तारीखें और हॉस्पिटल
जिंदगी- मौत के बीच
कुछ किलो मीटर
आवाजें- सन्नाटा
साँस... बे- साँस
और इन सब के बीच का अंतर
कहीं कुछ था तो बस
दीवारों पर गोल घूमता हुआ वक्त
वक्त जो चुभता रहा बार-बार
कलाइयों में सुइयां बनकर
सर पर कांच की सफ़ेद बोतलें
झूलती रहीं रात भर
बोतल से टपकती जिंदगी
नली से गुज़रती रही रात भर
कमरे में खिलखिलाते सफ़ेद साए
पलंग पर छटपटाती आवाजें
उलटी, उपके, दर्द, बेचैनी
खिड़कियों से बाहर
विस्तार टटोलती आँखें
उड़ जाना चाहती है शीशे तोड़कर
अंधड़ रास्तों पर
कतारों में चमकती लाईटों से
कहीं अधिक मद्धम है जिंदगी
सड़क किनारे अहाते से आती बू
नशीली नस्ल के ठहाके
और सिगरेट के बेपरवाह धुँए से
शाम अंधिया गई है
मै कमरे में बिखरे
बदबूदार रूई के फोहों को
कानों में ठूस लेना चाहता हूँ
सूखे खून से सनी स्लाइदें
और हॉस्पिटल में बिखरी
असंख्य सुइयों के बीच
एक सपना रेंगता है
एक सिंदूरी पत्थर के सामने
होंठ हनुमान चालीसा बुदबुदाते है
एक मार्मिक मगर लाजवाब अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
ReplyDeleteनशीली नस्ल,सिंदुरी पत्थर के प्रयोग से वजन बढ़ गया है। ये वाकई वज़नदार रचना है। कमाल है बेहतर है लाजवाब है..............
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