औघट घाट
कहीं छूट न जाए पकड़ वक्त से या फ़िर सही अंत जीवन का...
Sunday, June 20, 2010
काफ्का, कामू और बोर्खेज
देह भटकती है
अपने ही अन्दर
हांफ जाने तक
हांफ कर तिड़क जाने तक
तड़पती है किताब दर किताब
पेज दर पेज
काफ्का, कामू और बोर्खेज
शब्दों के अंतहीन अजगर
रेंगते है उसके बिस्तर पर
एक बेतरतीब कमरे की कोख में
छटपटाती है देह रात भर.
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