Monday, March 5, 2018

विकल्प त्यागी की मृत्यु

बहुत उदास दिन था, अलसाया हुआ बगैर धूप का दिन। विकल्प त्यागी। पत्रकारिता में मेरा एक जूनियर। कुछ साल पहले जब मैं पीपल्स समाचार में काम करता था, विकल्प मेरा ब्लॉग 'औघट घाट' पढ़कर मुझसे मिलने आया था। उसके साथ मेरा एक दूसरा जूनियर मयंक शर्मा भी था। बोला आपका ब्लॉग पढ़ता हूँ। आप अच्छा लिखते हैं। मैं भी लिखता हूँ, और खूब पढ़ता हूँ। उस दिन उससे बहुत बातें हुईं। फिदेल कास्त्रो पसंद है बहुत। आजकल चे ग्वारा को पढ़ रहा हूँ। आप भी पढ़िए प्लीज़। उनकी 'मोटरसायकल डायरी'  ऑर्डर की है। वगैरह, वगैरह। उत्साह से भरा विकल्प खूब पढ़ना- लिखना चाहता था। बाद में शायद चे की 'मोटरसाइकिल डायरी' से प्रभावित होकर ही उसने अपना फेसबुक नाम 'जिप्सिज़ स्टोरी' रखा हो। इस मुलाकात के बाद वो हमेशा मुझे इनबॉक्स में पढ़ने लिखने और किताबों की बातें करता रहा। मुझे निर्मल वर्मा का भूत कहता था। और मैं इस तारीफ से भर जाता था।

आज शाम को मेरी एक पोस्ट पर प्रणय रघुवंशी (लखन) का कमेंट मिला। 'विकल्प नहीं रहा' यह संयोग ही था कि मृत्यु पर ही आज मैंने अपनी एक पोस्ट शेयर की थी। कुछ देर बाद प्रणय ने फ़ोन कर विकल्प के बारे में बताया। अच्छा लिखने और पढ़ने वाला एक लड़का नहीं रहा। जिप्सी का सफर थम गया।

मृत्यु एक चुप्पी है, एक ठंडी गहरी नींद। वहां कुछ नहीं है- कुछ भी नहीं। किसी की मृत्यु के बाद कुछ भी शेष नहीं बचता। न कोई कहानी, न कोई पेंटिंग और न ही कोई कविता। लेकिन लिखने वाले यहाँ भी शब्दों का सौंदर्य ढूंढ लेते हैं। ब्यूटी ऑफ टेक्स्ट। मौत में अटका लिखने का सुख। यह भी एक भोग है। मैं भी ऐसे लोगों में से हूँ जो अक्सर लिखने के लिए मृत्यु जैसे 'सब्जेक्ट' को चुन लेते हैं। - और ऐसा कर के मृत्यु शब्द को ही नष्ट कर देते हैं। इसे घटा देते हैं, कम कर देते हैं। क्योंकि मौत को कहीं से नापा नहीं जा सकता। इसकी लंबाई- चौड़ाई को तय करने का कोई सिरा नहीं। किसी भी तरह की गवाही मृत्यु के लिए उचित नहीं। न कोई शब्द, न ध्वनि। न सांत्वना, न दुःख, न विलाप। मृत्यु एक मृत तटस्थता चाहती है। मृतप्रायः भाव। या मृतप्रायः भावहीनता। जहां कोई हलचल नहीं। कोई प्रतिक्रिया नहीं। जैसे कोई शून्य, या फिर कोई शून्य भी नहीं।

No comments:

Post a Comment