Wednesday, April 14, 2010

स्पर्श

तुम्हारा स्पर्श था या जिंदगी
सूखे पत्ते पर टिकी
ओस की बूँद की तरह
छू लिया था तुमने मुझे
पागल नदी की तरह उतर गई मेरे अंदर
जेसे कभी जुदा ना होगी .

तुम्हारा स्पर्श था या बिजली
जो धरती का सीना चीरकर
धंस गई पाताल की गहराईयो मै
और यह कह गई
कि अल - सुबह फिर आउंगी
सूरज बन कर
और तुम्हे जगाउंगी
अपनी गर्म सांसो से .

तुम्हारा स्पर्श था या रोशनी
जो खडी रही दिन भर मेरे सिरहाने
मुझे जगाने के लिए .

शाम दलते - दलते
तुम जा तो रही थी
लेकिन कह रही थी
मुझे पह्चान लेना
मै रात को वापस आउंगी
आधा चांद बन कर
तुम्हे छुने के लिए

तुम्हारा स्पर्श था या जिंदगी .

2 comments:

  1. ye kavita pehle maine padhi hui hai.....pasand aai thi tab bhi ...aur ab bhi..

    -Awdhesh p singh

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  2. अहा, स्पर्श कितना कुछ संचालित कर देता है, शरीर में, मन में।

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