मुंबई की पटरियों पर सरपट दौड़ती लोकल और बेक ग्राउंड में एक नए किस्म का और कभी कभी जेम्स्बोंड की याद दिलाता म्यूजिक । रेसकोर्स की रेस में भागते घोडों की सी तेज गति की तरह यहाँ से वहाँ लहराते कैमरों ने फ़िल्म को एक अलग ही मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है । एक से दुसरे में तब्दील होता सीन इतनी गति लिए होता है की दर्शक बिना पलक झपकाए फ़िल्म देखने को मजबूर हो जाता है। हर सीन इतना कसा हुआ की तमाशबीन पिछला सीन भूल कर आंखों के सामने चलने वाले सीन पर सिमट जाए। चार्ली जब स्क्रीन पर हो तो हम गुड्डू को भूल जाते है और जब गुड्डू दिखाई दे तो चार्ली याद नही आता है, जब स्वीटी दिखती है तो मुंबई की सडकों और लोकल में घुमती वहां की हर उन्मुक्त लड़की बरबस ही याद आ जाती है।
विशाल भारद्वाज कुछ कुछ ही नही बिल्कुल बदले हुए नजर आते है। विशाल ने कमीने में अपने ही पेटर्न को तोडा है। दर्शक फ़िल्म नही मानों ढाई घंटे चलने वाला कोई "मूविंग एब्सट्रैक्ट आर्ट" देख रहा हो।
मकबूल, ओमकारा और ब्लू अम्ब्रेला देखकर कभी हैरत नहीं होती क्योंकि सभी यह बखूबी जानते है की शेक्सपियर के नाटकों पर विशाल ही इस तरह का बेहतरीन सिनेमा रच सकते है। उनकी फिल्मो में दर्शक आंखों में और चहरे पर उदासी लेकर बाहर निकलता है जिसे हम "सो कॉल्ड ट्रेजेडी" कहते है जिसमे विशाल माहिर भी है।
ओथेलो का देसी चरित्र ओमकारा अपनी पत्नी पर अविश्वास और मानविय स्वार्थपूर्ण षडयंत्र में फंसकर मृत्यु को गले लगा लेता है। मकबूल का मेकबेथ भी अपने लिए मौत ही चुनता है। दर्शक को यह पता नही होता है कि मकबूल और ओमी शुक्ला उनका नायक है या खलनायक है फ़िर भी उनकी मौत का बोझ अपने कंधो पर लेकर सिनेमा हॉल से बाहर निकलता है।
मकडी और ब्लू अम्ब्रेला को छोड़ दें तो विशाल को शेक्सपियर के नाटकों में दखल देने वाला डायरेक्टर ही माना जाता रहा है और वही दखल अंदाजी उनका अपना पेटर्न बन गई इसलिए विशाल के मुरीदों को यही इंतज़ार था कि अब "डेनमार्क का प्रिन्स हेमलेट" देखने को मिलेगा, गोया कि शेक्सपियर जैसे महान नाटककार की रचनाओं में दखल देना गुस्ताखी है लेकिन फ़िर भी मकबूल और ओमकारा सराहनीय है और इन खुबसूरत रचनाओं को माफ़ किया जा सकता है। बहरहाल हैरत होती है जब विशालनुमा शेक्सपियर सिनेमा से बाहर निकल कर कमीने जैसी बेहतरीन एब्सट्रैक्ट बनाते है।
स्वयं की अवधारणा तोड़ कर नए पेटर्न का सिनेमा दिखाना या बनाना इम्पोस्सिब्ल नहीं तो मुश्किल तो है ही। कमीने विशाल की शैली नहीं है फ़िर भी विशाल ने ही बनाई है इस बात की खुशी होती है। कम से कम विशाल अपने दर्शकों पर भरोसा तो करते ही है इसीलिए कमीने में उन्होंने एक कदम आगे बढ़ा कर सिनेमा के बेहतरीन अनछुए हिस्सों को छुआ है ।
चार्ली सपने बुनता है और रेसकोर्स के घोडे की सी तेज़ गति से भाग कर उन्हें साकार कराने की कोशिश करता है, वह फौर्टकट से भी छोटे फौर्टकट में यकीन करता है जबकि गुड्डू कुत्ती दुनिया के कमीनेपन का शिकार होता रहता है, बहरहाल तमाशे तो बहुत होते है फिल्म कभी कभी बनती है।
hi Naveen,
ReplyDeleteThis is Prafull. We met at scratchmysoul symposium where you won the first prize. your blog is lovely & posts do engage for reading. I will comment on whichever posts I like ..ok