वो गंध थी कुछ देहो की
और इस गर्मी का पसीना भी.
कुछ नमक, कुछ शहद बनकर
जबान तक रिस आए थे.
हम अपने-अपने जिस्म उतारकर
रुह को सूँघ रहे थे
हम रिश्ते बुन रहे थे.
वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी
अब एक चुप्पी सी है
गहरा पसरा मौन भी.
वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी .
पसीना
ReplyDeleteदेह गन्ध
शहद नमक पुती जबान
गहरा पसरा मौन
जिस्म उतार
हम रूह सूँघ रहे थे
रिश्ते बुन रहे थे
चुप चाप।
गिरिजेश साहब के ब्लाग से आपके पास पहुचा हू.. कमाल की कविता है साहब..
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