अख़बार के एक कोने से पता चला कि देवास में कुमार गंधर्व समारोह है जिसमे पंडित जी के बेटे मुकुल शिवपुत्र शिरकत करेंगे। इसकी संभावना बहुत कम थी कि शिवपुत्र वहाँ आएंगे और गायेंगे। दिल्ली समेत कई जगहों पर इस तरह के धोके हो चुके है, ऐसा सुना है... सिर्फ़ सुना है इस बात की ताकीद मैं नहीं कर रहा हूँ।
धोके का डर तो था लेकिन उन्हें सुनना भी था और फ़िर जोखिम कोई बहुत बड़ा नहीं था अमीर खां सा'ब के घराने से कुमार गंधर्व घराने तक ही तो जाना था इसलिए निकल पड़े तय वक्त से कुछ पहले। रास्ते भर पता नहीं क्यों मन ही मन यह दोहराता रहा- " मैं इतिहास सुनने जा रहा हूँ।"
देवास पहुँच कर हैरानी हुई यह देखकर कि गंधर्व समारोह में बमुश्किल दो सो लोग ही इकट्ठा हो पाए। किसी छोटी सी से थोड़ी ही बड़ी महफिल- एक- डेड़ घंटे का इंतज़ार ... जैसे-तैसे शाम पिघली तो कौतुहल थोड़ा गहराया - किसी ने किसी के कान में धीरे से सरकाया कि " मुकुल आ गए हैं "। मुझे लगा कि जैसे कोई मन्नत पुरी हो गई - आँखें इधर-उधर तैरने लगी... फ़िर ठहर गई एक दरवाजे के बाहर।
लगभग पचास- चवपन का आदमी - तक़रीबन अध् पकी दाढ़ी- खादी का कुरता और भगवा धोती-कुछ -कुछ साधुओं की तरह। आगे की तरफ़ बाहों में तानपुरा समेटे सीधे मंच पर पहुँचा- नितांत अकेला और निशब्द ... बिना कोई औपचारिक हरकत किए तानपुरा निकाला और उसकी ट्यूनिंग शुरू की - पुरे बीस मिनट छेड़खानी- दो साजिंदे भी उसी तर्ज पर उनके पीछे-पीछे - एक हारमोनियम और दूसरा तबले पर।
उस दिन शाम को पिघलकर रात में तब्दील होते देखा - एक ख़याल और फ़िर एक ठुमरी - बाजूबंद खुल-खुल जाए - रात अंगडाई लेने लगी और एक अंतहीन लम्हा ठुमरी बनकर मंच पर बिखर गया- लोग अपनी - अपनी आत्माओं से समेटते रहे।
एक नज़र भी अपनी बरात को देखे बिना शिवपुत्र जैसे आए थे वैसे ही तपाक से उठकर चल दिए - एक कलाकार जिसे तालियों की दरकार नहीं- उनकी शोर का मोहताज नहीं और ख़ुद के लिए लगे मजमे का अंदाजा भी नहीं। महफ़िल उठ गई।
वापसी में ठुमरी और ख़याल से कान बजते रहे- मेरी आवाज़ भी घुलती रही- आवाजें मिलकर घुलती रहीं - मैं मन ही मन दोहराता रहा-" मैं इतिहास सुनकर आ रहा हूँ "।
एक सुबह मुकुल शिवपुत्र का नाम फ़िर छपा था - इस बार अख़बार के दुसरे कोने मे- ख़बर बनकर ...
कुमार गंधर्व के बेटे मुकुल शिवपुत्र भोपाल मे मंदिरों के सामने भीख मांग रहे है- दो-दो रुपये - बेहोशीं मे रहने के लिए दो रुपये... भोपाल मे... फ़िर होशंगाबाद मे।
मध्यप्रदेश सांस्कृतिक विभाग ने सम्भाला और ख़याल गायकी केन्द्र की नकेल डाली - फ़िर ख़बर है कि बेखबर है मुकुल शिवपुत्र। अख़बार के किस कॉलम पर है शिवपुत्र ।
अच्छा लिखा भाई. बहुत अच्छा.
ReplyDeleteतुम जज़्बात के साथ लिखते हो... जज्ब़ात गर कच्चे हों, तो तुर्श-से लगते हैं. लफ़्ज़ों के अंतराल में धुंआ-सा दिखता है. लेकिन, जब जज़्बात पक्के हों, तो गुड़-सी गंध होती है. तफ़सीलें- हालांके तब भी जुटाना होती हैं- चुनांचे राइटिंग का एक्सेंट अब उस पर नहीं गिरता.
डिटेल्स अब बैकड्रॉप में हैं...इंटेंसिटी पहले सफ़े पर.
पक्के जज़्बात वाली ही तुम्हारी ये पोस्ट. इसमें मौसिक़ी के मिथक के लिए एक ख़ास तरह की ललक झांकती है. मुकुल शिवपुत्र का ख़ूब ख़ाक़ा खेंचा. बाज़ लोगों से भी सुना है वो शख़्स कुछ ऐसा ही है. फक्कड़ और दरवेशाना.
कुमार ने कबीर को गाया था, लेकिन उनका बेटा ख़ुद निर्गुणी हो गया... सही मायनों में.
जैसे कबीर के घर कमाल पैदा हुआ था, वो भी एक दीगर कहानी है, कभी तुम्हें सुनाऊंगा.
इन्हीं पेचीदगियों का नाम है आखिर... जिंदगी, संगीत, प्रतिभा, शख्सियतें, स्वप्न, सम्मोहन....
लिखते रहना...
लिखने का मतलब ख़ुद को अंधेरे में लगातार खोजते रहना है.
ख़ुश-आम-दीद.
सुशोभित.