नापी है कई गलिया और सड़कें
दिन मै , रात मै और दोपहरो मै
कोहरे को चीरते
चांदनी मै नहाएँ
हम दोनो .
देर तक और दूर तक
चलते रहते
उजाले से बेखबर
स्याह रात से निडर
जिंदगी की बातें करते
मजाक उड़ाते उसका
हम दोनो .
धुआँ निगलते
और उगलते
चलते रहते
हम दोनो .
उन दिनों
हम चलते रहते
जीते रहते
कई जिंदगीया एक साथ .
वक्त अब नही है वो
ना ही शहर मुनासिब ये
लेकिन जिंदा है
माचिस की कई गीली तिलिया
जलने को तैयार
सड़कों पर बिखरी पड़ी है .
चमक रहे है अभी भी सड़कों पर
सिगरेट के फेंके हुए कई ठुठ .
चिपकी हुई है चाशनी
चाय के उन गिलासो मै .
कानो मै घुल रहा है
होटलों मै बजता वो संगीत .
जिंदा है यह सब अभी भी
उन धड़कती गलियों
सांस लेती सड़कों
और शोर मचाते
उन चौराहो की तरह
जिन पर जीते थे
आधे - आधे हम दोनो
और एक जिंदगी .
उन चौराहो की तरह
ReplyDeleteजिन पर जीते थे
आधे - आधे हम दोनो
और एक जिंदगी
बढिया !!
adwiteeya !
ReplyDeleteanupam kavita !
भावमयी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteवक्त अब नही है वो
ReplyDeleteना ही शहर मुनासिब ये
लेकिन जिंदा है
sundar abhivyakti,badahi
हमारे गुण जुड़ जाते हैं तो एक पूर्ण जीवन बन जाता है । कमियाँ जुड़ने गती हैं तो अशान्ति फैल जाती है ।
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