Saturday, March 3, 2007

बंबई

अब लिखना है मुश्किल
उतना जितना प्रेम का मिल जाना 
  
इस से तो अच्छा है
कि टपक जाये एक आंसू छम से
और तुम सुन सको उसका गिरना

अब कहना है मुश्किल कुछ भी
इस से तो अच्छा है
कि मैं खड़ा रहूँ अतीत के बम्बई में

सायन की गली हो
और तुम मुझे लेने आओ
उसी पहली बार की तरह

या फिर साथ चलो पटरियों के किनारों पर
और बताओ मुझे कि  देखो
वो मरीन ड्राइव है और ये बेंडस्टैंड

सेकड़ों फास्ट और लोकल के बीच भी
कितने लोकल थे हम दोनों
इतना कि किसी को जानते नहीं थे
सिवाय एक दुसरे के

बस! यही एक जानकारी थी कि
हम दोनों है

कैसे रहे हम इतने लोगों के बीच 
सिर्फ अपना अपना होकर 
तुम कितने तुम्हारे 
और मैं कितना खुद मेरा था

मुश्किल है बहुत
अब तुम्हारा नाम लेना
या तुम मेरा नाम दोहराओ  
इस से तो अच्छा है कि
हम खड़े रहें ट्रेन के इंतज़ार में
या गेट पर खड़े होकर
सुनते रहें हवाओं को
या उतर जाये यूँही हाजी अली पर 
या भीग आयें खारे पानी में 
और जब हम लौटे कमरे पर 
तो हमारे पैरों की उँगलियों में रेत चिपकी हो 

या चलते रहे चर्चगेट की सड़कों पर  
थककर हार जाने के लिए
चूर हो जाने तक

सच कहूँ तो हम कुछ भी नहीं
न तस्वीरें न मांस और खून
और न ही कोई जादूगर

तुम बस मेरा मिजाज लौटा देते हो
साल दर साल
किश्तों में
और में जिन्दा रहता हूँ
तुम्हारी चुकाई हुई
उन किश्तों के सहारे






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