Sunday, October 28, 2018

सुप्रिया जैन … तुम्हारे बाद शेष दुनिया फिर से चलने लगती है।

… शेष दुनिया फिर से चलने लगती है।
मैं पीछे जाकर चप्पल घिसने की एक अंतिम आवाज सुनता हूं। मेडिक्लेम का एक आखिरी मैसेज पढ़ता हूं।

सुबह वहां कुछ नहीं था। भौर भी शाम जैसी। बहुत से चेहरों ने उदासी ओढ़ रखी थी। माथे को शिकन पहना रखी थी। कुछ लाइटें जल रही थीं रोज की तरह। कुछ लोग पौधों में पानी डाल रहे थे। फिर कुछ देर बाद अखबारों पर उंगलियां रगड़ने की आवाजें आईं। कुछ पन्नों के खरखराने की आवाजें। कुछ जगहों पर डार्क सर्कल उभर आए थे बगैर आवाज के।
इस भरी-पूरी चुप्पी में सबसे पहले एक खराश आई। फिर एक ठसका आया गला साफ करने के लिए। फिर चीनी का एक कप फर्श से टकराता है कमजर्फ। बेशर्म नल बहने लगता है माहौल के खिलाफ। चाय का उबलना बिल्कुल मुफीद नहीं होता ऐसे मौकों पर। उसकी खुश्बू तो बिल्कुल भी नहीं। फिर धीमें- धीमें की- बोर्ड का साहस बढ़ता है। वो खड़खड़ाने लगता है उंगलियों के नीचे। कुछ टेक्स्ट उभरने लगते हैं स्क्रीन पर। एक ऐसी भाषा उभर आती है कम्प्यूटर स्क्रीन पर जो इस दुनिया की नहीं है।
लेकिन खिलाफत इस दुनिया का उसूल है। इसलिए सबकुछ खिलाफ हो जाता है। चीनी का कप। नल। चाय। की-बोर्ड और अनजानी भाषा। सबकुछ।
दरअसल, ईश्वर भी अपने किए पर शर्मिंदा नहीं था। वो रोज की तरह शून्य में ताक रहा था। क्योंकि वह स्वयं एक शून्य है।
हम सोचते हैं कि हम चल क्यों रहे हैं। कहीं बैठ क्यों नहीं जाते एक जगह। लेकिन एक रिक्तता हमें अपनी बाहों में घेर लेती है। और उस रिक्तता से घबराकर हम वहां जाकर खड़े हो जाते हैं, जहां झूंड होते हैं। चलती- फिरती दुनिया के झूंड में।
एक मनहूस चुप्पी का राज़ जानना चाहते हैं सब। और इसी मनहूस चुप्पी का राज़ फिर से इस दुनिया को संचालित करने लगता है।
… शेष दुनिया फिर से चलने लगती है।
मैं पीछे जाकर चप्पल घिसने की एक अंतिम आवाज सुनता हूं। मेडिक्लेम का एक आखिरी मैसेज पढ़ता हूं।

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