पाँच नवंबर की देर रात को जनसत्ता के सत्ताईस अगस्त २००६ के कागद कारे कॉलम में उस्ताद बिस्मिल्ला खां के इंतकाल पर प्रभाष जोशी का " गंगा दुआरे नौबत बाजे " पढ़ रहा था. जनसत्ता के इस अंक को अपने एक दोस्त के घर से चुरा कर लाया था. यह पहला मोका था जब मैने जनसत्ता को छुआ था.
आलेख को पढा और सो गया. सुबह उठकर अख़बार देखा तो प्रभाष जी की हेडिंग थी. वह शुक्रवार ब्लैक फ्राईडे की तरह गुजरा- अलसाया हुआ और उदास. बेक ग्राउंड में दिनभर कबीर-कुमार जी का "उढ़ जायेगा हंस अकेला" गूंजता रहा.
प्रभाष जी को धोक देने की इच्छा मन में थी. इसलिए शनिवार सुबह मोती तबेला उनके घर पहुँच गया. वहीं पहूँच कर यकीन हुआ कि नर्मदा उदास और गतिहीन है. यकीन तब और पुख्ता हुआ जब उनके चाहने वालों की सफ़ेद भीड़ में देखा कि उनकी खबर बिक रही है. तकरीबन सात-आठ साल का एक हॉकर वहाँ नईदुनिया बेच रहा था. वही नईदुनिया जँहा से प्रभाष जी ने पत्रकारिता शुरू की थी. यकीन करना ही पड़ा कि नर्मदा का बेटा अपने घर की देहरी पर कॉफीन में लेटा हुआ था जो ताउम्र अखबारों में बहता रहा.
उस रात प्रभाष जी उस आलेख के बहाने याद आए थे जो उन्होंने बिस्मिल्ला की मृत्यु पर लिखा था लेकिन आज भी वेसा ही महसूस हो रहा है जेसा बिस्मिल्ला के न रहने पर हुआ था. जैसे कोई घटना दुबारा घटी हो. गंगा किनारे घाट पर शहनाई बजाता आधा बिस्मिल्ला मालवा में कहीं छुट गया था, जिसे अब नर्मदा किनारे खेड़ीघाट पर जलाया जाएगा.
दोनों के बीच की जुगलबंदी या संगत तो समझ से परे है लेकिन यह तो निश्चित है कि दोनों के अन्दर नदियाँ बहती रहीं. एक गंगा किनारे मंगल धुनें फूंकता रहा और दुसरा सफ़ेद धोती- कुर्ता पहने नर्मदा किनारे टहलता रहा.
प्रभाष जी कुमार गंधर्व के मुख से कबीर के निर्गुणी भजन सुनते हुए अनवरत यात्रा करते रहे और मालवा के साथ-साथ देशभर की संस्कृति और सभ्यता का अलख जगाते रहे. प्रभाष जी को नर्मदा से प्यार था और यह उनके अंदर सतत प्रवाह से बहती रही जिसका वे उम्रभर सबूत देते रहे. अंत में बिस्मिल्ला और प्रभाष जी दोनों ने अपनी-अपनी नदियाँ चुन ली.
प्रभाष जी जैसी जिन्दगी जीना चाहते थे उन्होंने जी, किसी की चाकरी किए बगैर. अपने हाथों से दाल-बाटी बनाकर दोस्तों को दावतें देना, इंदौर की सराफे वाली गलियों में खाना-पीना और कबीरीयत फक्कडपन में घूमना-फिरना उनका मिजाज़ रहा होगा लेकिन उनके अंतर की तहों को शायद ही कोई जान पाया होगा.
बिस्मिल्ला के रागों की तरह प्रभाष जी भी अपने कागद कारे पुरे कर चल दिए. हम भले ही अखबारों को काला करते रहें. इनके अंतर की तहों तक नहीं पहुँच पाएँगे.कभी नहीं पहुँच पाएँगे, उसके लिए तो किसी रात सराफे वाली गली में जाना होगा या नर्मदा के सामने घुटने टेक कर उसमे डुबकी लगाना होगा- प्रभाष जी की डुबकी की तरह- आधा बिस्मिल्ला प्रभाष...
sushobhit,
ReplyDeleteदोनों ने अपनी-अपनी नदियां चुन लीं- मेरे लिए इस बिंदु पर यह लेख ख़त्म हो जाता है. यह बेहद ख़ूबसूरत वाक्य है. तुम कल्पना भी नहीं कर सकते, कितना ख़ूबसूरत.
कई बार राग के विस्तार में राग की क्षति हो जाती है.
तुम हमेशा रोमानी भावुकता के साथ लिखते हो. ये कमज़ोरी भी है और ताक़त भी. लेकिन तुम अब बहुत अच्छा लिखने लगे हो. तुम्हारे पास अध्ययन हमेशा कम होता है, लेकिन तुम जज़्बात के साथ लिखते हो तो उस कमी को पाट देते हो. या कम से कम उस कमी को पाटने की कोशिश तो करते ही हो.
प्रभाष जोशी के महज़ एक लेख से उनके क़द और उनकी शख्सियत का आंकलन कर सकना मुश्किल है. लेकिन तुम्हारे पास एक लिंक थी. रात को तुमने पढ़ा, सुबह तुम्हें ख़बर मिल गई. ये एक सिचुवेशन थी, जिस पर एक डिस्पैच बनता था, तुमने उसे ख़ूब बनाया भी है.
बस, फक्कड़पन और कबीरीयत में थोड़ा-सा अंतर करना ज़रूरी हो जाता है. नदी किनारे घूमना, सराफे जाना, सिगरेट फूंकना या बेतरतीब रहना फक्कड़पना हो सकता है, लेकिन ये कबीरीयत नहीं है. ये दोनों लफ़्ज़ अक्सर एक-दूसरे के पर्याय बना लिए जाते हैं, जो कि एक गंभीर भूल है. कबीर मूलत: एक 'साधक' थे, कुमार मूलत: एक 'गायक' थे, प्रभाष जोशी महज़ एक 'लिक्खाड़' थे.
अलग-अलग धाराओं को जोड़कर देखने के आग्रह से बेहतर होता है, उन्हें इस बात की इजाज़त देना कि वे अपनी-अपनी नदियां चुन लें.
लिखते रहना. बातें करते रहेंगे.
sushobhit