क्या बुरे दिन आ गए थे. कितने मंदिर गए। दरगाह पर मत्था टेका। ताबिज बंधवाए कि यह पत्रकार बनने का भूत भाग जाए पर कोई फायदा नही हुआ। घर वालो ने भी अपना सारा जोर लगा दिया। कई नीम - हकीमो को हमे दिखाया पर यह तो होनी थी इसे कौन टाल सकता था भाग मै लिखा कोई टाल सकता है क्या भला. इसी संकट की घड़ी मै आपकी एंट्री हुई बाबा. वाह बाबा आपकी महीमा ही न्यारी है आपने भूखे कलमकारो के मूह मै हाथ डाल दिया है अब मै आपके क्या गुण गाउ आपने तो सभी छोटे - बड़े कलमकारो के के वारे - न्यारे कर दिए . क्या उंचे , क्या नीचे , क्या काम वाले , क्या बेकाम . आपने तो सभी की प्यास बुझा दी , सबकी भूख मिटा दी बाबा . कसम बाबा भोलेनाथ की आप भगवान भोलेनाथ से कम नही . जेसे उन्होने अमृत- मंथन से निकला जहर पीया था वेसे ही आप भी हम सब छोरे - छपाटों के सीने मै उबलता हुआ जहर पीने आ गए हो . क्या दिन थे कसम से . हमे कोई नही पूछता था . ना ही कोई हमारा नाम ही लेता था . लिखने के लिए गली - गली , मोहल्ले - मोहल्ले भटकते थे . छटपटाते थे . कभी यह दैनिक तो कभी वो सांध्य. मगर कोई भी कागद कारा हमारे पेट की भूख और मन की ताप शांत करने नही आया . एक आप ही हमारे खेवनहार बनकर आए हो . अब आप ही हमारे माई - बाप और आप ही हमारे अन्नदाता है . आप ही हमारी कलम की लाज रख सकते है. जितना जो कुछ , थोड़ा बहुत हम जानते है वो लिख सकते है . आपके सामने उगल सकते है . इसे अब आप ही पचा सकते है . हे बाबा ब्लॉगनाथ आपको कसम हे बाबा भोलेनाथ की . आपको हमारा यह जहर भी पीना पड़ेगा और हमे जिंदा रखना पड़ेगा. नही तो हम किधर जायेंगे . अपनी पीर किसे बतायेंगे. क्या करेंगे . कहाँ हम अपना जहर उगलेंगे. सारे अखबारों, पत्रिकाओ पर तो इन तमाम साहित्यकारों और लेखकों ने अधिग्रहण कर लिया है. अब इन्हे कौन समझाए कि यह अधिग्रहन भी सिंगुर और नंदीग्राम जेसा ही है. इन साहित्य्कारो और लेखको मे कुछ तो मर - खप गए है फिर भी अपनी कब्रो मै से निकल - निकल कर हमारी लिख्ने की जो थोड़ी - बहुत स्पेस है वो भी छीन लेते है . और जो जिंदा है वो बार - बार अपना फन उठाकर ऐसा जहर उगलते है कि हम नये- नवेले , अज्ञानी , अभाशी , अधर्मी छोरे - छपाटे डरकर , दुबक कर ऐसा मूह बना लेते है कि हमारे चेहरे पर पत्रकार होने का कोई लक्षण ही नजर ना आए . वेसे भी इन साहित्यकारों के डर से हम अपने पत्रकारिक और लेखकिय गुण उजागर नही कर पाते है उपर से इसके ( पत्रकारिता ) के लक्षण भी इनके खौफ से हमे छुपाना पड़ते है. ऐसे मै हम किधर जाते , कहाँ अपनी कलाकारी दिखाते , कौन हमारी लिखी बांचता. अब आप ही बताओ बाबा ब्लॉगनाथ हुए ना आप हमारे बाबा भोलेनाथ .
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Friday, July 3, 2009
बाबा ब्लॉगनाथ की जय हो
क्या बुरे दिन आ गए थे. कितने मंदिर गए। दरगाह पर मत्था टेका। ताबिज बंधवाए कि यह पत्रकार बनने का भूत भाग जाए पर कोई फायदा नही हुआ। घर वालो ने भी अपना सारा जोर लगा दिया। कई नीम - हकीमो को हमे दिखाया पर यह तो होनी थी इसे कौन टाल सकता था भाग मै लिखा कोई टाल सकता है क्या भला. इसी संकट की घड़ी मै आपकी एंट्री हुई बाबा. वाह बाबा आपकी महीमा ही न्यारी है आपने भूखे कलमकारो के मूह मै हाथ डाल दिया है अब मै आपके क्या गुण गाउ आपने तो सभी छोटे - बड़े कलमकारो के के वारे - न्यारे कर दिए . क्या उंचे , क्या नीचे , क्या काम वाले , क्या बेकाम . आपने तो सभी की प्यास बुझा दी , सबकी भूख मिटा दी बाबा . कसम बाबा भोलेनाथ की आप भगवान भोलेनाथ से कम नही . जेसे उन्होने अमृत- मंथन से निकला जहर पीया था वेसे ही आप भी हम सब छोरे - छपाटों के सीने मै उबलता हुआ जहर पीने आ गए हो . क्या दिन थे कसम से . हमे कोई नही पूछता था . ना ही कोई हमारा नाम ही लेता था . लिखने के लिए गली - गली , मोहल्ले - मोहल्ले भटकते थे . छटपटाते थे . कभी यह दैनिक तो कभी वो सांध्य. मगर कोई भी कागद कारा हमारे पेट की भूख और मन की ताप शांत करने नही आया . एक आप ही हमारे खेवनहार बनकर आए हो . अब आप ही हमारे माई - बाप और आप ही हमारे अन्नदाता है . आप ही हमारी कलम की लाज रख सकते है. जितना जो कुछ , थोड़ा बहुत हम जानते है वो लिख सकते है . आपके सामने उगल सकते है . इसे अब आप ही पचा सकते है . हे बाबा ब्लॉगनाथ आपको कसम हे बाबा भोलेनाथ की . आपको हमारा यह जहर भी पीना पड़ेगा और हमे जिंदा रखना पड़ेगा. नही तो हम किधर जायेंगे . अपनी पीर किसे बतायेंगे. क्या करेंगे . कहाँ हम अपना जहर उगलेंगे. सारे अखबारों, पत्रिकाओ पर तो इन तमाम साहित्यकारों और लेखकों ने अधिग्रहण कर लिया है. अब इन्हे कौन समझाए कि यह अधिग्रहन भी सिंगुर और नंदीग्राम जेसा ही है. इन साहित्य्कारो और लेखको मे कुछ तो मर - खप गए है फिर भी अपनी कब्रो मै से निकल - निकल कर हमारी लिख्ने की जो थोड़ी - बहुत स्पेस है वो भी छीन लेते है . और जो जिंदा है वो बार - बार अपना फन उठाकर ऐसा जहर उगलते है कि हम नये- नवेले , अज्ञानी , अभाशी , अधर्मी छोरे - छपाटे डरकर , दुबक कर ऐसा मूह बना लेते है कि हमारे चेहरे पर पत्रकार होने का कोई लक्षण ही नजर ना आए . वेसे भी इन साहित्यकारों के डर से हम अपने पत्रकारिक और लेखकिय गुण उजागर नही कर पाते है उपर से इसके ( पत्रकारिता ) के लक्षण भी इनके खौफ से हमे छुपाना पड़ते है. ऐसे मै हम किधर जाते , कहाँ अपनी कलाकारी दिखाते , कौन हमारी लिखी बांचता. अब आप ही बताओ बाबा ब्लॉगनाथ हुए ना आप हमारे बाबा भोलेनाथ .
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