Friday, November 9, 2018

आंधी की तरह उड़कर एक राह गुजरती है,

आंधी की तरह उड़कर एक राह गुजरती है,

यह उन दिनों की बात है। जब गर्मियां शुरू हो गई थी। उस वक्त पतझर शुरू नहीं हुआ था हालांकि, फिर भी पेड़ों से पत्तों के खिरने की शुरुआत हो चुकी थी। हम सड़कों पर कई पत्तें यहां-वहां गिरे देखते रहे उन दिनों। इस शहर का ज्यादतर शोर हमारे जीवन का संगीत था।

आंधी की तरह उड़कर हर राह गुजरती थी। हर रात गुजरती थी।

हम सब लोग। बहुत सारे लोग जिनका वास्ता लहू से नहीं था, वो हम सब उसी अज्ञात डोर से बंधे हुए थे। फिर जब हम जवान होने लगे… उस वक्त हम सब सोचते थे, कि हम कहीं पहुंचेंगे- लेकिन हम कहीं नहीं पहुंचते हैं- हम सिर्फ अपनी जगहें खाली करते हैं। हम अपने कमरें खाली करते हैं, अपने क्लास रूम खाली करते हैं।

... और अंत में,

अंतत: हम सब का वास्ता सिर्फ मिट्टी से होता है, राख से होता है। जिनका लहू से वास्ता है और जिनका लहू से वास्ता नहीं है- वो हम सब उसी अज्ञात और जादुई गंध से जुड़े हुए हैं।
कुछ पुरानी चीजें हमारी यहां छूट जाती हैं। मैं सोच रहा हूं अतं में मेरे बाद यहां क्या छूटा रह जाएगा। पतझर, गर्मियां, हवा … राख या कुछ और या कुछ भी नहीं,

Sunday, October 28, 2018

सुप्रिया जैन … तुम्हारे बाद शेष दुनिया फिर से चलने लगती है।

… शेष दुनिया फिर से चलने लगती है।
मैं पीछे जाकर चप्पल घिसने की एक अंतिम आवाज सुनता हूं। मेडिक्लेम का एक आखिरी मैसेज पढ़ता हूं।

सुबह वहां कुछ नहीं था। भौर भी शाम जैसी। बहुत से चेहरों ने उदासी ओढ़ रखी थी। माथे को शिकन पहना रखी थी। कुछ लाइटें जल रही थीं रोज की तरह। कुछ लोग पौधों में पानी डाल रहे थे। फिर कुछ देर बाद अखबारों पर उंगलियां रगड़ने की आवाजें आईं। कुछ पन्नों के खरखराने की आवाजें। कुछ जगहों पर डार्क सर्कल उभर आए थे बगैर आवाज के।
इस भरी-पूरी चुप्पी में सबसे पहले एक खराश आई। फिर एक ठसका आया गला साफ करने के लिए। फिर चीनी का एक कप फर्श से टकराता है कमजर्फ। बेशर्म नल बहने लगता है माहौल के खिलाफ। चाय का उबलना बिल्कुल मुफीद नहीं होता ऐसे मौकों पर। उसकी खुश्बू तो बिल्कुल भी नहीं। फिर धीमें- धीमें की- बोर्ड का साहस बढ़ता है। वो खड़खड़ाने लगता है उंगलियों के नीचे। कुछ टेक्स्ट उभरने लगते हैं स्क्रीन पर। एक ऐसी भाषा उभर आती है कम्प्यूटर स्क्रीन पर जो इस दुनिया की नहीं है।
लेकिन खिलाफत इस दुनिया का उसूल है। इसलिए सबकुछ खिलाफ हो जाता है। चीनी का कप। नल। चाय। की-बोर्ड और अनजानी भाषा। सबकुछ।
दरअसल, ईश्वर भी अपने किए पर शर्मिंदा नहीं था। वो रोज की तरह शून्य में ताक रहा था। क्योंकि वह स्वयं एक शून्य है।
हम सोचते हैं कि हम चल क्यों रहे हैं। कहीं बैठ क्यों नहीं जाते एक जगह। लेकिन एक रिक्तता हमें अपनी बाहों में घेर लेती है। और उस रिक्तता से घबराकर हम वहां जाकर खड़े हो जाते हैं, जहां झूंड होते हैं। चलती- फिरती दुनिया के झूंड में।
एक मनहूस चुप्पी का राज़ जानना चाहते हैं सब। और इसी मनहूस चुप्पी का राज़ फिर से इस दुनिया को संचालित करने लगता है।
… शेष दुनिया फिर से चलने लगती है।
मैं पीछे जाकर चप्पल घिसने की एक अंतिम आवाज सुनता हूं। मेडिक्लेम का एक आखिरी मैसेज पढ़ता हूं।

Sunday, July 1, 2018

'लेड जेपलीन' अप-डाउनर म्यूजिक है, 'ओपेथ' के अपने क्वांसिक्वेंसेस है


मैने ज्यादातर म्यूजिक चलती हुई बसों और ट्रेनों में सुना। या फिर अप- डाउन करते हुए। इसलिए मैं मानता हूं कि दुनिया का ज्यादातर म्यूजिक सफर के लिए बना है। संगीत सबसे ज्यादा यात्राओं में प्रासंगिक है। यही बात बस और ट्रेन से होकर ट्रकों और कुछ ठेलों तक भी पहुंचती है।

कुछ गीत बसों में अच्छे लगते हैं। ट्रकों में बजने वाले गानों की तरफ भी कान चले जाते हैं। मैं ट्रेन में हमेशा हेडफोन लगाकर रहता हूं। कई बार ऐसा होता है कि देर तक कान में हेडफोन लगा रह जाता है, तब भी जब कोई म्यूजिक प्ले नहीं हो रहा होता हो।   

इसलिए लेड जेपलीन को मैं कभी ठहरकर नहीं सुन पाया। यह मेरे लिए अप- डाउन म्यूजिक है। करीब तीन साल तक रोज़ाना  33 किलोमीटर का अप-डाउन और जेपलीन का 'द रैन सॉन्ग'  'कश्मीर' ‘स्टेयर वे टू हेवन'  'इन माय टाइम ऑफ डाईंग'  'सिंस आई हेव बीन लविंग यू'... एंड सो ऑन। इस सब के बीच उपनगरीय बसों का शोर। एक नदी। विंदयाचल श्रंखला के पर्वत और कुछ पवन चक्कियां। एक निःसंग, अकेला और बहुत ही अजीब सफ़र। अजीब इस लिहाज़ से कि उस्ताद अमीर खां के घराने से कुमार गंधर्व के घराने की तरफ जाते हुए एक इंग्लिश रॉक बैंड लेड ज़ेपलीन को सुनना। रोज एक नदी से गुजरना। पहाड़ और दूर हवा में घूमती पवन चक्कियां देखना। बस के शीशे से बाहर धूएं से भरा एक धुंधला विस्तार।

लेड जेपलीन देह की परतें उतारता जाता है धीमे- धीमे। यह तब पता चलता है, जब देह खत्म हो जाती है और आत्मा में तब्दील होकर सामने खड़ी हो जाती है। फिर सिर्फ एक चीख बचती है। हवा में लटकी हुई। जिसे तुम बार-बार छूकर देख सकते हो। रॉबर्ट प्लांट की चीख। गिटार की स्ट्रिंग्स को छूती जिमी पेज की उंगलियां। जॉन पॉल जॉन्स, जॉन बोनहोम की बेखुदी और आधी रात के अंधेरे में जुगनुओं की तरह हज़ारों- लाखों फ्लैश लाइट में दमकता हुआ लेड जेपलीन का एक विशाल ब्लू स्टेज।

1968 के दौर में लंदन में फॉर्म किए गए इस इंग्लिश रॉक बैंड के खाते में करीब नौ स्टूडियो, चार लाइव और सौलह सिंगल एलबम हैं। हज़ारों रिकॉर्डेड लाइव शोज़ और वर्ल्ड म्यूजिक टूर। इनमें से कुछ ही अब तक सुने हैं, लेकिन बेखुदी के लिए इतने ही काफी है।


रॉबर्ट प्लांट को सुनते हुए यह यकीन होने लगता है कि उसकी चीख तुम्हारी चीख है। उसका रूदन, तुम्हरा दर्द। वह घावों को कुरेदता है, फिर मरहम भी लगाता है। मुझे नहीं लगता लेड ज़ेपलीन को सुनने के लिए कानों की जरुरत हो सकती है। उसे बगैर देह के सुना जा सकता है। आत्मा के साथ। मन की अंधेर सुरंगों और उसकी अतल गहराइयों में धँसते हुए।

लेड जेपलीन के बाद मैं ‘ओपेथ’ की ज़द में आया। स्वीडिश हैवी मेटल बैंड। 1989 में स्टाकहोम में बना यह बैंड मोटेतौर पर अपने डेथ मेटल और डेथ ग्रॉल्स के लिए जाना जाता है। डेथ मेटल हैवी म्यूजिक का एक जॉनर और डेथ ग्रॉल्स एक तरह का वोकल स्टाइल है। उदासी कितने लोगों को पसंद है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ओपेथ का एक स्टूडियो एल्बम ‘वॉटरशेड’ रिलीज के पहले हफ्ते में बिलबोर्ड रैंकिंग चार्ट में 23वें नंबर पर था। अपनी इसी स्टाइल के लिए यह बैंड मुझे हमेशा उदास करता है। एक मोर्बिड अवस्था या भाव में लेकर जाता है। हमारे कंट्री म्यूजिक और विदेशी रॉक या मेटल बैंड में यही एक अंतर है। मौत के बारे में लिखे ओपेथ के टेक्स्ट उदासी में लेकर जाते हैं, वहीं जब हम कबीर के निर्गुणी भजन सुनते हैं तो मृत्यु हमें एक उत्सव की तरह नजर आती है। जो अंतर सिमेट्री और शमशान घाट में है वैसा ही कुछ। सिमेट्री एक अंतहीन खामोशी और उदासी का भाव जगाती है, जबकि शमशान घाट वैराग्य उत्पन्न करते हैं। सिमेट्री बारिश और गर्मियों के दिनों में अलग-अलग महसूस होती है। गर्मियों में उजाड़, सूखे खरखराते हुए पत्तों से भरी एक सूनी जगह। बारिश के दिनों में सफेद रंग से पुती हुई कब्रें हरे पेड़ और पत्तों में डूबी और भीगी सी नजर आती हैं। वहीं शमशान सभी मौसम में एक जैसे नजर आते हैं। उन पर मौसम का कोई असर नहीं होता। वहां हर मौसम में सुलगती या बुझी हुई राख ही होती है।

यह ओपेथ का ही असर है। मैने म्यूजिक के बारे लिखने के लिए सिरा पकड़ा था, लेकिन दूसरा या अंतिम सिरा सिमेट्री और शमशान घाट तक ले आया। ओपेथ को सुनने के बाद ऐसा ही कुछ लिखा जा सकता है। राख की तरह ठंडा, बुझा और भटका हुआ आलेख। यही ओपेथ के क्वांसिक्वेंसेस हैं।

Friday, June 29, 2018

‘किस तरयां दिल लागे तेरा सतरा चौ प्रकास नहीं’


वादा दरअसल एक पुल है। एक ब्रिज। एक बार वादा कर लो तो फिर आगे बढ़ता जाता है। वादा अगर बहुत दिनों तक निभ जाए तो फिर वह कमिटमेंट बन जाता है। खुद के साथ एक कमिटमेंट। इसके बाद यह एक लंबे सफर में बदल जाता है। एक लंबे वक्त में। फिर एक दिन ऐसा होता है कि जिससे वादा किया गया है, वो भी उस वादे की कद्र न करे तो भी तुम उसे तोड़ना नहीं चाहोगे। अतीत में किया गया वादा अब तुम्हारे लिए कमिटमेंट है।
लंबे समय तक एक विचार पर टिके रहना। एक यात्रा पर चलते रहना वादा ही है।
मेरे लिए वादा एक लंबा पुल है। कोई ब्रिज। रेल की पटरियां भी। लंबी सड़कें भी वादा है। पुल एक चीज को या एक इंसान को दूसरे इंसान या चीज से जोड़ते हैं। रेल की पटरियां रात- रातभर कई किलोमीटर तक तुम्हारे साथ जागती हैं। साथ रहने का वादा निभाती हैं। तब तक, जब तक कि तुम्हारा स्टेशन नहीं आ जाता। लंबी सड़कें तुम्हें वहां तक पहुंचाती हैं, जहां तक तुम जाना चाहते हो।
वादा एक एक सिलसिला जिसे तुम तोड़ना नहीं चाहोगे। जिंदगी की एक लय। जैसे एक लंबा राग। कोई आलाप बहुत लंबा।
मामला यह है कि एक वादे के मुताबिक बहुत दिनों से शराब नहीं पी। सिगरेट भी नहीं।
अकेला आदमी पूरी दुनिया का चक्कर काटकर अंत में चाय के ठेले और सिगरेट की दुकान पर ही लौटता है। वो यहां अपने सारे आध्यात्म को फूंककर दुनिया के छल्ले बनाकर हवा में उड़ाता है। यही उसका सबसे बेहतरीन कर्म है। उसकी जिंदगी का सार भी।
प्रेम में लौटा हुआ आदमी यहीं आता है। प्रेम में चूका हुआ आदमी भी यहीं पहुंचना चाहता है। चाय और सिगरेट के ठेलों पर। जीने या जिंदा रहने के एफर्ट से जूझता आदमी भी अपना दिन यहीं से शुरू करता है। उसकी शाम भी यहीं इन्हीं ठेलों पर आखिरी कश के साथ ख़त्म होती है। जो लोग ध्यान - योग नहीं करते, उनके लिए चाय और सिगरेट के ठेले ही अध्यात्म के असली केंद्र हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि किसी आश्रम या कम्यून की तरह इनके नाम नहीं होते। ये राजू पान भण्डार हो सकते हैं। या कोई महाकाल टी सेंटर। सांसारिक आदमी के लिए यही ठेले मुक्ति के द्वार हैं।
अंततः मुझे लगता है। हर आदमी ऐसी जगहों पर जाना चाहता है। या तो अकेला होने के कारण या फिर अकेला होने के लिए।
बहुत सारे धूएं के बीच किसी ठेले पर प्लास्टिक या लकड़ी की पुरानी कुर्सी पर लंबी ताड़ मार कर बैठने की लत मुझे हमेशा से आकर्षित करती है। बुलाती है। मुझे यह नहीं पता कि ऐसा क्यों होता है। अकेला होने के लिए या अकेला होने के कारण।
इसी मोह के कारण मैं सिगरेट की दुकान के सामने पहुंच जाता हूँ। लेकिन ठिठक जाता हूं। फिर आगे बढ़ जाता हूं। मैं फिर से अपने वादे पर लौट आता हूँ। मैं लंबी सड़कों पर चलना चाहता हूँ पैदल। रेल की पटरियों के साथ हज़ारों किलोमीटर जागना चाहता हूँ रातभर। कोई वादा बन जाना चाहता हूँ। किसी बड़े ब्रिज़ की तरह। कोई पुल। एक बड़े और लंबे ब्रिज़ की तरह कोई वादा हो जाना चाहता हूँ।
पुल का यह वादा होता है कि वह तुम्हें इस तरफ से उस पार तक पहुंचाएगा।
सड़क का वादा है कि वो तुम्हें उस शहर तक ले जाएगी।
गली उसके मोहल्ले तक।
जिंदगी का वादा है कि वो उम्र से गुजरेगी और तुम्हें मौत तक ले जाएगी।
आसपास बहुत भीड़ है। बहुत शोर। अकेली खामोशियाँ भी। बुझी हुई आंखें। धारदार ज़बान। तरह- तरह की चीजें हैं जिंदगी में। वॉश बेसिन के नल की आवाज। की-बोर्ड की आवाजें। काम है। थकान भी। खूबसूरत अंगड़ाईयां और दोपहर की उबासियां भी। कॉफी की खूश्बू। बहुत सी घुटी हुई आवाजें। इमेजेस हैं। एक छद्म दुनिया मेरी आंखों के सामने चक्कर काट रही है। मैं भी इसी चक्र का हिस्सा हूं। लेकिन चक्कर काटते हुए चक्कर को देख भी पा रहा हूं। इस चक्कर को देखने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं।
मेरे सबसे पसंदीदा हरयाणवी गीत के टेक्स्ट याद आ रहे हैं। ‘किस तरयां दिल लागे तेरा सतरा चौ प्रकास नहीं’। मां पार्वती भूत भावन भगवान भोलेनाथ के प्रेम में हैं। वे उनके साथ रहने के लिए निवेदन कर रही हैं। भोलेनाथ उन्हें इनकार करते हैं। मेरे साथ तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। मेरे गले में सांप है। देह पर धूल राख और भभूत। भांग रगड़कर पीता हूं। तुम्हें मेरे साथ में कुछ हासिल नहीं होगा। मेरे जीवन में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे तेरा मन लगा रहे। भोलेनाथ कह रहे हैं। ‘किस तरयां दिल लागे तेरा सतरा चौ प्रकास नहीं’
अर्थात,
दुनिया में कहीं भी रौशनी नहीं है, चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा पसरा पड़ा है। मैं तेरे लिए ऐसा क्या करुं, कौनसा गीत गाऊं कि इस दुनिया में तुम्हारा दिल लगा रहे।

Thursday, June 14, 2018

आत्महत्याएं थ्रिल हैं !

आत्महत्याएं थ्रिल हैं !

कि लोग फिदा हो जाते हैं, और संत भी। महाराज भी,

कुछ मौतें ग्रेस होती हैं, कुछ निजात होती हैं। कुछ सनसनीखेज। ग्रेस से भरी मौतें अपने पीछे सबद छोड़ जाती है। एक गहरा ठंडा, रुका हुआ समय। निजात से भरी मौतें अपने पीछे झूठे विलाप छोड़ती हैं। वे मुक्ति का अहसास करा जाती हैं, जो लोग तंग रहते हैं, वे ऐसी निजात बख्शने वाली मौतों के बाद मुक्त हो जाते हैं, लेकिन उनके पास एक छद्म सुख रह जाता है।

कुछ मौतें सनसनीखेज होती हैं। एक साथ हजारों फ्लैश चमक जाते हैं। लाइट्स एक दूसरे में गलकर बह जाती हैं। एक अजीब सा सायरन हवा में उड़कर गुम हो जाता हैं। एक साथ हजारों– लाखों आंखें अचंभित होकर चमक जाती हैं। शून्य पर टिक जाती हैं एक खौफनाक नजर। हजारों बयान वायरल हो जाते हैं। गडमड बयान। झूठे- सच्चे और बोखलाए हुए बयान।

आत्महत्याएं थ्रिल हैं। उन लोगों के लिए जो जिंदा हैं। मरने वाले का थ्रिल उसी क्षण खत्म हो जाता है। उसी क्षण। जिस समय फंदा लगता है। एक योजनाबद्ध और औचक निर्णय के बीच झूल रहे विचार के हाथ जिस वक्त कांप जाते होंगे। एक निर्णय थरथरा जाता होगा।- और फिर दम तोड़ देता होगा। जिंदगी के लिए नहीं, मरने के लिए एक आखिरी एफर्ट।

अब अंत में हमारे पास इस तरफ एक थ्रिल है, एक मौत का थ्रिल। - और उस तरफ एक गर्म- गर्म नाल और बारुद की गंध के साथ कमरे में तैरता हुआ धुंआ।

दुनिया एक ही समय में एक साथ दो छोर पर खड़ी नजर आती है। मृत्यु और जीवन।

हम सब के लिए। इस तरफ आत्महत्याएं थ्रिल हैं। एक रोमांच और हवा में तैरती हुई एक सनसनीखेज खबर। 

कुछ तो इनवाइट करती होंगी आत्महत्याएं। उसके बुलावे में क्या टेम्पटेशन हो सकता है। कौन बुलाता है। किसको बुलाता है। सवालों के जवाब हैं। जवाबों के सवाल हैं। कोई गंध तो आती नहीं उस तरफ से। कोई तिल तो नजर आता नहीं उसके गाल पर। क्या आंखें खूबसुरत होंगी उसकी। या झूलती होंगी घटाएं उसके कंधों पर कि लोग फिदा हो जाते हैं, और संत भी। महाराज भी।

एक सुसाइड नोट

हवा में उड़ रहा है


थ्रिल में बदलकर

एक कविता बनकर

क्या टेम्पटेशन है

आत्महत्या का एक नोट


पढ़ना चाहते हैं

जिसे सब छूना चाहते हैं


जिस पर लिख गया है


समबडी शुड बी देअर

टू हैंडल ड्यूटीज ऑफ फैमिली

आई एम लिविंग

टू मच स्ट्रैस्ड आउट

फैडअप!


Friday, May 11, 2018

कन्फर्मेशन से बेहतर है आरएसी का टिकट


अंधेर रात। खिड़कियों से आती गर्म हवाएं। रातभर पटरियों पर थाप लगाती ट्रैन वक़्त को एक रिदम में पिरो रही हैं। लोहे की चोट से निकलने वाले इस संगीत को हमेशा के लिए अपनी 'प्ले लिस्ट' में शामिल किया जा सकता है।
चार सौ साठ किलोमीटर लम्बी यह पूरी रात एक लाइव कन्सर्ट में तब्दील हो गई है। कंसर्ट की रेड और ब्लू लाइट से इतर यहाँ खिड़कियों से बाहर अंधेरी और लैम्पपोस्ट की पीली रोशनियों का आलोक इस अंधेरे शो की संगत कर रहा है।

ऐसी ही किसी ऊंघती हुई रात में 'ऑपेथ' ने अपने रॉक की धुनें बनाई होगी। 'लेड ज़ेप्लिन' ने जेज़ तैयार किया होगा। व्हाइट पेपर पर लाइनों के बीच गीतों की नोटेशन उकेरी होगी।- हो सकता है ऐसे ही किसी अंधेरे में लेओनार्द कोहेन ने 'थाउजेंड किसेज़ डीप' गाया हो। या उसने लिखा हो कि 'डांस विद मी टू द एंड ऑफ लव'

कौन जानता है, मुक्तिबोध ने ऐसी ही किसी रात में 'चाँद का मुँह टेढा है' लिखी हो।

कौन जाने, रात की सारी कविताएं ऐसे ही अंधेरे में लिखी गई हों।

इस अंधेर शो के दीगर यहां ट्रैन के भीतर रात की सौदेबाजी चल रही है। सीट की और टिकटों की सौदेबाजी। उनींदी आंखों के साथ लोग कम्पार्टमेंट में टहल रहे हैं। कुछ अपनी जगह तलाश रहे हैं। कुछ टिकट जांचने वाले सरकारी रेलवे कर्मचारी को रिझा रहे हैं।

कुछ बूढ़े और मोटे लोग इसलिए सीट बदलना चाहते हैं, क्योंकि वे ऊपरी बर्थ पर नहीं चढ़ पा रहे हैं। मूत्र रोग से पीड़ित कुछ बेलौस महिलाएं बार-बार आ- जा रही हैं। कंपार्टमेंट कुछ बहुत गंदी उबासियों और कुछ बहुत खूबसूरत अँगडाइयों से भरा है।

नींद कई तरह की गंदगी और तकलीफों को रफ़ादफ़ा कर देती है। सोया हुआ आदमी जिंदगी की बहुत सी चीज़ों को स्किप कर देता है, जिसमे सुख और दुख दोनों शामिल है।

'कंफर्मेशन' से कई बार बहुत कुछ खो जाता है, जैसे प्रेम की स्वीकृति। इसके विपरीत 'आरएसी' और 'वेटिंग' से बहुत कुछ हासिल है।

कुछ साये बेवज़ह अंधेरे में भटक रहे हैं। नींद सबका शिकार करती है, जो नहीं सो रहे उनका भी। जिनके पास नींद है, उनके पास जगह नहीं। जिनके पास जगह है उनमें से ज्यादातर लोग पेशाब की तेज़ गंध से बेपरवाह गहरी नींद में हैं।

यह लिखते हुए फ्रांज़ काफ़्का की पंक्ति याद आ गई। 'राइटर्स स्पीक स्टेन्च'। शायद उनका यही मतलब हो, शायद यह मतलब न भी हो।
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Friday, April 27, 2018

हम हो शीशे की परी हो, घर परीखाना रहे

हम हो शीशे की परी हो, घर परिखाना रहे,

कितना अच्छा होता रतन सेव भंडार से ढाई सो ग्राम गांठिये खरीदते और कांच के गिलास लेकर छत की गैलरी में बैठ जाते। संजू गचागच गिलास खाली कर देता और अपना पंडित यारबाश खारमंजन में ही खुश रहता।

किसी शाम नहाकर निकल जाते लंबे, बहुत लंबे कहीं। ... और फिर लौटते सिगरेट और लिपस्टिक की गंध के साथ। कोई रात ऐसी होती कि मोहल्ले के लड़कों के साथ अलाव तापते रातभर। अश्लील बातें करते, गप्प मारते, चुटकुले मारते। गालियां देते खूब नंग- धड़ंग। फिर अलाव की लौ में शुद्ध होकर कबीर के निर्गुणी हो जाते। एक दम हल्के। जैसे पात गिरे तरुवर से। मिलना बहुत दुलहरा। ना जाने किधर गिरेगा प्रज्ञा पवन का रेला। जग दर्शन का मेला।

मगर ये हो न सका ...  ये हो न सका मेरी हमनफस। हम भटकते हैं, बहुत भटक गए हैं, दश्त ओ सेहरा में। जिधर से भी गुजरते हैं, कबीर ताना मारते हैं। ग़ालिब हर गली में पकड़ के हमें झकझोर देते हैं। नस दबा देते हैं। बार- बार याद दिलाते हैं ... यूँ होता तो क्या होता। हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है, वो हर एक बात पर कहना के यूँ होता तो क्या होता।

दुनिया का हर आदमी अपनी जगह छोड़कर जी रहा है, बाजू वाली गली में। वो अपनी ही दुनिया को खाए जा रहा है। डसे जा रहा है खुद को। अपने ही सत्य में डूब गया आदमी। दुनिया उतनी ही देर सत्य है, जितनी देर उसके होने को ज़ाहिर नहीं किया गया हो। ध्यान रखकर ध्यान नहीं किया जा सकता, वो तो घटता है। घटना ही दुनिया है। अपने आप घटते रहना। बाहर घटते रहना, भीतर घटते रहना। हम घट कहाँ रहे, हम तो भटक रहे पूरे प्लान के साथ। शिड्यूल्ड। अपने ही सत्य में खोए, उलझे मूरख।

हम सब अपनी जगह छोड़कर जी रहे हैं। अपने- अपने सत्य में डूबे गले तक।

लेखक समझता है दुनिया सिर्फ लिखने पर खड़ी है। पेंटर का विश्वास है कि दुनिया ब्लू है। ग्रीन है, ग्रे और लाल-पीली भी। किसी सरकारी स्कूल का मास्टर अपनी पूरी जिंदगी ज्ञान से घनघोर भ्रमित रहता है। उधर कविता अपने ही घर मे भूखी मर रही है। पेंटर फांके मार रहे हैं। एक कवि के मरने पर दुनिया खत्म नहीं होती, दुनिया उसकी मृत्यु के बाद भी कायम है, और आगे भी चलती रहेगी। मसलन, पंचर बनाने वाले कारीगर की मौत के बाद भी दुनिया जारी रहेगी। दुनिया लेखक की बपौती नहीं और किसी मैकेनिक या बेलदार के भरोसे भी नहीं।

कपड़े सिलने वाले टेलर की जिंदगी में भी संगीत है। वो अपने पैरों से हारमोनियम बजाता है। उसकी सिलाई मशीन से भी सुर निकलते हैं। उसकी दुनिया में भी संगीत है।

दुनिया का कोई एक सत्य नहीं। दुनिया एक सार्वभौमिक सत्य है। बहुत सारे सत्य से मिलकर एक दुनिया बनती है। इस पूरे सार्वभौम में कहीं प्रेम है, पाप भी। धर्म भी है, पाखण्ड भी। कर्म है, प्रारब्ध भी। इच्छा है, अनासक्ति भी। षडयंत्र भी, मदद भी। एक भोग रहा है, एक भुगत रहा है। एक जीवन के लिए प्रार्थना करता है, दूसरे को इससे निजात चाहिए। जिस समय कोई एक व्यक्ति एक सौ आठ मनके की माला जप रहा होता है, ठीक उसी वक़्त कोई एक देह से खेल रहा होता है। जिस समय एक व्यक्ति प्रेम में है, ठीक उसी क्षण दूसरा बलात्कार कर रहा है। यहां धूप की सुगंध है तो पसीने की गंध से भी दुनिया चलती है। पुरुष स्त्री होना चाहता है, स्त्री को मर्द होना है। पूरी दुनिया वाइस अ वर्स है। अपनी जगह छोड़कर एक दूसरे के खिलाफ। समदरसी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो। प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो।

जिंदगी का लुत्फ़ है, उड़ती रहे हर दम 'रियाज़'
हम हो शीशे की परी हो, घर परी खाना रहे।

#औघटघाट

कास्टिंग काउच का पश्चाताप

जिंदगी में होने वाले कई फेरबदल आदमी के भाग्य या दुर्भाग्य पर निर्भर हैं। वहीं जिंदगी के अधिकतर परिणाम आदमी के लिए गए फैसलों पर निर्भर हैं। भाग्य और दुर्भाग्य मोटे तौर पर हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन ज्यादातर फैसलें लेना या नहीं लेना हमारे हाथ में हैं।

करीब दस साल पहले 'कास्टिंग काउच' शब्द काफी प्रचलन में था, जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने मध्य काल में था या इस काल में प्रवेश कर रहा था। अभी फिर से ट्रोल हुआ है। राजनीति और सिनेमा में अपने खास मक़ाम पर पहुँची दो स्त्रियों रेणूका चौधरी और सरोज खान ने यह शब्द दोहराया है। कास्टिंग काउच कितना सही है, कितना गलत, यह बहस तो बिल्कुल विवेकपूर्ण नहीं हो सकती। लेकिन इन दो स्त्रियों की स्वीकारोक्ति या बयानों से यह तो साफ हो ही गया कि राजनीति हो या सिनेमा, समाज की हर इमारत के नीचे एक गंदी गटर बह ही रही है।

सिनेमा की सरोज खान ने कहा कि 'कम से कम बॉलीवुड में कास्टिंग काउच के बदले लड़कियों को रोटी तो मिलती है'। ज़ाहिर है, सरोज खान को या उनके आसपास रहने वाली महत्वकांक्षी लड़कियों को कभी न कभी इससे गुजरना पड़ा होगा।

रेणूका चौधरी ने कहा कि 'राजनीति भी कास्टिंग काउच के धंधे से अछूती नहीं है'। यह उनका सेंट्रल या जनरलाइज्ड आयडिया है। इससे यह साफ होता है कि शायद उनके साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ होगा, लेकिन उनकी जानकारी में है कि दिल्ली समेत देश की राजधानियों में ऐसा अक्सर होता रहा है।

मध्यप्रदेश की खांटी दिवंगत नेता जमुना देवी ने तो कई साल पहले सरोज खान और रेणूका चौधरी से बहुत ज़्यादा सनसनीखेज बयान दिया था, इतना कि बयान से स्त्री की देह की खाल भी उतर गई थी। उस बयान को तो दोहराया भी नहीं जा सकता।

मसला यह है कि उम्र का आधा आंकड़ा बिता चुकी यह महिलाएं अब इस समय में यह बयान क्यों दे रही हैं। क्या यह जवानी के दिनों में किए गए अपने समझौतों की बुढ़ऊ खीज की तरह नहीं है ? या समझौतों की सीढ़ी के सहारे मिली सफलता के प्रति पश्चताप के बयान नहीं हैं ?

सुनिए, जब आप काम मांगने गईं होगी, तो देह सुख की कामना में सदियों से प्रतीक्षा कर रहे पुरुष ने अपनी बाहें खोलकर आपके सामने पसारी होगी। यह आपके निर्णय की घड़ी थी। तब आपके पास एक क्षण था, जिसमे आप उसकी बाहों को उसी तरह सूना छोड़कर उसकी ख़्वाबगाह से बाहर आ जाती, तुम चाहती तो एक धारदार चाकू से पुरुष की सफ़ेद चादर लहुलूहान कर आती। लेकिन ग्लैमर की गंध और राजनीति की महक तुम्हें उसकी बाहों में खींच ले गए। तुमने अपनी नश्वर और छद्म जिंदगी की चमक के बदले अपने चरित्र के अमूल्य कुछ मिनट उसको बेच दिए। यह दीगर बात है कि अब वो महक सड़ांध मारकर तुम्हें परीशां कर रही है।

मेरा यकीन है की स्त्री या किसी लड़की को उसकी इज़ाजत के बगैर दुनिया को कोई पुरुष छू नहीं सकता। इसके विपरीत कोई पुरूष ऐसा करता है तो फिर वह पुरुष नहीं, बलात्कारी है। एक, मर्ज़ी के खिलाफ संबंध बनाना अपराध है। दो, प्रेम के साथ बहती हुई नदी। फिर तीसरा हुआ समझौता। कास्टिंग काउच। जिसका फैसला लेना आपके हाथ में था। लेकिन आपने कोई फैसला नहीं लिया। न तो ना कहने का फैसला लिया और न पूरी तरह से हां कहने का फैसला लिया। और वह एक समझौते में तब्दील हो गया। वही समझौता उम्र बीतने के साथ पीड़ा हो गया, आत्मग्लानि हो गया।

... तुम्हे समझौते की आत्मग्लानि नहीं, फैसले की आज़ादी चुनना थी, क्योंकि फैसलें कभी आत्मग्लानि नहीं देते, उनमें पश्चाताप नहीं होता।

#औघटघाट,

मैं हिंदु हूँ, इसे अंडरलाइन समझे,

मैं हिंदू हूँ। इसे अंडरलाइन समझें,

हर धर्म में एक बलात्कारी होता, एक संत। एक किलर है, एक सेवर। हर धर्म में कुछ शाकाहारी होते हैं, कुछ मांसाहारी। हर वर्ग में कुछ सभ्य है, कुछ ज़ाहिल।  समस्त गुणों और अवगुणों से मिलकर एक समूह का निर्माण होता है। कई संस्कृतियों से मिलकर एक समाज बनता। बहुत सी सभ्यताओं और मान्यताओं की कोख़ से धर्म का जन्म होता है। इसलिए किसी एक मनुष्य के गुनाह के लिए पूरे धर्म, पूरी संस्कृति या सभ्यता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। कतई नहीं।

हालांकि जब एक वर्ग, जाति, समूह या धर्म के लोग किसी एक ही अपराध को बार- बार दोहराएं तो वे गुनहगार हैं और जिम्मेदार भी। चोरी कर पेट भरने वाली कंजर जाति, पीटने के काम को मेहनत कहकर लूटने वाले आदिवासी समुदाय का एक हिस्सा और पूरी दुनिया में ज़ेहाद के नाम पर आतंक फैलाने वाले मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा इसका उदाहरण है।

इस वक़्त देश के कुछ लोग एक सिलेक्टिव पॉलिटिकल एजेंडे के शिकार हैं, ख़ास बात है कि उन्हें पता ही नहीं है कि वे इस एजेंडे के शिकार हो रहे हैं। जस्टिस फ़ॉर आसिफा ट्रोल हो रहा है। अपनी आत्मा के पास चिपकी हुई तख्तियों पर उन्होंने लिखा है '' मैं हिंदुस्तान हूँ और मैं शर्मसार हूँ।''

वे हिंदुस्तान और हिंदू होने पर शर्मसार हैं। क्योंकि कठुआ बलात्कार प्रकरण की चार्जशीट में आरोपी को हिंदू, घटनास्थल को मंदिर और पीड़ित को मुस्लिम लिखा गया है। चार्जशीट में खासतौर से अंडरलाइन किए गए इन तीन शब्दों से यह सनातन शैली खंडित, अपवित्र हो गई। उनके पूर्वजों का रक्त बदल गया, अब वे अपने माँ- बाप बदलना चाहते है और अब वे हिंदू नहीं रहना चाहते हैं। क्योंकि वे शर्मसार है।

अब मैं लिखता हूँ- मैं हिंदुस्तान हूँ, मुझे गर्व है। अगर आप शर्मसार है और गर्व करना चाहते हैं तो मुस्लिम धर्म अपना लें या ईसाई बन जाए या कुछ और जो आप चाहे। (इसे अंडरलाइन समझें)

हिंदू अपने पूरे जीवन में आत्मचिंतन की प्रक्रिया से गुजरता है। वह पश्चाताप करता है। आत्मचिंतन और पश्चाताप की यही प्रक्रिया उसे और ज़्यादा उदार बनाती है। जब कोई चींटी उसकी भोजन की थाली की तरफ बढ़ती है तो वह उसे धकेल देता है, इस प्रक्रिया में उसकी उंगलियों से चींटी मर जाती है। इस हत्या के लिए वह खुद को गुनहगार मानकर अपनी आत्मा पर एक तख्ती टांग लेता है। जिस पर लिखा होता है आत्मचिंतन और पश्चाताप। यहां तक ठीक है, लेकिन कुछ मूर्ख हिंदू स्वयं की आलोचना को इतनी दूर तक ले जाते हैं कि वे अपनी तख्तियों पर लिख देते हैं कि मैं हिंदुस्तान हूँ और हिंदू होने पर शर्मसार हूँ।

इस तरह एक सनातन जीवनशैली, पद्धति और सभ्यता कुछ मूर्खों की वजह से अपवित्र और खंडित हो जाती है। क्योंकि इस शैली से जीने वाले कुछ लोग एक खासतौर के प्रोजेक्टेड और सिलेक्टिव पॉलिटिकल एजेंडे के शिकार हैं। वे छाती पर तख़्ती और हाथ में कैंडल लेकर अपने ही हिंदू होने का मातम मानते हैं।

इस वक़्त, इस महामूर्खता के बीच सबकुछ खण्ड- खण्ड होने की प्रक्रिया में भी मैं हिंदू हूँ और गर्वित हूँ। इसे अंडरलाइन समझें।

#औघटघाट

Sunday, March 25, 2018

समदरिसि है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो

ठुमरी सुनी। ख़याल भी। इंदौर और देवास में स्टेज के सामने दरी पर बैठकर घण्टों सुना और जी भर के देखा भी उन्हें। लेकिन इन आयोजनों के दीगर कभी पकड़ में नहीं आए। बहुत ढूंढा। जुगत लगाई कि भजन खत्म होते ही पीछे के रास्ते से जाकर पकड़ लूंगा, लेकिन ग्रीन रूम के दरवाजे से निकलकर पता नहीं कब और कहाँ अदृश्य हो जाते थे। अक्सर यही हुआ। भजन गाकर निकलते ही या तो लोगों ने घेर लिया या अचानक से कहीं गायब हो जाते।
कई महीनों बाद एक दिन पता चला कि होशंगाबाद में रेलवे स्टेशन के आसपास घूमते नज़र आए हैं। सफ़ेद मैली धोती- कुर्ता पहने और गमछा डाले। निर्गुण पंडित कुमार गंधर्व के बेटे मुकुल शिवपुत्र। अधपकी दाढ़ी। तानपुरा कहीं दूर रखा है, जो बेहोशी में भी उनकी नज़र के घेरे में है। कोई कहता बीमार हो गए हैं- किसी ने कहा लड़खड़ा रहे हैं। पैर पर नहीं खड़े हो पा रहे हैं। मन हुआ कि चले जाऊं, लेकिन हिम्मत नहीं हो सकी- यह तय था कि जब तक इंदौर से होशंगाबाद पहुचेंगे, वे अदृश्य हो चुके होंगे। मामला उस दिन वहीँ दफा कर दिया। अच्छा भी हुआ- नहीं गए, अगर जाते तो संगत तो दूर रियाज़ भी कानों में नहीं पड़ता। अगले दिन खबर में थे कि भोपाल वालों ने उन्हें उठा लिया है। भोपाल में ख़याल केंद्र खोलेंगे और वहीँ रखेंगे। यह भी सिर्फ एक ख़याल ही रह गया।
फिर किसी दिन पता चला कि नेमावर में है नर्मदा किनारे। किसी बाबा की कुटिया में धुनि रमा रहे हैं। वहीं डेरा जमाया है। रात के अँधेरे में गौशाला के बाजू में बैठेते हैं। वहीं अँधेरे में भांग घिसते- घोटते हैं और कभी- कभार मन होता है तो गा भी लेते हैं। घाट से सटी उस कुटिया से तानपुरे और आलाप की हल्की खरज नर्मदा किनारों से टकराती है। किनारों के साम- सूम अंधेरे और नदी का संवलाई उजारा पंडित जी के उस रियाज का अभी भी गवाह होगा। शायद उस समय उन्होंने कुछ देर के लिए ही सही, नर्मदा किनारे अपना गाम बसाया हो।
फिर एक दिन भनक लगी कि हमारे पिंड इंदौर में ही हैं। एक अखाड़े में रह रहे हैं। उस दिन भी खूब ढूंढ़ा। पता लगाया कि कौनसा अखाड़ा है। किस मोहल्ले में हैं, किस उस्ताद को अपना चेला बना रहे हैं। कुछ नाम सुनने में आए- कल्लन गुरु व्यायामशाला। सुदामा कुटी व्यायामशाला या बृजलाल उस्ताद व्यायामशाला। इनमे से वे कहीं नहीं थे। दो- तीन दिन बाद पुख्ता सबूत मिले कि बड़ा गणपति के आगे पंचकुईया आश्रम में हैं। यहीं दाल बाटी खा रहे हैं। हनुमानजी के मंदिर के सामने। पंचकुईया अपने घर से दूर नहीं था। करीब पांच- छह किलोमीटर की दूरी पर बस। गाड़ी उठाकर निकल गए। बगैर देर किए चप्पल पहनकर। शाम का धुंधलका छा गया था। इंदौर का धुआं और धूल आदमी को फ़क़ीर बना देती है। घर से चप्पल पहनकर निकल जाओ तो खैरात में मिलने वाली इंदौर की धुंध-धूल से आदमी खुद को आधा कबीर महसूस करने लगता है। शाम साढ़े सात बजे पंचकुईया पहुँचे तो आरती की ध्वनि थी। घी के फाहों में भींजे दीयों में आग महक रही थी। सफ़ेद और भगवा धोती में अध् भींजे पुजारी स्तुति गान में थे। संध्या आरती और हनुमान चालीसा के पाठ की करतल ध्वनियां। अपना मन नहीं था लेकिन स्तुति में। फिर भी आरती खत्म होने तक इंतज़ार करना पड़ा। बीच- बीच में यहां- वहां देखते रहे। ताली बजाते हुए इधर- उधर नज़र फेरते रहे। किसी कुटी में कहीं नज़र आ जाए शिवपुत्र। कहीं से रियाज की या किसी आलाप की आवाज आ जाए। लेकिन सूना ही नज़र आया आश्रम। आरती खत्म होते ही पूछा किसी से- जवाब मिला जानकी महाराज से पूछ लो, उनको पता होगा। जानकी महाराज को ढूंढा तो वो अपने गमछे धो रहे थे। गमछों से उनके पानी झारने और सुखाने तक उनका इंतज़ार किया। फटका मारकर अपने कमरे से बाहर आए तो उनसे पूछा- पंडितजी कहाँ बैठे हैं। उन्होंने बताया कलाकार आए तो थे, लेकिन दोपहर में चले गए। दिल बैठ गया। हमने तस्दीक करने के लिए फिर पूछा- आप जानते हैं ना मैं किनके बारे में पूछ रहा हूँ - जवाब था, हां ! महाराज, शिवपुत्र आए थे, लेकिन चले गए। एक गाड़ी आई थी बैठकर चले गए। दो दिन यहीं भांग खाई, भजन गाये और आटा भी गूंथा। मैं समझ गया कि पंडितजी चले गए यहाँ से भी। थोड़ी- थोड़ी बदरंगी और बेरुखी के साथ लौट आए।
यह पंडितजी की ठुमरी और उनकी ख्याल गायकी से दीगर उनकी कबीरियत की संगत और उसे जानने के करतब थे, जो कभी कामयाब नहीं हुए। मौसिकी से परे उनकी बेफिक्री से हर किसी का राब्ता रहा है। मेरा कुछ ज़्यादा ही। बीच में एक सुर का अदृश्य तार तो जुड़ा ही रहा हमेशा, लेकिन संगत अब तक नहीं हो पाई। रियाज और आलाप तो बहुत दूर है। इसी बीच मुम्बई से कुछ फिल्म मेकर भी आये थे- वो पंडितजी पर डॉक्युमेंट्री बनाना चाह रहे थे। इस बहाने भी हमने उनको खूब खोजा-पूछा। देवास टेकरी पर 'माताजी के रास्ते' पर भी पूछा-ताछा। उनकी खोज में मुंबई वालों की मदद करने का मन कम और अपनी मुराद पूरी करने का इरादा ज्यादा था- इसलिए नेमावर से लेकर दिल्ली तक फोन लगाए, भोपाल भी पूछा, लेकिन कुछ नहीं हो सका।
फिलहाल मैं नागपुर में हूँ- उनका सुना है कि वे पुणे में हैं, लेकिन हमें अपने प्रारब्ध पर यकीन कुछ कम ही है - इसलिए वहां पुणे भी नहीं जा रहे। क्या पता वहां से भी भांग दबाकर कहीं रफूचक्कर हो जाए पंडित जी।
- मुकुल शिवपुत्र हाल मुकाम कहीं नहीं।

Sunday, March 11, 2018

उम्र घिसे, चप्पल घिसे, घिसे न इमां

खून में कुछ गर्म रवानी हो तो यकीं आए हम हिंदुस्तान में ही हैं, उम्र घिसे, चप्पल घिसे, घिसे न इमां तो तुम हिंदुस्तानी हो।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खां एक एटीट्यूड था। मैं उन्हें शहनाई वादक से भी पहले इसी एटीट्यूड के साये के तौर पर देखता हूँ। हद इस क़दर कि अपने हर दूसरे- तीसरे आलेख में उस्ताद का ज़िक्र बरबस ही साया हो जाता है। अपनी मौसिक़ी के बेइंतेहा ऊंचे दौर में उन्हें हज़ार दफ़े अमेरिका ने अपने यहां बसाने के जतन किए। अमेरिका की रॉक फेलर संस्था ने खां साहब से गुज़ारिश की थी कि वे उन्हें अपने देस में बसाने के लिए मरे जा रहे हैं। अगर वे अपना देस छोड़ अमेरिका आ जाएं तो वहां बनारस की तरह उनके मन माफ़िक माहौल अता फरमाएंगे। वहां उनके लिए आला दर्जे के साज़ ओ सामां होंगे। उनकी ज़रूरत की हर एक चीज़ एक ताली पर उनके सामने हाज़िर होंगी। लेकिन उस्ताद एक एटिट्यूड था। उन्होंने जवाब दिया कि  'अमेरिका में बनारस तो बसा दोगे, लेकिन वहां मेरी गंगा कैसे बहाओगे'। मैं देख सकता हूँ, घोर नाउम्मीदी के वक़्त में भी दो जलेबी और एक पैप्सी का शौक़ीन हिंदुस्तान का यह फ़नकार अपने एटीट्यूड के साथ अब भी जिंदा है, गर आपको नज़र नहीं आता तो यह दीगर मसला है।

इसी के इर्दगिर्द एक थी ललिता देवी, लालबहादुर शास्त्री की पत्नी। पीएनबी बैंक घोटाले के संदर्भ में एक ज़िक्र आया है उनका। आर्थिक, सामाजिक और नैतिक अराजकता के इस दौर में यह बानगी बिल्कुल मुफ़ीद नहीं है। इस मिसाल का कौड़ीभर मोल नहीं। फिर भी, ज़िक्रभर जो था तो कर रहा हूँ। अपने प्रधानमंत्री रहते हुए शास्त्री जी ने समय की बचत को ध्यान में रखते हुए फ़िएट कार खरीदने का मन बनाया था, लेकिन उस वक़्त उनके पास कुल जमा सात हज़ार ही थे और कार की कीमत बारह हज़ार। पांच हज़ार का कर्ज़ शास्त्री जी ने इसी बैंक से लिया था जिसकी दुर्गति नीरव मोदी कर गया। कार खरीदने के एक साल बाद ही शास्त्रीजी की मृत्यु हो गई। इंदिरा गांधी ने बैंक को कर्ज माफ़ी की पहल की, लेकिन शास्त्रीजी की पत्नी ललिता देवी ने इनकार कर दिया और सालों तक इस कर्ज को अपनी पेंशन से चुकता कर दिया। छोटे कद के शास्त्री जी अपने एटीट्यूड में बड़े थे, ऐसा सुना था, लेकिन पत्नी ललिता देवी ऐसे एटीट्यूड की माँ- बाप थीं।

इन किस्सों का यूँ मोल तो कुछ भी नहीं, की हम सबको अपने एकाउंट में 15 लाख की प्रतीक्षा जो है। बावजूद इसके इन किस्सों से गर मेरे और तुम्हारे ख़ून में कुछ गर्म रवानी महसूस हो तो यकीं आए की हम हिंदुस्तान में ही रहते हैं।

उम्र घिसे, चप्पल घिसे, घिसे न इमां तो तुम हिंदुस्तानी हो।

प्रिया प्रकाश

रोशन अब्दुल रऊफ फिलहाल प्रिया प्रकाश से ज्यादा सुखी है। क्योंकि वो नहीं है। वो देश के 70 एमएम के पर्दे पर होकर भी इन्विज़िबल है। प्रेम में होना हर बार इतना भी सुखकर नहीं होता, भले ही वो एक तरफा ही क्यूं न हो।

ज्यादातर जमात उसकी कारी आंखों में डूब गई है। देश उसकी आइब्रो के साथ ऊपर- नीचे हो रहा है। 26 क्षणों के वीडियो में उसने सिर्फ एक बार आंख मारी थी, लेकिन अब करीब 40 लाख बार से ज़्यादा वायरल हो चुकी प्रिया इतनी ही बार आंख मार चुकी हैं, करीब इतनी ही बार पिस्तौल चला चुकी हैं। 18 साल की यह लड़की 24 घण्टों में 25 बार साक्षात्कार दे चुकी हैं। नेशनल न्यूज़ चैनल लड़की से अब भी आंख मारने की गुजारिश कर रहे हैं। वो कभी पिस्तौल चलाती हैं, कभी गाना भी गाती हैं। इंस्टाग्राम पर 30 लाख फॉलोवर्स के साथ उसे वायरल गर्ल, नेशनल क्रश ऑफ इंडिया और वैलेंटाइन गर्ल के खिताब से नवाजा जा चुका है। यूँ कहें तो बेहतर, की ये समय अपने चरम पर है।

लड़की को अपनी फेम भारी पड़ रही है। - 'उससे जब पूछा जाता है की कैसा लग रहा है, तो वो कहती हैं, खुशी हो रही है, लेकिन उसकी आत्मा कह रही है क्षमा कर दो, गलती हो गई। पूरा मीडिया मिलकर इस बाला को करप्ट कर देगा। दरअसल, दुनिया तो एक ही है, फिर भी सबकी अलग- अलग है। प्रिया प्रकाश वारियर की अलग और रोशन अब्दुल रऊफ की दुनिया अलग।

प्रिया अपने ट्रोल में दुखी है, रोशन अब्दुल रऊफ अपने नहीं होने में ज़्यादा सुखी है।

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आंख का रंग

वहां से दूर 
बहुत दूर
यहां इस तरफ 
तुम क्या जानो, याद क्या होती है

आंख का रंग कैसे याद करना पड़ता है
कितना खपना पड़ता है
काले और कत्थई के बीच

कितनी कोशिशों के बाद 
मुझे अब भी तुम्हारी आंखों का रंग याद नहीं 

आँखों की स्मृति में एक उम्र बीत सकती है

और वो वादा
जो आंखों में किया था
की हम कभी भी
कॉफ़ी नहीं पिएंगे अकेल- अकेले
और कोई सपना भी नहीं देखेंगे

ये फासलें न हो तो
आंखों के रंग पर दीवान लिखे जा सकते हैं

तेज़ हवा में गालों से रिसता हुआ तुम्हारा आई लाईनर
यहां एक मुद्दत की तरह है मेरे पास

एक गहरी बहती हुई लकीर
जो हर सुबह तुम अपनी आंखों के पास खिंचती हो
शाम तक खुद ब खुद अपने ही पानी में डूब जाती है।

मुझे याद है
तुम्हारे कमरे के रोशनदान के पास
कैसे इकट्ठा हो जाते हैं कबूतर
और हर सुबह तुम्हें जगा देते हैं

तुम रोज कबूतरों के ख़िलाफ़ शिकायतें करती थी
मैं तुम्हारी वो सारी शिकायतें सुनता रहा हूँ

बावजूद इसके की 
ज़्यादातर धूसर भूरे कबूतर मेरी कविताओं का बिंब हैं।

याद है तुम्हें
एक बार तुम्हारी कमर के ताबीज़ के धागे को बांधने में उंगलियां कितनी उलझ गईं थी मेरी,



Monday, March 5, 2018

विकल्प त्यागी की मृत्यु

बहुत उदास दिन था, अलसाया हुआ बगैर धूप का दिन। विकल्प त्यागी। पत्रकारिता में मेरा एक जूनियर। कुछ साल पहले जब मैं पीपल्स समाचार में काम करता था, विकल्प मेरा ब्लॉग 'औघट घाट' पढ़कर मुझसे मिलने आया था। उसके साथ मेरा एक दूसरा जूनियर मयंक शर्मा भी था। बोला आपका ब्लॉग पढ़ता हूँ। आप अच्छा लिखते हैं। मैं भी लिखता हूँ, और खूब पढ़ता हूँ। उस दिन उससे बहुत बातें हुईं। फिदेल कास्त्रो पसंद है बहुत। आजकल चे ग्वारा को पढ़ रहा हूँ। आप भी पढ़िए प्लीज़। उनकी 'मोटरसायकल डायरी'  ऑर्डर की है। वगैरह, वगैरह। उत्साह से भरा विकल्प खूब पढ़ना- लिखना चाहता था। बाद में शायद चे की 'मोटरसाइकिल डायरी' से प्रभावित होकर ही उसने अपना फेसबुक नाम 'जिप्सिज़ स्टोरी' रखा हो। इस मुलाकात के बाद वो हमेशा मुझे इनबॉक्स में पढ़ने लिखने और किताबों की बातें करता रहा। मुझे निर्मल वर्मा का भूत कहता था। और मैं इस तारीफ से भर जाता था।

आज शाम को मेरी एक पोस्ट पर प्रणय रघुवंशी (लखन) का कमेंट मिला। 'विकल्प नहीं रहा' यह संयोग ही था कि मृत्यु पर ही आज मैंने अपनी एक पोस्ट शेयर की थी। कुछ देर बाद प्रणय ने फ़ोन कर विकल्प के बारे में बताया। अच्छा लिखने और पढ़ने वाला एक लड़का नहीं रहा। जिप्सी का सफर थम गया।

मृत्यु एक चुप्पी है, एक ठंडी गहरी नींद। वहां कुछ नहीं है- कुछ भी नहीं। किसी की मृत्यु के बाद कुछ भी शेष नहीं बचता। न कोई कहानी, न कोई पेंटिंग और न ही कोई कविता। लेकिन लिखने वाले यहाँ भी शब्दों का सौंदर्य ढूंढ लेते हैं। ब्यूटी ऑफ टेक्स्ट। मौत में अटका लिखने का सुख। यह भी एक भोग है। मैं भी ऐसे लोगों में से हूँ जो अक्सर लिखने के लिए मृत्यु जैसे 'सब्जेक्ट' को चुन लेते हैं। - और ऐसा कर के मृत्यु शब्द को ही नष्ट कर देते हैं। इसे घटा देते हैं, कम कर देते हैं। क्योंकि मौत को कहीं से नापा नहीं जा सकता। इसकी लंबाई- चौड़ाई को तय करने का कोई सिरा नहीं। किसी भी तरह की गवाही मृत्यु के लिए उचित नहीं। न कोई शब्द, न ध्वनि। न सांत्वना, न दुःख, न विलाप। मृत्यु एक मृत तटस्थता चाहती है। मृतप्रायः भाव। या मृतप्रायः भावहीनता। जहां कोई हलचल नहीं। कोई प्रतिक्रिया नहीं। जैसे कोई शून्य, या फिर कोई शून्य भी नहीं।

जिंदगी के कई नोट्स होल्ड पर हैं

नेपाल में काठमांडू घाटी के पास बागमती नदी बहती है। हिंदुओं और बुद्धिष्ट के लिए यह पवित्र नदी है। खासतौर से हिंदुओं के लिए। कई हिन्दू यहाँ अपने अंतिम दिनों में अपनी देह त्यागने आते हैं। जातक को जब यह लगने लगता है कि अब उसका अंतिम समय निकट आ गया है तो वह घरवालों के साथ यहां मरने के लिए पहुंच जाता है। मान्यता है कि इस नदी किनारे प्राण पखेरु हुए तो मुक्ति को प्राप्त होंगे। नेपाल और भारत से कई लोग यहां पहुँचते हैं और मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं। दो, चार या आठ दिनों में जो मर गए सो मर गए। जो नहीं मर सके वे बेरंग लौट जाते हैं। मानो रेल का टिकट तो खरीद लिया, लेकिन स्टेशन से रेल छूट गई, तो घर वापस लौट आए। जो मृत्यु को प्राप्त नहीं हो पाते वो निराश घर लौट जाते हैं।

- क्या समृद्ध दर्शन है हिन्दू धर्म का, इस संस्कृति का। मृत्यु के इतने करीब आकर सिर्फ हिन्दू ही इतना रचनात्मक, इतना बेलौस हो सकता है। इतनी भयावह, ठंडी और रहस्य से भरी मृत्यु के प्रति इतना उदार हिन्दू के अलावा कोई है?

- सदियों से सवालों में घिरी मौत के रहस्य को सिर्फ हिंदू दर्शन ही मुक्ति शब्द का इस्तेमाल कर चुटकियों में हल कर सकता है। -उसे सिर्फ मुक्ति शब्द का उच्चारण मात्र करना है।

बागमती नदी को लेकर हिंदुओ की इस मान्यता के बारे में मैंने कई साल पहले डिस्कवरी के टैबू सीरीज में जाना था। इसी मान्यता को पृष्टभूमि में रखकर साल 2014 के अंतिम दिनों में देवास में मैंने एक नॉवेल लिखने की शुरुआत की थी। साल 2015  तक लिखने का प्रयास चलता रहा। देवास में ऑफिस के पास दो कमरों के किराए के घर में डेढ़- दो सौ पन्नों पर लिखाई भी हुई। टेकरी की दैवीय ऊर्जा और कुमार गंधर्व के निर्गुणी भजनों की वजह से बहुत हद तक मैं अपने नॉवेल की पृष्ठभूमि के आसपास ही था। फिर 2015 में नागपुर चला गया। नया चूल्हा, नई चौखट। नई सड़कें और एक नई खुश्बू ने मिज़ाज बदल दिया। इन सब के बावजूद आत्मा के एक कोने में इस नॉवेल के टेक्स्ट और इमेज दम भरते रहे। फिर 2016 में एक फ़िल्म आई मुक्ति भवन। अप्रैल 2017 में मुक्ति भवन रिलीज़ हुई। फ़िल्म का किरदार यहाँ वाराणसी घाट पर मरने चला आता है। उसकी अंतिम सांस की प्रतीक्षा के इर्द-गिर्द ही पूरी फिल्म की कहानी है। जिस दिन यह फ़िल्म देखी उसी दिन आत्मा में दबी नॉवेल की कहानी हमेशा के लिए दफ़न हो गई। दुनिया बहुत तेज़ चल रही है और हम बहुत सुस्त। अक्सर कुछ चीज़ें वक्त से पहले घट जाती हैं, कुछ इतनी देर से की वह बेवक़्त हो जाती हैं। दोनों ही तरह की स्थितियों में हमसे कुछ न कुछ छिन जाता है। कई दफ़ा कई मुआमलों में हमसे देर हो जाती है। अब लगता है हम पर मुनीर नियाज़ी की नज़्म ही मुफीद है।

 " हमेशा देर कर देता हूँ मैं, जरूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो, उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो, बदलते मौसमों की सेर में दिल को लगाना हो, उसे जाकर बताना हो, हमेशा देर कर देता हूँ मैं।"

देवास के उस अधूरे नॉवेल की मृत्यु के बाद नागपुर में  एक दूसरे नॉवेल की शुरुआत हुई है। धंतोली की उस ख़्वाबगाह से जहाँ मैं 26 महीने रहा। इक्यावन सीढ़ियों के बाद चौथी मंज़िल पर दो तरफ छतों वाले उस कमरे में। जहाँ मैंने सबसे ज़्यादा कविताएं लिखीं। मेरी अगस्त डायरी का एक बड़ा ब्लूप्रिंट वहीं लिखा गया।

- और अब साल के अंत में,

नागपुर से वापस इंदौर आने के छह महीनों बाद भी हालांकि इस नई नॉवेल के फूटनोट्स होल्ड पर हैं। लेखन पूरा जीवन माँगता है, जैसे जिंदगी भी पसरने के लिए बहुत जगह मांगती है।