Friday, October 15, 2010

सफ़ेद

वो सफ़ेद में थी
और मैं सफ़ेद में

उसकी आँखें
बहुत सारा काजल
पानी ...

बस की रफ़्तार

पीछे छुटते हुए
उस वक़्त के
पेड़, हवा

उस वक़्त की
एक नदी

आँखें ... काजल ... पानी
नशा ... क्या ...?
 
मैं जब्त होता गया

हासिल कुछ भी नहीं 
सिवाय सफ़ेद
और वक़्त के


खोया भी कुछ नहीं
सिवाय सफ़ेद
और वक़्त के

7 comments:

  1. superb!!!
    -awdhesh p singh

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  2. नवीन कविता में भाव प्रधानता इतनी है कि शब्द काफी कम और कविता पर भारी लग रहे हैं... बिम्ब बेहद सघन है तुमने पाठक के लिए जरा भी स्पेस नहीं छोडी है.. लगता है मानों केदारनाथ अग्रवाल की कोई कविता पढ रहा हूं.. पर कुछ अंतर है.. सच बताउं तो एक सामान्य पाठक की तरह मैं कुछ पकड ही नही पाया.. सफेद के बिम्ब के साथ तुम क्या कहना चाहते हो मैं नहीं समझ पाया हूं.. हां शायद कोई लडकी है.. बहरहाल, तुम्हारी अब तक कि सबसे अच्छी कविता नीचे वाली लगी..आधे-आधे हम दोनों और एक qजदगी ... इस कविता के ढेर बधाइयां...

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  3. काजल, सफेदी व समय छीन कर ले गया। सुन्दर भाव।

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  4. बेहतरीन पोस्ट .आभार !

    महाष्टमी की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !!

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  5. नवीन कविता में भाव प्रधानता इतनी है कि शब्द काफी कम और कविता पर भारी
    लग रहे हैं... बिम्ब बेहद सघन है तुमने पाठक के लिए जरा भी स्पेस नहीं
    छोडी है.. लगता है मानों केदारनाथ अग्रवाल की कोई कविता पढ रहा हूं.. पर
    कुछ अंतर है.. सच बताउं तो एक सामान्य पाठक की तरह मैं कुछ पकड ही नही
    पाया.. सफेद के बिम्ब के साथ तुम क्या कहना चाहते हो मैं नहीं समझ पाया
    हूं.. हां शायद कोई लडकी है.. बहरहाल, तुम्हारी अब तक कि सबसे अच्छी
    कविता नीचे वाली लगी..आधे-आधे हम दोनों और एक qजदगी ... इस कविता पर ढेर
    बधाइयां... सोनू उपाध्याय

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  6. बहुत दिनों बाद!
    यार ये कविता एकदम अपने मूड की है। ...पानी टपक ही न सका। बूँदें किसी के काजल में घुल कर रह गईं।

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  7. अमाँ फालतू के शब्द भी भरवाते हो और मॉडरेशन भी लगाए हो। खुद तो इतने कम शब्दों में लिखते हो!
    आगे से टिपियाना बन्द।

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