लोकल थे हम दोनों
इतना कि किसी को जानते नहीं थे
सिवाय एक दुसरे के
बस! यही एक जानकारी थी कि
बस! यही एक जानकारी थी कि
हम दोनों है
कैसे रहे हम इतने लोगों के बीच
सिर्फ अपना अपना होकर
तुम कितने तुम्हारे
और मैं कितना खुद मेरा था
मुश्किल है बहुत अब तुम्हारा नाम लेना
या तुम दोहराओ मुझे
इस से तो अच्छा है कि
हम खड़े रहें ट्रेन के इंतज़ार में
या गेट पर खड़े होकर सुने हवाओं को
या उतर जाये यूँही कभी हाजी अली पर
या भीग आयें खारे पानी में
और जब लौटे कमरे पर
तो हमारे पैरों की उँगलियों में रेत चिपकी हो
मैं सिगरेट पीता रहूँ
और तुम्हे
अच्छे लगे छल्ले उसके
या चलते रहे चर्चगेट की सड़कों पर
थककर हार जाने के लिए
चूर हो जाने तक
हम तस्वीरें नही
मांस और खूं भी नहीं
जादूगर तुम भी नहीं
मैं भी नहीं
पर जादू है कुछ
जिस से सांस आती है
सांस जाती है
तुम बस मेरा मिजाज लौटा देते हो
साल दर साल किश्तों की तरह
और में जिन्दा रहता हूँ
तुम्हारी चुकाई हुई उन किश्तों के सहारे
Saturday, May 14, 2011
कहाँ हो तुम
केन्टीन से होकर गुजरती
कॉलेज की वो गली
बेफिक्र, आवारा और अल्हड आवाजें
हरी घास पर लेटा हुआ पहला प्रेम
अकेली दोपहरें
होस्टल की दीवारों से सटकर
अठखेलिया करते शुरूआती चुम्बन
गर्मी के दिनों की शामें
बाहर से आयी उदास
अकेली लड़कियां
और कुछ मनचले लडकें
एक छोर पर
लड़कियों से घिरा अकेला अनुराग
लट्टू की तरह घुमती अनुभूति
गुमसुम पापिया कहाँ हो तुम
सेंकडों सायकिलों के बीच
चरित्र अभिनेता धीरज
किसी नए नाटक की फिक्र में
स्वांग रचता, संवादों को रटता बार बार
मंच पर बने रहने की चाह
रिच एंड फेमस।
बंद होंठो की चुप्पी
खामोश अफ़साने सी
मनीष की निधि कहाँ हो तुम.
रिच एंड फेमस।
बंद होंठो की चुप्पी
खामोश अफ़साने सी
मनीष की निधि कहाँ हो तुम.
बुझी सोनाली, उदास आरती
ठकुराइन नेहासिंह
अंजलि बसंती
तितली की तरह फुदकती स्वाति
देवि के सौन्दर्य कहाँ हो तुम
गाँव की मिटटी सा कैलाश
नया नया माडर्न सतना वाला इन्दोरी गौरव
नशे में चूर अय्याश मार्टिन
लड़कों सी हंसोड़ रागिनी
शर्मीली श्वेता कहाँ हो तुम
बाहर से देखता दुनिया को
बच्चो को बड़ा करता सोनू
अश्विनी से सपाट चेहरों
अधूरी कहानी सी प्रशस्ति कहाँ हो तुम
सेंट्रल लाईब्रेरी के सामने वाला छोटा पेड़
कच्ची पक्की दोस्ती या प्रेम
फल बनकर पक गए हो शायद
या हजारों उँगलियों के निशान
चिपके हो अभी भी पेड़ पर
सौरभ सुमना के प्रेम कहाँ हो तुम
दिल्ली की रूमानियत
चांदनी चौक की तंग गलियां
होटलों में पसरता बेपरवाह
सिगरेट का धुंआ
डायरियों में दबे गुलमोहर के फूल
कमरा न. 305
कहाँ हो तुम
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